न्यायमूर्ति पी.बी. वराले
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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

न्यायमूर्ति पी.बी. वराले

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 26-Jul-2024

परिचय:

न्यायमूर्ति पी.बी. वराले का जन्म 23 जून 1962 को निपानी में हुआ था। उन्होंने डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय से कला एवं विधि में डिग्री प्राप्त की।

कॅरियर:

  • न्यायमूर्ति वराले ने 12 अगस्त 1985 को अधिवक्ता के रूप में नामांकन कराया।
  • वे एस.एन. लोया के चैंबर में शामिल हुए तथा इससे उन्हें विविध मामलों में विशेषज्ञता प्राप्त हुई।
  • न्यायमूर्ति वराले ने वर्ष 1990 से 1992 तक अंबेडकर लॉ कॉलेज, औरंगाबाद में विधि के व्याख्याता के रूप में कार्य किया।
  • उन्होंने औरंगाबाद में उच्च न्यायालय पीठ में सहायक लोक अभियोजक एवं अतिरिक्त लोक अभियोजक के रूप में कार्य किया।
  • 18 जुलाई 2008 को उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय की पीठ में पदोन्नत किया गया।
  • 15 अक्टूबर 2022 को उन्होंने कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली।
  • उनकी नियुक्ति के साथ ही उच्चतम न्यायालय में अब अनुसूचित जाति के तीन न्यायाधीश हैं- न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, सी. टी. रविकुमार एवं पी.बी. वराले। यह उच्चतम न्यायालय में अनुसूचित जाति का अब तक का सबसे बड़ा प्रतिनिधित्व है।

उल्लेखनीय निर्णय:

  • यूनीवर्ल्ड लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम इंदेव लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड (2024)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि अंतःकालीन लाभ हेतु दावा एवं कब्ज़े के लिये अलग-अलग कारण होते हैं।
    • इसलिये यह माना गया कि कब्ज़े के लिये वाद के उपरांत बकाया किराये के लिये वाद संस्थित करना युक्तियुक्त था।
  • पंजाब राज्य बनाम प्रताप सिंह वेरका (2024)
    • उच्चतम न्यायालय ने दोहराया है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन किसी लोक सेवक द्वारा किये गए अपराध का न्यायालयी अभियोजन, स्वीकृति के बिना संज्ञान नहीं ले सकता।
    • न्यायालय ने कहा कि यह शर्त दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के अधीन लोक सेवक को अतिरिक्त अभियुक्त के रूप में बुलाने पर भी लागू होती है।
  • पी. शशिकुमार बनाम राज्य प्रतिनिधि के रूप में इंस्पेक्टर (2024)
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि अभियुक्त साक्षी के लिये अजनबी है, तो अभियुक्त की पहचान परेड (TIP) कराए बिना, न्यायालय में साक्षी द्वारा अभियुक्त की पहचान को दोषसिद्धि तय करने के लिये उत्तम साक्ष्य नहीं माना जा सकता।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि कोई TIP नहीं है, तो दोषसिद्धि का निर्णय केवल न्यायालय में साक्षी द्वारा की गई अभियुक्त की पहचान के आधार पर नहीं किया जा सकता।
    • न्यायालय ने ऐसा इसलिये कहा ताकि साक्षी द्वारा अभियुक्त की पहचान को रोका जा सके, जिसमें अभियुक्त की पहचान सदैव संदेह के घेरे में रहती है, क्योंकि TIP द्वारा निष्पक्ष रूप से इसकी पहचान की जाती है।
  • महाराष्ट्र राज्य बनाम शत्रुघ्न बाबन मेश्राम (2015)
    • बंबई उच्च न्यायालय ने अपनी तरह के पहले निर्णय में, दो वर्ष की बच्ची के साथ उसके चाचा द्वारा बलात्संग एवं हत्या के मामले में दोहरा मृत्युदण्ड एवं दोहरा आजीवन कारावास की सज़ा की पुष्टि की।
    • यह सज़ा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376-A के अधीन दी गई, जिसे निर्भया कांड के बाद आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम, 2014 के द्वारा लाया गया था।
    • इस धारा में बलात्संग करने तथा चोट पहुँचाने के अपराध के लिये मृत्युदण्ड का प्रावधान है, जिससे महिला की मृत्यु हो जाती है या वह लगातार निष्क्रिय अवस्था में चली जाती है।
  • संदीप बाबूराव वैदांडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2021)
    • पी.बी. वराले एवं एस.एम. मोदक, जे.जे. की खंडपीठ ने माना कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामले में, विधि को शृंखला स्थापित करने के लिये किसी विशेष संख्या में परिस्थितियों की आवश्यकता नहीं होती है, यह केवल प्रकृति पर निर्भर करता है।
    • इसके अतिरिक्त, भले ही अंतिम बार एक साथ देखे जाने की परिस्थिति पर विचार किया गया हो, लेकिन न्यायालय ने नहीं सोचा कि अभियुक्त के अपराध को सिद्ध करने के लिये अन्य परिस्थितियाँ पर्याप्त थीं।
      • न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न हुआ है।
  • कर्नाटक पावर ट्रांसमिशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम एस. किरण (2023)
    • कर्नाटक उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश को यथावत् रखा, जिसमें कर्नाटक पावर ट्रांसमिशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड को एक कर्मचारी को बहाल करने का निर्देश दिया गया था, जिसे मानसिक अवसाद से पीड़ित होने के कारण 632 दिनों (लगभग 1 वर्ष 9 महीने) की अनाधिकृत अनुपस्थिति के कारण सेवा से पदच्युत कर दिया गया था।