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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया
« »07-Jun-2024
परिचय:
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया दूसरी पीढ़ी के विधिक व्यवसायी हैं। उन्होंने वर्ष 1981 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा वर्ष 1983 में आधुनिक इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। न्यायमूर्ति धूलिया ने वर्ष 1986 में विधि में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
कॅरियर:
- न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया वर्ष 1986 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बार में शामिल हुए।
- जून 2004 में उन्हें उत्तराखंड उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया गया।
- उत्तराखंड के नए राज्य के निर्माण के बाद, न्यायमूर्ति धूलिया इसके पहले मुख्य स्थायी अधिवक्ता बने तथा बाद में उन्हें राज्य के अतिरिक्त महाधिवक्ता के रूप में नियुक्त किया गया।
- न्यायमूर्ति धूलिया को 01 नवंबर 2008 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया था।
- उन्हें 07 जनवरी 2021 को गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया था।
- वह उत्तराखंड उच्च न्यायालय से पदोन्नत होने वाले दूसरे न्यायाधीश हैं।
- उन्हें 7 मई 2022 को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया था।
महत्त्वपूर्ण मामले:
हालिया निर्णय:
- चंदर भान (d) विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से शेर सिंह बनाम मुख्तियार सिंह एवं अन्य (2024)
- न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया द्वारा लिखित इस निर्णय में संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 52 के अंतर्गत लिस पेंडेंस के सिद्धांत के विषय में उल्लेख किया गया है।
- ध्यान देने योग्य है कि TPA की धारा 1 के अनुसार, TPA के प्रावधान बॉम्बे, दिल्ली एवं पंजाब राज्यों में लागू नहीं हैं (कुछ अपवादों के अधीन)।
- माननीय उच्चतम न्यायालय ने माना कि भले ही TPA के प्रावधान कुछ राज्यों में लागू नहीं हैं, फिर भी TPA की धारा 52 लागू होगी क्योंकि यह न्याय, साम्या एवं अच्छे विवेक के सिद्धांतों पर आधारित है।
- न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया द्वारा लिखित इस निर्णय में संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 52 के अंतर्गत लिस पेंडेंस के सिद्धांत के विषय में उल्लेख किया गया है।
- राज रेड्डी कल्लम बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2024):
- यह निर्णय परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NIA) के अंतर्गत अपराधों के शमन पर आधारित है।
- माननीय उच्चतम न्यायालय ने माना कि चेक के अनादर मामले में न्यायालय शिकायतकर्त्ता को केवल इसलिये शिकायत के शमन के लिये सहमति देने के लिये बाध्य नहीं कर सकती क्योंकि अभियुक्त ने शिकायतकर्त्ता को क्षतिपूर्ति दे दिया है।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि मात्र राशि के पुनर्भुगतान का अर्थ यह नहीं है कि अपीलकर्त्ता NI अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्वों से मुक्त हो गया है।
- मेसर्स ए. के. सरकार एंड कंपनी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2024):
- यह मामला भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 20(1) से संबंधित है।
- इस मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि अनुच्छेद 20(1) न्यायालय को अपराध के समय लागू सज़ा से कम सज़ा देने से नहीं रोकता है।
- अनुच्छेद 20(1) के अंतर्गत प्रतिषेध किसी व्यक्ति को अपराध के समय लागू सज़ा से अधिक सज़ा न देने तक सीमित है।
- मोहम्मद अबाद अली बनाम राजस्व अभियोजन अन्वेषण निदेशालय (2024):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या CrPC की धारा 378 के अधीन दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध आवेदन दाखिल करने में हुए विलंब को परिसीमा अधिनियम, 1963 (LA) की धारा 5 के अंतर्गत क्षमा किया जाएगा।
- इस मामले में न्यायालय ने पाया कि परिसीमा अधिनियम की धारा 29 में यह प्रावधान है कि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 विशेष विधियों के मामले में भी लागू होगी, इस सीमा तक कि वह विशेष विधि द्वारा अपवर्जित न हो।
- इस मामले में न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 378 के अधीन कोई बहिष्करण का प्रावधान नहीं है तथा इसलिये LA की धारा 5 के अंतर्गत आवेदन पर विचार किया जा सकता है और विहत काल (विलंब) के लिये क्षमा किया जा सकता है।
- चंदन बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन) (2024):
- इस मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिये एक परिस्थिति के रूप में ‘विद्वेष’ के विषय में चर्चा की।
- न्यायालय ने माना कि जहाँ प्रत्यक्षदर्शी साक्षी से विश्वास उत्पन्न होता है, वहाँ मात्र विद्वेष की अनुपस्थिति किसी विश्वसनीय प्रत्यक्षदर्शी की गवाही पर प्रभाव नहीं डालेगी।
- राजू कृष्ण शेडबालकर बनाम कर्नाटक राज्य (2024):
- इस मामले में प्राथमिकी मुख्य रूप से आपराधिक न्यास भंग एवं छल से संबंधित है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने माना कि छल के अंतर्गत अपराध के शमन के लिये छल करने का आशय प्रारंभ से ही व्याप्त होना चाहिये।
महत्त्वपूर्ण निर्णय/मामले:
- राकेश रमन बनाम कविता (2023):
- इस मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया के माध्यम से माना कि जो विवाह पूर्णरूपेण समाप्त हो चुका है, वह दोनों पक्षों की ओर से की गई क्रूरता को दर्शाता है।
- इसलिये, जहाँ सभी सार्थक बंधन पूरी तरह से टूट गए हों, पृथक्करण जारी रहे और सहवास का अभाव हो, वहाँ विवाह संस्थित होना क्रूरता के समतुल्य होगा तथा हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13(1)(ia) के अंतर्गत विवाह-विच्छेद का आधार होगा
- ऐशात शिफा बनाम कर्नाटक राज्य (2023)
- यह मामला हिजाब प्रतिबंध के मुद्दे से संबंधित था। यह माननीय उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ का निर्णय था तथा एक विभाजित निर्णय दिया गया था।
- न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने इस मामले में कहा कि हिजाब पहनने पर प्रतिबंध हमारे बंधुत्व एवं मानवीय गरिमा के संवैधानिक मूल्य के भी विरुद्ध है।
- यह माना गया कि "हमारी संवैधानिक योजना के अंतर्गत, हिजाब पहनना केवल पसंद का मामला होना चाहिये। यह आवश्यक धार्मिक अनुपालन का मामला हो भी सकता है तथा नहीं भी, लेकिन यह फिर भी विवेक, विश्वास एवं अभिव्यक्ति का मामला है। अगर वह हिजाब पहनना चाहती है, यहाँ तक कि अपनी कक्षा के अंदर भी, तो उसे रोका नहीं जा सकता, अगर यह उसकी पसंद के मामले में पहना जाता है, क्योंकि यह एकमात्र तरीका हो सकता है जिससे उसका रूढ़िवादी परिवार उसे स्कूल जाने की अनुमति देगा तथा उन मामलों में, उसका हिजाब उसकी शिक्षा का टिकट है"।
- वीणा वादिनी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023):
- इस मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने माना कि "यद्यपि निवासियों के पक्ष में आरक्षण स्वीकार्य है, फिर भी कुल सीटों के 75% तक आरक्षण इसे थोक आरक्षण बनाता है, जिसे प्रदीप जैन मामले में असंवैधानिक एवं भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना गया है"।
- इमामुद्दीन बनाम राजस्थान राज्य (2022):
- न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की माननीय उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ ने आरोपी को ज़मानत दे दी, जो भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धाराओं 366, 376, 384, 323, 328, 120-B और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो अधिनियम) की धाराओं 3 एवं 4 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये अभिरक्षा में था।
- न्यायालय ने तीन कारकों पर विचार किया:
- लिविंग रिलेशन एग्रीमेंट,
- पुलिस सुरक्षा की मांग करने वाली पक्षकारों द्वारा दायर संयुक्त याचिका, विशेष रूप से अंतर-धार्मिक जोड़े के रूप में,
- याचिकाकर्त्ता 9 महीने से अभिरक्षा में है।
- आसिफ इकबाल बनाम असम राज्य (2021):
- मुख्य न्यायाधीश सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति मनश रंजन पाठक की गुवाहाटी उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कोविड-19 के दौरान चिकित्सकों के विरुद्ध बढ़ती हिंसा की घटनाओं पर रोक लगाने के लिये अस्पतालों के CCTV कैमरों को निकटतम पुलिस स्टेशन से संबद्ध करने का निर्देश दिया।
- दिव्य फार्मेसी बनाम भारत संघ (2018):
- उत्तराखंड उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की एकल पीठ ने कहा कि याचिकाकर्त्ता (दिव्य फार्मेसी) स्थानीय एवं स्वदेशी समुदायों के साथ लाभ को साझा करने के SBB के निर्देश का पालन करने के लिये बाध्य है।
- झारखंड राज्य बनाम शिव शंकर शर्मा (2022):
- भारत के मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित, न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट एवं न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की माननीय उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि याचिकाकर्त्ता को आचरण की शुद्धता के साथ न्यायालय में आना चाहिये तथा यदि ऐसा नहीं होता है तो याचिका को पहले ही खारिज कर दिया जाएगा।