Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है










होम / एडिटोरियल

सिविल कानून

विद्युत अधिनियम, 2003

    «    »
 21-Oct-2024

स्रोत: द न्यू इंडियन एक्सप्रेस

परिचय

उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकारों एवं बिजली विनियामक आयोगों के बीच संबंधों को स्पष्ट करते हुए एक ऐतिहासिक निर्णय दिया है। निर्णय में इस तथ्य पर बल दिया गया है कि राज्य बिजली विनियामक आयोग (SERCs) बिजली अधिनियम, 2003 की धारा 108 के अंतर्गत जारी निर्देशों से बंधे नहीं हैं।

यह निर्णय नियामक निकायों की स्वतंत्रता को सुदृढ़ करता है तथा उनके अर्ध-न्यायिक कार्यों पर सरकारी प्रभाव को सीमित करता है।

केरल राज्य विद्युत बोर्ड लिमिटेड बनाम झाबुआ पावर लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि तथा न्यायालय की टिप्पणी क्या है?

  • पृष्ठभूमि:
    • केरल राज्य विद्युत बोर्ड लिमिटेड (KSEBL) ने विद्युत अधिनियम, 2003 की धारा 63 के अंतर्गत प्रतिस्पर्धी बोली के माध्यम से बिजली खरीद के लिये दो अलग-अलग निविदाएँ निर्गत कीं।
    • KSEBL ने मानक बोली दिशानिर्देशों से अलग बोलियों को स्वीकार किया, तथा कुल 865 मेगावाट बिजली के लिये सात बिजली आपूर्ति करार (PSA) निष्पादित किये।
    • केरल राज्य विद्युत विनियामक आयोग (KSERC) ने प्रारंभ में L1 बोलीदाताओं के साथ PSA को स्वीकृति दे दी थी, लेकिन मानक बोली दिशानिर्देशों से विचलन का उदाहरण देते हुए बाकी PSA पर निर्णय स्थगित कर दिया था।
    • 10 मई 2023 को, KSERC ने PSA के लिये अनुमोदन देने से मना कर दिया, यह निष्कर्ष पाते हुए कि टैरिफ निर्धारण प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव था तथा मानक बोली दिशानिर्देशों से विचलन था।
    • KSEBL ने KSERC के निर्णय को बिजली के लिये अपीलीय अधिकरण (APTEL) में अपील की।
    • 10 अक्टूबर, 2023 को केरल सरकार ने विद्युत अधिनियम की धारा 108 को लागू करते हुए जनहित का उदाहरण देते हुए KSERC को अपने आदेश पर पुनर्विचार करने के लिये नीतिगत निर्देश जारी किये।
    • KSEBL ने अपनी APTEL अपील वापस ले ली तथा KSERC के समक्ष समीक्षा याचिका दायर की।
    • 29 दिसंबर 2023 को, KSERC ने समीक्षा याचिका को अनुमति दी तथा राज्य सरकार के धारा 108 के निर्देशों का उदाहरण देते हुए PSA को स्वीकृति दे दी।
    • दो उत्पादकों ने KSERC के समीक्षा आदेश के विरुद्ध APTEL में अपील की, जिसने KSERC के आदेश को खारिज कर दिया।
    • KSEBL ने फिर APTEL के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
  • न्यायालय का अवलोकन
  • उच्चतम न्यायालय ने APTEL के इस निर्णय की पुष्टि की कि धारा 108 के अंतर्गत राज्य सरकार का निर्देश KSERC के न्यायिक कार्य को विस्थापित नहीं कर सकता।
  • न्यायालय ने कहा कि विद्युत अधिनियम, 2003 की धारा 108 राज्य नियामक आयोगों को सरकारी निर्देशों के लिये बाध्य नहीं करती है, बल्कि उन्हें ऐसे निर्देशों द्वारा "मार्गदर्शित" होने की आवश्यकता होती है।
  • न्यायालय ने धारा 108 की भाषा को अधिनियम के अन्य प्रावधानों, जैसे धारा 11, से अलग किया, जो असाधारण परिस्थितियों में उत्पादन कंपनियों को निर्देश देने के लिये अनिवार्य भाषा का उपयोग करता है।
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि धारा 108 सरकारी निर्देशों के आधार पर राज्य आयोगों द्वारा अर्ध-न्यायिक शक्ति के प्रयोग को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करती है।
  • न्यायालय ने APTEL के इस निष्कर्ष से सहमति जताई कि KSERC ने अपने पहले के आदेश की समीक्षा करते समय अधिनियम की धारा 94 के अंतर्गत अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया, क्योंकि वह समीक्षा की मांग करने वाली किसी भी स्पष्ट त्रुटि की पहचान करने में विफल रहा।
  • न्यायालय ने कहा कि KSERC ने अपनी समीक्षा को उचित ठहराने के लिये केवल बाद में राज्य सरकार के निर्देशों पर भरोसा किया, जो सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश XLVII नियम 1 के अंतर्गत समीक्षा शक्ति का प्रयोग करने की सीमा को पूरा नहीं करता है।
  • न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 86(1)(b) स्पष्ट रूप से KSERC को बिजली खरीद मूल्यों को विनियमित करने का कार्य सौंपती है, तथा इस शक्ति का प्रयोग केवल अधिनियम की धारा 62 एवं 63 के अनुसार ही किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 108 के अंतर्गत नीति निर्देश धारा 63 के साथ धारा 86(1)(b) के अंतर्गत KSERC द्वारा पहले से किये जा रहे सांविधिक कार्यों को रद्द नहीं कर सकता।
  • KSERC के समीक्षा आदेश को रद्द करने के APTEL के निर्णय को यथावत रखते हुए, न्यायालय ने KSEBL की मूल अपील (अपील संख्या 518/2023) को APTEL की फाइल में बहाल करने का निर्देश दिया।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि APTEL के विवादित आदेश में शामिल मुद्दों को बहाल अपील में फिर से नहीं उठाया जाना चाहिये, जिस पर केवल मूल अपील को वापस लेने से पहले उठाए गए अन्य आधारों पर ही विचार किया जाना चाहिये।

विद्युत अधिनियम, 2003:

परिचय:

  •  विद्युत अधिनियम, 2003 भारत में विद्युत क्षेत्र को नियंत्रित करने वाला एक व्यापक विधान है।
  •  इसने तीन पिछले विधानों को प्रतिस्थापित किया: भारतीय विद्युत अधिनियम, 1910, विद्युत (आपूर्ति) अधिनियम, 1948 तथा विद्युत विनियामक आयोग अधिनियम, 1998।
  • इस अधिनियम का उद्देश्य बिजली के उत्पादन, पारेषण, वितरण, व्यापार एवं उपयोग से संबंधित विधानों को समेकित करना है।
  • यह विद्युत क्षेत्र की देखरेख के लिये केंद्र एवं राज्य दोनों स्तरों पर विनियामक आयोगों की स्थापना का प्रावधान करता है।
  • यह अधिनियम प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है, उपभोक्ता हितों की रक्षा करता है तथा ग्रामीण क्षेत्रों सहित सभी क्षेत्रों को बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखता है।
  •  इसने ट्रांसमिशन में खुली पहुँच, वितरण में चरणबद्ध खुली पहुँच एवं अनिवार्य मीटरिंग जैसे प्रमुख सुधार प्रस्तुत किये।
  • यह अधिनियम बिजली व्यापार को एक अन्य गतिविधि के रूप में मान्यता देता है तथा उत्पादन, ट्रांसमिशन एवं वितरण में निजी क्षेत्र की भागीदारी का प्रावधान करता है।
  • यह एक बहु-वर्षीय टैरिफ ढाँचा स्थापित करता है तथा बिजली की चोरी के लिये सख्त दण्ड प्रस्तुत करता है।

अधिनियम की धारा 108:

  • धारा 108 "नियामक आयोगों" से संबंधित है।
  • उपधारा (1) में यह प्रावधानित किया गया है कि राज्य आयोग लोक हित से जुड़े नीतिगत मामलों में राज्य सरकार के निर्देशों द्वारा निर्देशित होगा।
  • ये निर्देश राज्य सरकार द्वारा लिखित रूप में दिये जाने चाहिये।
  • प्रावधान में "निर्देशित होगा" शब्द का उपयोग किया गया है, जिसका तात्पर्य है कि निर्देश अनिवार्य रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, लेकिन आयोग द्वारा उन पर विचार किया जाना चाहिये।
  • निर्देश "लोक हित से जुड़े नीतिगत मामलों" तक सीमित हैं, जो सरकारी हस्तक्षेप के दायरे को सीमित करता है।
  • उपधारा (2) इस विषय में संभावित विवादों को संबोधित करती है कि क्या कोई निर्देश लोक हित से जुड़े नीतिगत मामलों से संबंधित है।
  • इसमें यह प्रावधान है कि यदि ऐसा कोई प्रश्न आता है, तो इस मामले पर राज्य सरकार का निर्णय अंतिम होगा।

विद्युत अपीलीय अधिकरण (APTEL):

  • APTEL का गठन 2005 में विद्युत अधिनियम, 2003 के अंतर्गत किया गया था।
  • इसका प्राथमिक कार्य विद्युत अधिनियम, 2003 के अंतर्गत निर्णायक अधिकारी या केंद्रीय एवं राज्य विद्युत नियामक आयोगों के आदेशों के विरुद्ध अपील सुनना है।
  • APTEL की स्थापना न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े द्वारा 2002 में उच्चतम न्यायालय में एक बहु-विषयक विशेषज्ञ अपीलीय निकाय की आवश्यकता के संबंध में की गई टिप्पणियों के बाद की गई थी।
  • 2007 में, APTEL को पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस विनियामक बोर्ड के आदेशों के विरुद्ध अपील सुनने के लिये अपीलीय अधिकरण के रूप में भी नामित किया गया था।
  • विद्युत अधिनियम, 2003 की धारा 121 के अंतर्गत APTEL के पास विनियामकों पर अधीक्षण की भूमिका है, जो इसे राज्य या केंद्रीय विद्युत विनियामक आयोगों को आदेश, निर्देश या निर्देश निर्गत करने की अनुमति देता है।
  • APTEL की संरचना में शामिल हैं:
    • एक अध्यक्ष जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश या उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश रह चुका हो।
    •  एक न्यायिक सदस्य जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रह चुका हो या बनने के योग्य हो।
    • दो तकनीकी सदस्य जो बिजली क्षेत्र के विशेषज्ञ हों।
    • एक तकनीकी सदस्य जो पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस क्षेत्र का विशेषज्ञ हो।
  • APTEL की प्रत्येक पीठ में कम से कम एक न्यायिक एवं एक तकनीकी सदस्य होता है, जो विधि एवं उद्योग विशेषज्ञता का एक प्रभावी संयोजन बनाता है।
  • APTEL के पास अपीलों के निपटान के लिये 180 दिनों की समय-सीमा है।
  • APTEL के निर्णयों के विरुद्ध दूसरी अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष है, लेकिन केवल विधि के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर।
  • APTEL ने विभिन्न मामलों पर महत्त्वपूर्ण आदेश एवं निर्णय जारी किये हैं, जिनमें शामिल हैं:
    • राज्य आयोगों को प्रतिवर्ष खुदरा आपूर्ति शुल्क निर्धारित करने का निर्देश देना।
    • राज्य आयोगों पर राज्य सरकार के कुछ नीति निर्देशों की गैर-बाध्यकारी प्रकृति पर निर्णय।
    • ओपन एक्सेस और क्रॉस-सब्सिडी सरचार्ज पर निर्णय।
    •  नवीकरणीय खरीद दायित्वों (RPO) का प्रवर्तन।
    • नियामक आयोगों पर राष्ट्रीय विद्युत नीति एवं टैरिफ नीति की गैर-बाध्यकारी प्रकृति को स्पष्ट करना।

निष्कर्ष

उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय से राज्य सरकारों एवं विद्युत क्षेत्र में विनियामक आयोगों के बीच की गतिशीलता पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। यह स्पष्ट करके कि राज्य विद्युत विनियामक आयोग धारा 108 के अंतर्गत सरकारी निर्देशों से बंधे नहीं हैं, न्यायालय ने इन अर्ध-न्यायिक निकायों की स्वतंत्रता की रक्षा की है। इस निर्णय का भारत भर में ऊर्जा नीति कार्यान्वयन एवं विनियामक निर्णय लेने पर दूरगामी प्रभाव पड़ने की संभावना है।