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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

अभय एस. ओका

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 15-Mar-2024

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका कौन हैं?

न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका, जिनका जन्म 25 मई, 1960 को हुआ, भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने पहले कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और बॉम्बे उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में पदों पर कार्य करते हुए नागरिक, संवैधानिक और सेवा मामलों में विशेषज्ञता का प्रदर्शन किया। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका कई महत्त्वपूर्ण मामलों और जनहित याचिकाओं में सक्रिय रहते हैं।

कैसा रहा न्यायमूर्ति ए. एन. राय का कॅरियर?

  • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका ने बॉम्बे विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. और एल.एल.एम. की पढ़ाई की।
  • उन्होंने 28 जून, 1983 को एक अधिवक्ता के रूप में नामांकन करके अपने विधिक कॅरियर की शुरुआत की, शुरुआत में अपने पिता श्रीनिवास डब्ल्यू.ओका के मार्गदर्शन में ठाणे ज़िला न्यायालय में अभ्यास किया।
  • उनकी न्यायिक यात्रा ने उन्हें 29 अगस्त, 2003 को बॉम्बे उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया, फिर 12 नवंबर, 2005 से उन्हें वहाँ स्थायी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया।
  • 10 मई, 2019 को कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में और बाद में 31 अगस्त 2021 को भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में शपथ लेना, उनके शानदार कॅरियर में महत्त्वपूर्ण विकास को दर्शाता है।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका के उल्लेखनीय निर्णय क्या हैं?

  • विनोद कुमार बनाम अमृत पाल (2021):
    • इस आपराधिक मामले में अभियुक्तों को भारतीय दण्ड संहिता, 19860 (IPC) की विभिन्न धाराओं के तहत दोषी ठहराया गया था।
    • अपील के बावजूद, उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 304 भाग II के तहत दोषसिद्धि को हत्या से घटाकर हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव वध में बदल दिया।
    • उच्चतम न्यायालय ने साक्ष्यों की जाँच की, जिसमें पीड़ित को पहुँची घातक हानि का ज़िक्र किया गया।
      • अभियुक्त के हत्या के आशय के आभाव के दावे करने के बावजूद, चिकित्सीय साक्ष्य और परिस्थितियों ने अन्यथा संकेत दिया।
    • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका ने निर्णय देते हुए कहा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसी हानि पहुँचाने का कोई आशय नहीं था, जो प्रकृति के सामान्य तरीके से मृत्यु का कारण बनने के लिये पर्याप्त हो। यहाँ तक कि यह ज्ञान भी कि उस कार्य से मृत्यु कारित होने की संभावना है, "तीसरे" को आकर्षित करने के लिये आवश्यक नहीं है।
      • अतः इस मामले में हत्या के लिये दोषसिद्धि को बहाल करने के लिये इस मामले में IPC की धारा 300 का खंड "तीसरा" लागू किया गया था।
  • वसुधा सेठी बनाम किरण भास्कर (2021):
    • यह मामला अपीलकर्त्ता नंबर 1 और प्रतिवादी नंबर 1 जो संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिक हैं, से पैदा हुए एक अवयस्क बच्चे की अभिरक्षा से संबंधित है।
    • प्रतिवादी ने आरोप लगाया कि अपीलकर्त्ता ने यात्रा सहमति समझौते का उल्लंघन किया और बच्चे को भारत में अभिरक्षा में लिया।
    • प्रतिवादी ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय से बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट की मांग की।
    • न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को 15 दिनों के भीतर USA की यात्रा करने की अपनी इच्छा बताने का आदेश दिया। यदि सहमत हो, तो अपीलकर्त्ता अभिरक्षा की कार्यवाही के लिये बच्चे के साथ यात्रा कर सकता है।
    • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका की खंडपीठ ने यह भी कहा कि बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे से निपटने के दौरान एक रिट न्यायालय किसी माता-पिता को भारत छोड़ने और बच्चे के साथ विदेश जाने का निर्देश नहीं दे सकता है। यदि ऐसे आदेश माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध पारित किये जाते हैं, तो यह उनकी निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा।
  • देबानंद तामुली बनाम काकुमोनी काटाकी (2022):
    • अपीलकर्त्ता-पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के तहत क्रूरता और अभित्यजन के आधार पर विवाह-विच्छेद की मांग की।
    • पति ने दावा किया कि पत्नी द्वारा विवाह से इनकार करने और उसके बाद अभित्यजन से मानसिक क्रूरता हुई।
    • उच्चतम न्यायालय ने अभित्यजन का आधार पाया लेकिन क्रूरता के दावे को खारिज़ कर दिया।
    • इसने अभित्यजन के आधार पर विवाह को भंग कर दिया।
  • मणिबेन मगनभाई भारिया बनाम ज़िला विकास अधिकारी दाहोद (2022):
    • यह मामला उपदान संदाय अधिनियम, 1972 के तहत आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ताओं और सहायिकाओं की उपदान की पात्रता से संबंधित था।
    • विवाद तब उत्पन्न हुआ जब गुजरात उच्च न्यायालय ने आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ताओं और सहायिकाओं को उपदान देने के आदेश को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि वे उपदान संदाय अधिनियम, 1972 के तहत कर्मचारी नहीं थे।
    • हालाँकि, उच्चतम न्यायालय ने माना कि आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता और सहायिकाएँ वास्तव में उपदान संदाय अधिनियम, 1972 के तहत आती हैं, तथा अधिकारियों को लाभ में वृद्धि करने और अतिदेय उपदान राशि पर ब्याज का भुगतान करने का निर्देश दिया।
  • नीरज दत्ता बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (2022):
    • उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने निर्णय सुनाया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत अपराधों के लिये रिश्वत की मांग या स्वीकृति का प्रत्यक्ष प्रमाण अनिवार्य नहीं है।
    • पारिस्थितिक साक्ष्य दोषीता स्थापित कर सकते हैं।
    • न्यायालय ने कहा कि "अवैध संतुष्टि की मांग और स्वीकृति का प्रमाण प्रत्यक्ष मौखिक एवं दस्तावेज़ी साक्ष्य के अभाव में पारिस्थितिक साक्ष्य से भी सिद्ध किया जा सकता है"।
  • राज कुमार बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने IPC की धारा 302 और धारा 307 के तहत अभियुक्त की सज़ा की समीक्षा की।
    • वर्ष 1995 की हत्या में कथित संलिप्तता के लिये सत्र न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए अपीलकर्त्ता को आजीवन और कठोर कारावास की सज़ा सुनाई गई थी।
    • न्यायालय ने साक्षियों की गवाही में विसंगतियों को दर्ज किया और मुकदमे के दौरान विशिष्ट आरोपों के साथ अभियुक्तों का सामना करने में विफलता पर प्रकाश डाला।
    • परिणामस्वरूप, न्यायालय ने निष्पक्ष सुनवाई प्रक्रियाओं के महत्त्व पर ज़ोर देते हुए और अवर न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए अपीलकर्त्ता को बरी कर दिया।