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सिविल कानून

उच्च न्यायपालिका में महिलाओं की स्थिति

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 30-Oct-2024

स्रोत: द हिंदू  

परिचय

प्राथमिक स्तर पर किये गए प्रयास के द्वारा महिलाओं को अधिकाधिक संख्या में अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों के रूप में न्यायिक प्रणाली में भागीदारी बढ़ाने के लिये बहुत चर्चा हो रही है, लेकिन अकेले यह पर्याप्त नहीं है। असली चुनौती भागीदारी एवं प्रतिधारण दोनों में है। हालिया आकड़े अधीनस्थ न्यायालयी स्तर पर उत्साहजनक प्रगति (जिला न्यायालयों में 36.3% महिलाएँ लेकिन उच्च स्तरों पर अपेक्षाकृत कम प्रतिनिधित्व, जो कि उच्च न्यायालयों में 13.4% एवं उच्चतम न्यायालय में 9.3% ही है) प्रदर्शित करते हैं।

उच्च न्यायपालिका में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के मुख्य कारण क्या हैं?

  • सतत किया जाने वाला प्रयास:
    • न्यायिक सेवा नियमों के अनुसार न्यायाधीश बनने के लिये 'निरंतर' विधिक व्यवसाय किये जाने की आवश्यकता होती है, जो उन महिलाओं के लिये कठिन है, जिन्हें मातृत्व लाभ या न्यूनतम अनुदान के बिना पारिवारिक उत्तरदायित्व के बीच संतुलन स्थापित करना होता है।
  • कठोर स्थानांतरण नीतियाँ:
    • स्थानांतरण नीतियाँ लचीली नहीं हैं तथा घरों में प्राथमिक देखभाल करने वाली के रूप में महिलाओं की भूमिका पर विचार नहीं करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप कई महिलाएँ कैरियर में उन्नति के अवसरों से वंचित रह जाती हैं।
  • दोषपूर्ण मूल संरचना:
    • उच्च न्यायालयों सहित कई न्यायालयों में महिलाओं के लिये उचित शौचालय, पर्याप्त स्वच्छता सुविधाएँ तथा उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है।
  • सीमित परिवार-अनुकूल सुविधाएँ:
    • यहाँ भोजन कक्ष एवं शिशुगृह जैसी आवश्यक सहायक सुविधाओं की कमी है, तथा जहाँ वे हैं, वहाँ भी प्रतिबंधात्मक नीतियाँ हैं (जैसे कि दिल्ली उच्च न्यायालय का शिशुगृह केवल छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को ही स्वीकार करता है)।
  • अचेतन लिंग पूर्वाग्रह:
    • महिला न्यायाधीशों को अक्सर प्रशासनिक कर्त्तव्यों में अनदेखा कर दिया जाता है, जैसा कि अधिकांश उच्च न्यायालय भवन समितियों में उनकी अनुपस्थिति से स्पष्ट होता है।
  • निर्णयन क्षमता में प्रतिनिधित्व का अंतर:
    • उच्च न्यायालय रजिस्ट्री एवं न्यायिक अकादमियों में महिलाओं का सीमित प्रतिनिधित्व होने का अर्थ है कि नीति-निर्माण एवं लिंग-संवेदनशीलता प्रशिक्षण में महिलाओं के दृष्टिकोण पर विचार नहीं किया जाता है।
  • फ़नल इफ़ेक्ट:
    • बार में महिलाओं की संख्या कम होने के कारण (नामांकित अधिवक्ताओं में केवल 15.31%) ऐसे उम्मीदवारों की संख्या कम है जो स्वयं को प्रस्तुत कर सकें तथा उच्च पदों पर पदोन्नति के लिये विचार किये जा सकें।
  • सार्वजनिक-निजी विभाजन:
    • पारंपरिक पुरुष-प्रधान न्यायिक प्रणाली महिलाओं के निजी क्षेत्र से सार्वजनिक क्षेत्र में संक्रमण के लिये पर्याप्त रूप से अनुकूलित नहीं हुई है, जिसके परिणामस्वरूप ऐसा वातावरण बना है जो महिलाओं के उत्थान के लिये अनुकूल नहीं है।

समावेशी न्यायपालिका के निर्माण के लिये महिलाओं की भूमिका एवं भागीदारी को प्राथमिकता देना क्यों आवश्यक है?

  • प्रशासनिक प्रतिनिधित्व में कमी:
    • यहाँ स्पष्ट रूप से अचेतन लैंगिक पूर्वाग्रह का मुद्दा है, जहाँ महिला न्यायाधीशों को अक्सर प्रशासनिक भूमिका से वंचित कर दिया जाता है - उदाहरण के लिये, अधिकांश उच्च न्यायालय भवन समितियों (दिल्ली, इलाहाबाद एवं हिमाचल प्रदेश को छोड़कर) में एक भी महिला न्यायाधीश नहीं है।
  • मूल योजना संबंधी मुद्दे:
    • निर्णय लेने वाली भूमिकाओं में महिलाओं के बिना, मूल आवश्यकता को अक्सर प्राथमिकता नहीं दी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप एकल शौचालय ब्लॉक या अस्थायी अपशिष्ट निपटान डिब्बे जैसे अपर्याप्त समाधान सामने आते हैं, जो महिलाओं की आवश्यकताओं को पूरी तरह से पूरा नहीं करते हैं।
  • नीति विकास की कमी:
    • उच्च न्यायालय रजिस्ट्री एवं न्यायिक अकादमियों में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने का अर्थ है कि नीतियाँ महिलाओं के दृष्टिकोण एवं अनुभवों के अनुसार नहीं बनाई जातीं, जिसके परिणामस्वरूप लिंग-आधारित चुनौतियों की अपूर्ण समझ बनती है।
  • प्रशिक्षण एवं संवेदनशीलता की आवश्यकताएँ:
    • प्रभावी लिंग आधारित संवेदनशीलता प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित करने तथा न्यायपालिका में प्रणालीगत पूर्वाग्रह को दूर करने के लिये महिलाओं की भागीदारी महत्त्वपूर्ण है।
  • समग्र समर्थन प्रणाली:
    • महिला-केंद्रित दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करेगा कि नीति-निर्माण के दौरान महिलाओं की आवश्यकताओं को अनदेखा न किया जाए तथा न्यायपालिका के अंदर एक अधिक सहायक वातावरण बनाने में सहायता मिलेगी, जो उनके अनुभवों एवं वास्तविकताओं को स्वीकार करेगा।
  • कैरियर उन्नति में सहायता:
    • महिलाओं की आवश्यकताओं को प्राथमिकता देने से भर्ती, स्थानांतरण एवं व्यावसायिक विकास के लिये बेहतर नीतियाँ बनाने में सहायता मिलेगी, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि महिलाएँ अपने व्यक्तिगत उत्तरदायित्व में प्रबंधन करते हुए अपने करियर में आगे बढ़ सकें।

न्यायपालिका में महिलाओं की प्रगति में कौन सी व्यवस्थागत एवं नीतिगत कमियाँ बाधा डालती हैं?

  • प्राथमिक स्तर पर आने वाली बाधाएँ:
    • कुछ राज्यों द्वारा अधीनस्थ न्यायपालिका के स्तर पर महिलाओं की भर्ती के लिये किये जा रहे प्रयासों के बावजूद, प्रत्यक्ष भर्ती चुनौतीपूर्ण बनी हुई है, क्योंकि नियमों के अनुसार 'निरंतर' प्रयास की आवश्यकता होती है, जिससे उन महिलाओं को हानि होती है, जिन्हें पारिवारिक उत्तरदायित्व के लिये करियर से ब्रेक की आवश्यकता होती है।
  • अपर्याप्त सहायता लाभ:
    • मातृत्व लाभ एवं न्यूनतम अनुदान की कमी के कारण महिला अधिवक्ताओं के लिये निरंतर विधिक व्यवसाय करना और बेंच में पदोन्नति के लिये पात्रता की अर्हता को पूरा करना कठिन हो जाता है।
  • अनम्य स्थानांतरण नीतियाँ:
    • वर्तमान स्थानांतरण नीतियाँ कठोर हैं तथा प्राथमिक देखभालकर्त्ता के रूप में महिलाओं की भूमिका पर विचार करने में विफल हैं, जिससे कैरियर में उन्नति के लिये बाधाएँ उत्पन्न होती हैं तथा अक्सर महिलाओं को पारिवारिक उत्तरदायित्व एवं कैरियर के उत्थान के बीच चयन करने के लिये विवश होना पड़ता है।
  • मूल ढाँचा नीति की कमी:
    • महिलाओं के लिये मूल ढाँचे की आवश्यकताओं को अनिवार्य बनाने वाली नीतियों में महत्त्वपूर्ण अंतर है, जैसे कि न्यायालयों में पर्याप्त शौचालय, स्वच्छता सुविधाएँ एवं स्वच्छ अपशिष्ट निपटान प्रणाली।
  • सीमित पारिवारिक सहायता नीतियाँ:
    • जबकि कुछ न्यायालयों ने क्रेच जैसी परिवार-अनुकूल सुविधाएँ प्रारंभ की हैं, इन सुविधाओं को नियंत्रित करने वाली नीतियाँ अक्सर प्रतिबंधात्मक होती हैं (जैसे आयु सीमा) एवं संसाधन सीमित होते हैं, जिससे वे कामकाजी माताओं के लिये अप्रभावी हो जाते हैं।
  • अवधारण नीतियाँ:
    • उच्च न्यायपालिका के पदों पर महिलाओं की नियुक्ति एवं उनके कैरियर में प्रगति के लिये व्यापक नीतियों का अभाव है, जिसके कारण "रिवर्स फनेल इफेक्ट" उत्पन्न हो रहा है, जहाँ कम महिलाएँ वरिष्ठ पदों तक पहुँच पा रही हैं।

निष्कर्ष

न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सार्थक परिवर्तन के लिये, हमें केवल प्राथमिक स्तर के उपायों से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। महिलाओं के सामने आने वाली विशिष्ट चुनौतियों का समाधान करने के लिये नीति-निर्माण में महिला-केंद्रित दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण है। इसमें बेहतर मूल ढाँचा, लिंग आधारित संवेदनशील भर्ती और स्थानांतरण नीतियाँ एवं उचित प्रशिक्षण शामिल हैं। महिलाओं के अनुभवों पर विचार करके ही न्यायपालिका वास्तव में महिलाओं को सशक्त बना सकती है।