Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है










होम / महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

जस्टिस दीपांकर दत्ता

    «    »
 08-Jul-2024

परिचय:

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता का जन्म 09 फरवरी 1965 को एक बंगाली परिवार में हुआ था। न्यायमूर्ति दत्ता कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश स्वर्गीय न्यायमूर्ति सलिल कुमार दत्ता के पुत्र और उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति अमिताव रॉय के सगे भाई हैं।

कॅरियर:

  • न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने वर्ष 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के हाज़रा लॉ कॉलेज से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की।
  • 16 नवंबर 1989 को उन्हें अधिवक्ता के रूप में नामांकित किया गया तथा दो वर्ष तक पश्चिम बंगाल राज्य के लिये जूनियर स्टैंडिंग काउंसिल के रूप में काम किया।
  • एक अधिवक्ता के रूप में अपने 16 वर्ष के कार्यकाल के दौरान, न्यायमूर्ति दत्ता कलकत्ता विश्वविद्यालय, डब्ल्यू.बी. स्कूल सेवा आयोग एवं डब्ल्यू.बी. माध्यमिक शिक्षा बोर्ड सहित कई शैक्षणिक प्राधिकरणों एवं संस्थानों के लिये प्रस्तुत हुए।
  • उन्होंने 22 जून 2006 से 27 अप्रैल 2020 तक कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में भी कार्य किया।
  • इसके बाद उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया।
  • उन्हें 12 दिसंबर 2022 को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया।

उल्लेखनीय निर्णय:

महत्त्वपूर्ण निर्णय:

  • यूनिब्रोस बनाम ऑल इंडिया रेडियो (2023)
    • भारत की सार्वजनिक नीति के उल्लंघन के आधार पर मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अंतर्गत पारित किये गए पंचाट को रद्द किया जा सकता है।
    • मध्यस्थ या अधिकरण का कोई भी पंचाट जो बाध्यकारी न्यायिक निर्णय पर पहुँचना चाहता है, हमारी राय में, मौलिक सार्वजनिक नीति के साथ संघर्ष करता है तथा इसलिये, टिक नहीं सकता है।
    • किसी पक्ष को प्राप्त होने वाले लाभ की हानि के दावे में सफल होने के लिये, पक्ष को ठोस साक्ष्य के साथ यह प्रदर्शित करना होगा कि यदि संविदा का निष्पादन शीघ्रता से किया गया होता, तो ठेकेदार अन्यत्र अपने मौजूदा संसाधनों का उपयोग करके अनुपूरक लाभ प्राप्त कर सकता था।
  • अमीना बेगम बनाम तेलंगाना राज्य (2023)
    • वर्तमान मामले में उच्चतम न्यायालय ने ऐसे संवैधानिक न्यायालय के लिये दिशा-निर्देश तैयार किये हैं, जिससे निवारक निरोध के आदेशों की वैधता की जाँच करने के लिये बुलाए जाने पर वह निम्नलिखित की जाँच करने का अधिकारी होगा:
      • यह आदेश निरोधक प्राधिकारी की अपेक्षित संतुष्टि पर आधारित है, यद्यपि वह संतुष्टि व्यक्तिपरक है, क्योंकि तथ्य या विधि के मामले के अस्तित्त्व के विषय में ऐसी संतुष्टि का अभाव, जिस पर शक्ति के प्रयोग की वैधता आधारित है, शक्ति के प्रयोग की संतुष्टि न होने के लिये अनिवार्य शर्त होगी।
      • ऐसी अपेक्षित संतुष्टि प्राप्त करने में, निरोधक प्राधिकारी ने सभी प्रासंगिक परिस्थितियों पर विचार किया है तथा यह विधि की परिधि एवं उद्देश्य से परे किसी भी सामग्री पर आधारित नहीं है।
      • शक्ति का प्रयोग उस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये किया गया है जिसके लिये उसे प्रदान किया गया है, या किसी अनुचित उद्देश्य के लिये प्रयोग किया गया है, जो विधि द्वारा अधिकृत नहीं है तथा इसलिये यह अधिकार-विहीन है।
      • अभिरक्षा में लेने वाले अधिकारी ने स्वतंत्र रूप से या किसी अन्य निकाय के निर्देश पर काम किया है।
      • अभिरक्षा में लेने वाले अधिकारी ने, स्वयं द्वारा बनाए गए नीतिगत नियमों के कारण या किसी अन्य तरीके से जो शासकीय विधि द्वारा अधिकृत नहीं है, प्रत्येक व्यक्तिगत मामले के तथ्यों पर अपना ध्यान लगाने से स्वयं को अक्षम कर लिया है।
      • अभिरक्षा में लेने वाले अधिकारी की संतुष्टि उन सामग्रियों पर निर्भर करती है जो तर्कसंगत रूप से सत्यापन योग्य मूल्य की हैं तथा अभिरक्षा में लेने वाले अधिकारी ने वैधानिक आदेश के अनुसार मामलों पर उचित ध्यान दिया है।
      • संतुष्टि किसी व्यक्ति के पिछले आचरण एवं उसे अभिरक्षा में लेने की अनिवार्य आवश्यकता के बीच एक जीवंत एवं निकट संबंध के अस्तित्त्व को ध्यान में रखते हुए प्राप्त की गई है या ऐसी सामग्री पर आधारित है जो पुरानी है।
      • अपेक्षित संतुष्टि तक पहुंचने के लिये आधार ऐसा है/हैं जिसे कोई व्यक्ति, कुछ हद तक तर्कसंगतता एवं विवेक के साथ, तथ्य से जुड़ा हुआ तथा जाँच के विषय-वस्तु के लिये प्रासंगिक मानेगा जिसके संबंध में संतुष्टि प्राप्त की जानी है।
      • निवारक निरोध का आदेश जिन आधारों पर आधारित है, वे अस्पष्ट नहीं हैं, बल्कि सटीक, सुसंगत एवं प्रासंगिक हैं, जो पर्याप्त स्पष्टता के साथ, बंदी को निरोध के लिये संतुष्टि की सूचना देते हैं तथा उसे उपयुक्त अभ्यावेदन करने का अवसर प्रदान करते हैं।
  • शिव राज सिंह बनाम भारत संघ (2023)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 के अंतर्गत विलंब के लिये क्षमा प्रदान करने की न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति के विषय में चर्चा की।
    • इस मामले में न्यायालय ने 'बहाना' एवं 'स्पष्टीकरण' के मध्य अंतर निर्धारित किया।
      • हमले के दौरान किसी व्यक्ति द्वारा उत्तरदायित्व एवं परिणामों से मना करने के लिये अक्सर 'बहाना' प्रस्तुत किया जाता है।
      • यह एक तरह की रक्षात्मक कार्यवाही है।
      • किसी तथ्य या घटना को सिर्फ 'बहाना' कहना यह दर्शाता है कि दिया गया स्पष्टीकरण सत्य नहीं है।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि दी गई परिस्थितियों में दिया गया विलंब के लिये क्षमा युक्तियुक्त तथा इसलिये उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को यथावत् रखा।
  • प्रेमचंद बनाम महाराष्ट्र राज्य (2023)
    • इस मामले में 2 न्यायाधीशों की पीठ ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के अधीन सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया।
    • न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदु निर्धारित किये:
      • धारा 313, CrPC [उप-धारा 1 का खंड (B)] अभियुक्त को अपनी आरोप्मुक्ति सिद्ध करने के लिये परीक्षण प्रक्रिया में एक मूल्यवान सुरक्षा उपाय है।
      • धारा 313, जिसका उद्देश्य न्यायालय एवं अभियुक्त के मध्य सीधा संवाद सुनिश्चित करना है, न्यायालय पर आमतौर पर मामले पर अभियुक्त से प्रश्न करने का अनिवार्य कर्त्तव्य अध्यारोपित करती है ताकि उसे उसके विरुद्ध साक्ष्यों में दिखाई देने वाली किसी भी परिस्थिति को व्यक्तिगत रूप से समझाने में सक्षम बनाया जा सके;
      • पूछताछ किये जाने पर, अभियुक्त अपनी संलिप्तता को स्वीकार नहीं कर सकता है तथा न्यायालय द्वारा उसके समक्ष जो भी कहा जाता है, उसे स्पष्ट रूप से स्वीकृत कर सकता है या अस्वीकार कर सकता है।
      • अभियुक्त विधिक रूप से मान्यता प्राप्त बचाव को अपनाने के लिये अपने विरुद्ध लगाए गए अपराधजनक परिस्थितियों को स्वीकार या स्वीकार भी कर सकता है;
      • अभियुक्त अभियोजन पक्ष द्वारा परीक्षण किये जाने के भय के बिना बयान दे सकता है या अभियोजन पक्ष को उससे परीक्षण करने का कोई अधिकार नहीं है।
      • अभियुक्त द्वारा दिये जाने वाले स्पष्टीकरणों पर अलग से विचार नहीं किया जा सकता है, बल्कि अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों के साथ विचार किया जाना चाहिये तथा इसलिये, केवल धारा 313 के कथनों के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है;
      • धारा 313 के अधीन परीक्षण के दौरान अभियुक्त के बयान, चूँकि शपथ पर नहीं हैं, साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अधीन साक्ष्य नहीं बनते हैं, फिर भी, दिये गए उत्तर सत्य का पता लगाने एवं अभियोजन पक्ष के मामले की सत्यता की जाँच करने के लिये प्रासंगिक हैं;
      • यदि अभियुक्त बचाव करता है तथा घटनाओं या व्याख्या का कोई वैकल्पिक संस्करण प्रस्तुत करता है, तो न्यायालय को उसके बयानों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण एवं विचार करना होगा;
      • किसी भी मामले में, अभियुक्त द्वारा अपराध करने वाली परिस्थितियों के स्पष्टीकरण पर विचार करने में कोई भी विफलता, वाद को प्रभावित कर सकती है और/या दोषसिद्धि को खतरे में डाल सकती है।

हालिया निर्णय:

  • प्रेमचंद बनाम महाराष्ट्र राज्य (2023)
  • अस्मा लतीफ़ बनाम शब्बर अहमद (2024)
    • इस मामले में न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VIII नियम 10 पर विधिक चर्चा की।
    • न्यायालय ने माना कि नियम 10 इस अर्थ में अनिवार्य नहीं है कि न्यायालय के पास निर्णय पारित करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
      • इस संबंध में न्यायालय ने बलराज तनेजा बनाम सुनील मदान (1999) मामले का हवाला दिया।
    • न्यायालय ने "अधिकार क्षेत्र" शब्द के अर्थ की जाँच की और माना कि वास्तव में सार यह है कि न्यायालय के पास न केवल विषय-वस्तु पर अधिकार क्षेत्र होना चाहिये, बल्कि अंतरिम राहत प्रदान करने का अधिकार क्षेत्र भी होना चाहिये।
    • न्यायालय ने कहा कि विवाद पर निर्णय लेने के लिये न्यायालय की क्षमता का निर्धारण किये बिना दिया गया निर्णय विधि की दृष्टि में अमान्य माना जाएगा।
  • माया गोपीनाथन बनाम अनूप एस.बी. (2024)
    • इस मामले में न्यायालय ने दोहराया कि स्त्रीधन पर महिला का विशेष अधिकार है।
    • पति का इस संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है तथा वह संकट के समय इसका उपयोग कर सकता है, लेकिन उसे वापस लौटाना उसका नैतिक दायित्व है।
    • इसलिये, स्त्रीधन पति एवं पत्नी की संयुक्त संपत्ति नहीं है तथा पति का इस संपत्ति पर कोई अधिकार या प्रभुत्व नहीं है।
  • कर्नाटक राज्य बनाम एम.एन. बसवराज एवं अन्य (2024)
    • इस मामले में न्यायालय, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498 A एवं IPC की धारा 304 B से संबंधित मामले पर विचार कर रहा था।
    • न्यायालय ने कहा कि यदि पक्षपात के कारण परिवार के सदस्यों के साक्ष्य को अस्वीकृत कर दिया जाता है, तो गवाही देने के लिये कोई विश्वसनीय साक्षी नहीं बचेगा।
  • जय श्री बनाम राजस्थान राज्य (2024)
    • उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में कहा कि मात्र संविदा का उल्लंघन भारतीय दण्ड संहिता के अधीन छल या विश्वास के उल्लंघन का अपराध नहीं माना जाता है, जब तक कि मिथ्याकरण या बेईमानी का आशय प्रदर्शित न किया गया हो।