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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार
« »21-Jun-2024
परिचय:
न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार का जन्म 06 जनवरी 1960 को केरल के पीरमाडु में श्री के. देवन और श्रीमती सरस्वती के घर हुआ था। उनके पिता चंगनास्सेरी मजिस्ट्रेट कोर्ट में बेंच क्लर्क थे।
कॅरियर:
- न्यायमूर्ति रविकुमार 12 जुलाई 1986 को केरल बार काउंसिल में अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत हुए और उन्होंने मावेलिक्कारा न्यायालय में अपना विधिक अभ्यास प्रारंभ किया तथा सिविल, आपराधिक, सेवा और श्रम मामलों में स्वतंत्र अभ्यास शुरू किया।
- न्यायमूर्ति रविकुमार ने वर्ष 1996 से 2001 तक महाधिवक्ता एम. के. दामोदरन के अधीन लोक अभियोजक के रूप में कार्य किया और फिर वर्ष 2006 में उन्हें वरिष्ठ लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त किया गया।
- न्यायमूर्ति रविकुमार को 5 जनवरी 2009 को केरल उच्च न्यायालय का अतिरिक्त न्यायाधीश और 15 दिसंबर 2010 को स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया था।
- उन्होंने केरल राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में कार्य किया तथा विवादों के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिये लोक न्यायालयों का आयोजन किया।
- उन्होंने केरल न्यायिक अकादमी के अध्यक्ष एवं केरल राज्य मध्यस्थता एवं सुलह केंद्र के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया।
- वह उच्चतम न्यायालय में चार वर्ष तक कार्य करेंगे तथा वर्ष 2025 में सेवानिवृत्त होंगे।
- न्यायमूर्ति रविकुमार अपने मूल न्यायालय, केरल उच्च न्यायालय से सीधे उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत होने वाले पाँचवें न्यायाधीश बन गए।
उल्लेखनीय निर्णय:
निर्णयज विधियाँ:
- गुरमेल सिंह एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022):
- उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि क्या सह अभियुक्त की मृत्यु के कारण अभियुक्तों की संख्या 5 से कम होने पर भी अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 149 सहपठित धारा 302 के अंतर्गत उत्तरदायी होंगे।
- न्यायालय ने कहा कि सह-दोषियों की मृत्यु के कारण अपील लंबित रहने पर, दोषियों की संख्या में कमी का प्रभाव और परिणाम, दोषमुक्ति के कारण अभियुक्तों/दोषियों की संख्या में कमी के प्रभाव तथा परिणाम से भिन्न होगा।
- न्यायालय ने अंततः निष्कर्ष निकाला कि दस में से सात व्यक्तियों की मृत्यु के परिणामस्वरूप भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के अंतर्गत रचनात्मक दायित्व का प्रावधान लागू नहीं होगा।
- सुखबीरी देवी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2022):
- न्यायालय ने कहा कि सीमा मुद्दे को आदेश XIV, नियम 2(2)(b), सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के तहत एक प्रारंभिक मुद्दे के रूप में तैयार और निर्धारित किया जा सकता है, जहाँ इसे स्वीकार किये गए तथ्यों के आधार पर तय किया जा सकता है।
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि यद्यपि परिसीमा, तथ्य और विधि का एक निश्चित प्रश्न है, तथापि यह केवल उन मामलों में विधि का प्रश्न बन जाता है जहाँ परिसीमा का प्रारंभिक बिंदु विशेष रूप से वादपत्र में उल्लिखित किया गया हो।
- ऐसे मामलों में न्यायालय परिसीमा के मुद्दे को प्रारंभिक मुद्दा मान सकता है तथा अन्य मुद्दों के निपटारे को स्थगित कर सकता है।
- अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम भारत संघ (2022):
- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि मुफ्त सुविधाएँ ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकती हैं, जिसमें राज्य सरकार धन की कमी के कारण बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करा पाएगी और राज्य दिवालियापन की ओर बढ़ जाएगा।
- साथ ही, हमें यह भी याद रखना चाहिये कि इस तरह की मुफ्त सुविधाएँ करदाताओं के पैसे का उपयोग करके केवल पार्टी की लोकप्रियता और चुनावी संभावनाओं को बढ़ाने के लिये दी जाती हैं।
- महाराष्ट्र राज्य बनाम मारोती (2022):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 19(1) के प्रावधानों के अनुसार, POCSO अधिनियम के अधीन अपराध किये जाने की सूचना मिलने पर आरोपी का विधिक दायित्व है कि वह विशेष किशोर पुलिस इकाई या स्थानीय पुलिस को ऐसी सूचना प्रदान करे।
- यदि कोई व्यक्ति सूचना देने में विफल रहता है तो वह POCSO अधिनियम की धारा 21 के अधीन उत्तरदायी होगा।
हालिया निर्णय:
- विधि-संघर्षरत बालक(विधिक प्रतिनिधि के रूप में माँ) बनाम कर्नाटक राज्य (2024):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि किशोर न्याय (देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 (JJ एक्ट) की धारा 14(3) के अधीन सोलह वर्ष से कम उम्र के बच्चे की गंभीर अपराध करने की मानसिक एवं शारीरिक क्षमता का पता लगाने के लिये निर्धारित तीन माह की समय-सीमा अनिवार्य नहीं बल्कि निर्देशात्मक है।
- इसके अतिरिक्त, यह देखते हुए कि किशोर न्याय बोर्ड (JJB) के प्रारंभिक मूल्यांकन आदेश के विरुद्ध अपील करने के लिये JJ अधिनियम के अधीन कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है, उच्चतम न्यायालय ने JJB के प्रारंभिक मूल्यांकन आदेश के विरुद्ध अपील करने के लिये 30 दिनों की समय-सीमा निर्धारित करके इस अंतर को कम करना उचित समझा।
- शाजिया अमन खान एवं अन्य बनाम उड़ीसा राज्य एवं अन्य (2024):
- उच्चतम न्यायालय ने पिता के विरोध के बावजूद एक अल्पवयस्क बच्चे की अभिरक्षा उसकी चाची को सौंपते हुए कहा कि बच्चे की अभिरक्षा का निर्णय करते समय व्यक्तिगत विधि या विधान बच्चे के कल्याण को अनदेखा नहीं कर सकता।
- बसवराज बनाम इंदिरा एवं अन्य (2024):
- उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न आया कि क्या वादी वाद में संशोधन की मांग कर सकता है, जिससे वाद की प्रकृति बदली जा सके, अर्थात जिसे विभाजन वाद से घोषणा वाद में परिवर्तित किया जा सके, अर्थात् समझौता डिक्री को शून्य घोषित किया जा सके।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि संशोधन से वाद की प्रकृति में परिवर्तन होता है तो CPC के आदेश 6 नियम 17 के अंतर्गत शिकायत में संशोधन की मांग करने वाले आवेदन को अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।