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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां

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 17-Jun-2024

न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां कौन हैं?

न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां का जन्म 02 अगस्त 1964 को गुवाहाटी में सुचेन्द्र नाथ भुइयां के घर हुआ था, जो एक अत्यंत सम्मानित वरिष्ठ अधिवक्ता और असम के पूर्व महाधिवक्ता थे।

न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की करियर यात्रा

  • न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां 20 मार्च 1991 को असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिज़ोरम और अरुणाचल प्रदेश की बार काउंसिल में नामांकित हुए।
  • इन्होंने गुवाहाटी में गौहाटी उच्च न्यायालय की प्रधान पीठ में विधिक व्यवसाय किया तथा अगरतला, शिलांग, कोहिमा और ईटानगर में इसकी पीठों में भी कार्य किया।
  • इनकी उल्लेखनीय विधिक कुशलता ने इन्हें कई प्रमुख पदों पर आसीन होने के लिये प्रेरित किया, जैसे - आयकर विभाग के स्थायी अधिवक्ता और बाद में आयकर विभाग के वरिष्ठ स्थायी अधिवक्ता, अप्रैल 2002 से अक्तूबर 2006 तक गौहाटी उच्च न्यायालय की मुख्य पीठ में मेघालय के अतिरिक्त सरकारी अधिवक्ता, दिसंबर 2005 से अप्रैल 2009 तक अरुणाचल प्रदेश सरकार के वन विभाग के विशेष अधिवक्ता और गौहाटी उच्च न्यायालय के स्थायी अधिवक्ता।
  • 21 जुलाई 2011 को इन्हें असम का अतिरिक्त महाधिवक्ता नियुक्त किया गया।
  • इन्हें 17 अक्तूबर 2011 को गौहाटी उच्च न्यायालय का अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
  • न्यायमूर्ति भुइयां को बॉम्बे उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया और इन्होंने 03-10-2019 को न्यायाधीश के रूप में शपथ ली।
  • इन्हें तेलंगाना राज्य के उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया और इन्होंने 22 अक्तूबर 2021 को न्यायाधीश के रूप में पदभार ग्रहण किया।
  • न्यायमूर्ति भुइयां को तेलंगाना राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
  • 05 जुलाई 2023 को उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम ने भारत के उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की नियुक्ति की अनुशंसा की थी और 14 जुलाई 2023 को न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां ने भारत के उच्चतम न्यायालय के नए न्यायाधीश के रूप में शपथ ली।

उल्लेखनीय मामले

हालिया निर्णय

  • राजेंद्र पुत्र रामदास कोहले बनाम महाराष्ट्र राज्य (2024)
    • न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां द्वारा दिये गए इस निर्णय में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 32(1) के अधीन मृत्युकालिक कथन से संबंधित सिद्धांतों के विषय में बात की गई।
    • माननीय उच्चतम न्यायालय ने मृत्युकालिक कथन पर विगत निर्णयों को दोहराया और मृत्युकालिक कथन को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत निर्धारित किये:
      • यह विधि का पूर्ण नियम नहीं माना जा सकता कि मृत्युकालिक कथन दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता जब तक कि उसकी पुष्टि न हो जाए;
      • प्रत्येक मामले का निर्धारण उसके अपने तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिये, तथा उन परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिये जिनमें मृत्युकालिक कथन दिया गया था;
      • यह सामान्य प्रस्ताव के रूप में नहीं रखा जा सकता है कि मृत्युकालिक कथन अन्य साक्ष्यों की तुलना में कमज़ोर प्रकार का साक्ष्य है;
      • मृत्युकालिक कथन भी अन्य साक्ष्य के समान ही माना जाता है। इसका मूल्यांकन आस-पास की परिस्थितियों के प्रकाश में तथा साक्ष्य के मूल्यांकन के सिद्धांतों के संदर्भ में किया जाना चाहिये;
      • एक सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा उचित तरीके से दर्ज़ किया गया मृत्युकालिक कथन, उस मृत्युकालिक कथन से कहीं अधिक उच्च स्तर का होता है जो मौखिक साक्ष्य पर निर्भर होता है, जो मानव स्मृति और मानव चरित्र की सभी दुर्बलताओं से ग्रस्त हो सकता है;
      • मृत्युकालिक कथन की विश्वसनीयता की जाँच करने के लिये न्यायालय को विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखना होता है, जिसमें संबंधित व्यक्ति भी शामिल है, जिसने ऐसा कथन दिया है कि यह कथन शीघ्रातिशीघ्र दिया गया है तथा यह किसी पक्ष द्वारा उस व्यक्ति को बहकाने का परिणाम नहीं है।
  • एकेन गॉडविन एवं अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य (2024)
    • इस निर्णय में न्यायालय ने माना कि साक्षियों की प्रतिपरीक्षा दर्ज़ किये बिना केवल मुख्य परीक्षा दर्ज़ करना विधिविरुद्ध है, इस संबंध में न्यायालय ने IEA की धारा 138 का उदाहरण दिया।
    • इस संबंध में, न्यायालय ने कहा कि यद्यपि वारंट मामलों में साक्षियों की प्रतिपरीक्षा स्थगित की जा सकती है, परंतु यह भी विधि की सामान्य प्रथा का अपवाद है।
  • एम. राधेश्यामलाल बनाम वी. संध्या एवं अन्य (2024)
    • यह मामला प्रतिकूल कब्ज़े से संबंधित है।
    • इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिकूल कब्ज़े से संबंधित सिद्धांत निर्धारित किये। निर्धारित सिद्धांत इस प्रकार हैं:
      • वादी को यह दलील देनी होगी और सिद्ध करना होगा कि वह वास्तविक स्वामी के विपरीत कब्ज़े का दावा कर रहा था;
      • वादी को यह दलील देनी होगी और स्थापित करना होगा कि उसके दीर्घकालीन और निरंतर कब्ज़े का तथ्य वास्तविक स्वामी को पता था;
      • वादी को यह भी दलील देनी होगी और स्थापित करना होगा कि कब उस संपत्ति पर कब्ज़ा हुआ;
      • वादी को यह सिद्ध करना होगा कि उसका कब्ज़ा युक्तियुक्त और अप्रभावित था।
  • राकेश रंजन श्रीवास्तव बनाम झारखंड राज्य (2024)
    • इस मामले में न्यायालय ने इस बात पर चर्चा की कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NIA) की धारा 143A (1) के अधीन अंतरिम क्षतिपूर्ति से संबंधित प्रावधान अनिवार्य है या निर्देशात्मक।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि NIA की धारा 143 A में प्रयुक्त शब्द “हो सकता है/may ” को “करेगा/Shall” के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिये और इसलिये न्यायालय ने माना कि यह प्रावधान विवेकाधीन है न कि अनिवार्य।
    • न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान दोष का निर्णय होने से पहले ही अंतरिम क्षतिपूर्ति के भुगतान का कठोर आदेश पारित करने का प्रावधान करता है।
    • यह देखा गया कि यदि शब्द “हो सकता है/may ” को “करेगा/Shall” पढ़ा जाए तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।
  • शदाक्षरी बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य (2024)
    • न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197 पर विचार किया।
    • यहाँ चर्चा का विषय यह था कि क्या आरोपी लोक सेवक के विरुद्ध वाद चलाने के लिये अनुमति की आवश्यकता है, जिस पर ग्राम लेखाकार के रूप में अपने आधिकारिक पद का दुरुपयोग कर फर्ज़ी दस्तावेज़ तैयार करने सहित अन्य आरोप हैं?
    • न्यायालय ने कहा कि "दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 किसी लोक सेवक द्वारा सेवा में रहते हुए किये गए प्रत्येक कार्य या चूक को संरक्षण प्रदान नहीं करती है। इस धारा के संचालन का विस्तार केवल उन कार्यों या चूक तक सीमित है जो किसी लोक सेवक द्वारा आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में किये जाते हैं।"
  • केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो बनाम कपिल वाधवान एवं अन्य (2024)
    • यह मामला CrPC की धारा 167 (2) के अधीन दी गई व्यतिक्रम ज़मानत से संबंधित है।
    • यहाँ मुद्दा यह था कि क्या आरोपी इस आधार पर धारा 167 (2) के अधीन व्यतिक्रम ज़मानत का लाभ उठा सकता है कि अन्य आरोपियों के विरुद्ध जाँच लंबित है, भले ही आरोपी के संबंध में CrPC की धारा 173 (2) के अधीन अंतिम रिपोर्ट दायर की गई हो।
    • न्यायालय ने कहा कि व्यतिक्रम ज़मानत तभी दी जाएगी जब आरोपपत्र दाखिल नहीं किया गया हो और जाँच अभी भी लंबित हो, हालाँकि, यदि आरोपपत्र दाखिल हो जाता है तो उक्त अधिकार भी समाप्त हो जाता है।
    • न्यायालय ने अंत में टिप्पणी की कि केवल इस आधार पर व्यतिक्रम ज़मानत नहीं दी जा सकती कि अन्य आरोपी व्यक्तियों के संबंध में जाँच लंबित है।
  • बिलकिस याकूब रसूल बनाम भारत संघ (2024):
    • बिलकिस बानो मामले में उच्चतम न्यायालय ने CrPC की धारा 432 के अधीन परिहार (क्षमा) की विधि बनाई।
    • परिहार (क्षमा) की विधि से संबंधित सिद्धांतों को निम्नानुसार संक्षेपित किया गया है:
      • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 के अंतर्गत क्षमा के लिये आवेदन केवल उस राज्य की सरकार के समक्ष किया जा सकता है जिसके क्षेत्रीय अधिकार में आवेदक को दोषी ठहराया गया था (समुचित सरकार), तथा किसी अन्य सरकार के समक्ष नहीं किया जा सकता जिसके क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में आवेदक को दोषसिद्धि के पश्चात स्थानांतरित किया गया हो या जहाँ अपराध घटित हुआ हो।
      • क्षमा के लिये विचार CrPC की धारा 432 के तहत आवेदन के माध्यम से किया जाना चाहिये, जिसे दोषी द्वारा या उसके प्रतिनिधियों ओर से किया जाना चाहिये। सबसे पहले यह ध्यान रखना चाहिये कि CrPC की धारा 433A का अनुपालन हुआ है या नहीं, क्योंकि आजीवन कारावास का दण्ड काट रहा व्यक्ति तब तक क्षमा की मांग नहीं कर सकता, जब तक कि उसने चौदह वर्ष की सजा पूरी न कर ली हो।
      • आवेदक को दोषी ठहराने वाले न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश से मांगी गई राय के संबंध में धारा 432(2) के अधीन दिशानिर्देशों का अनिवार्य रूप से पालन किया जाना चाहिये। ऐसा करते समय उक्त धारा की आवश्यकताओं का पालन करना आवश्यक है, जिन्हें न्यायालय ने प्रकट किया है, अर्थात्,
        • राय में यह अवश्य बताया जाना चाहिये कि क्या क्षमा के लिये आवेदन स्वीकृत किया जाना चाहिये या अस्वीकार किया जाना चाहिये और उक्त दोनों रायों के लिये कारण अवश्य बताए जाने चाहिये;
        • कारणों का मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर प्रभाव होना चाहिये;
        • राय का वाद के रिकार्ड या उसके विद्यमान रिकार्ड से संबंध होना चाहिये;
        • जिस न्यायालय के समक्ष या जिसके द्वारा दोषसिद्धि की गई थी या जिसकी पुष्टि की गई थी, उस न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश को, क्षमा देने या न देने संबंधी राय के कथन के साथ, परीक्षण के अभिलेख की या उसके विद्यमान अभिलेख की प्रमाणित प्रतिलिपि भी भेजनी होगी।
      • अतः लागू होने वाली क्षमा की नीति, राज्य की नीति होगी, जो समुचित सरकार है तथा जिसके पास उस आवेदन पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र है। दोषसिद्धि के समय क्षमा की नीति प्रयोग की जा सकती है और केवल तभी प्रयोग की जा सकती है जब किसी कारण से उक्त नीति लागू नहीं की जा सकती तो और अधिक उदार नीति का प्रयोग हो सकता है यदि वह प्रचलन में हो।
      • क्षमा के लिये आवेदन पर विचार करते समय विवेकाधिकार का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।
      • जहाँ भी आवश्यक हो, CrPC की धारा 435 के अनुसार परामर्श भी किया जाना चाहिये।
      • जेल सलाहकार समिति, जिसे क्षमा के लिये आवेदन पर विचार करना होता है, में ज़िला न्यायाधीश सदस्य नहीं हो सकता है, क्योंकि ज़िला न्यायाधीश, एक न्यायिक अधिकारी होने के नाते संयोगवश वही न्यायाधीश हो सकता है, जिसे CrPC की धारा 432 की उपधारा (2) के अनुसार स्वतंत्र रूप से राय देनी पड़ सकती है।
      • क्षमा देने या न देने के कारणों को स्पष्ट रूप से आदेश पारित करके दर्शाया जाना चाहिये।
      • जब संविधान के प्रावधानों के तहत क्षमा के लिये आवेदन दिया जाता है, तो न्यायिक समीक्षा के माध्यम से इसकी वैधता पर विचार करने के लिये अन्य परीक्षणों के साथ-साथ निम्नलिखित परीक्षण भी लागू हो सकते हैं।
        • यह आदेश बिना सोचे समझे पारित कर दिया गया है
        • यह आदेश दुर्भावनापूर्ण है
        • यह आदेश बाह्य या पूर्णतः अप्रासंगिक आधार पर पारित किया गया है
        • प्रासंगिक सामग्रियों को विचार से बाहर रखा गया है
        • यह आदेश मनमानेपन ढंग से दिया गया है।

  निर्णयज विधियाँ

  • NHPC लिमिटेड बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2023)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि विधायिका को किसी पूर्ववर्ती विधि में किसी त्रुटि को दूर करने की अनुमति है, जैसा कि संवैधानिक न्यायालय ने न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए इंगित किया है।
    • न्यायालय ने कहा कि दोष को विधायी प्रक्रिया द्वारा भावी और पूर्वव्यापी दोनों तरह से दूर किया जा सकता है तथा पूर्ववर्ती कार्यवाहियों को भी मान्य किया जा सकता है।
    • तथापि, जहाँ कोई विधानमंडल किसी पूर्व विधि के अंतर्गत किये गए कार्यों को, जिसे न्यायालय द्वारा निरस्त या निष्प्रभावी कर दिया गया है, ऐसे विधान में दोषों को दूर किये बिना, किसी बाद की विधि द्वारा वैध बनाने का प्रयास करता है तो बाद का विधान भी अधिकारों के परे होगा।
  • XYZ बनाम गुजरात राज्य (2023)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक 25 वर्षीय महिला को गर्भपात करने की अनुमति दी, जब उसकी अवधि 28 सप्ताह के करीब थी।
    • न्यायालय ने कहा कि "गर्भपात के संदर्भ में प्रदत्त गरिमा के अधिकार में गर्भावस्था को समाप्त करने के निर्णय सहित प्रजनन संबंधी निर्णय लेने के लिये प्रत्येक महिला की क्षमता और अधिकार को मान्यता देना शामिल है।"
  • यशोधन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023)
    • यह मामला CrPC की धारा 319 के अधीन अतिरिक्त अभियोजन से संबंधित था।
    • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 319 CrPC के तहत सम्मन किये गए व्यक्ति को आरोपी के रूप में शामिल करने से पूर्व सुनवाई का अवसर दिये जाने की आवश्यकता नहीं है।
  • वी. वसंत मोगली बनाम तेलंगाना राज्य (2023)
    • तेलंगाना उच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां के माध्यम से माना कि तेलंगाना किन्नर अधिनियम, 1329 फसली (तेलंगाना किन्नर अधिनियम) अधिकारहीन और असंवैधानिक है।
    • न्यायालय ने कहा कि यह न केवल अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 का भी स्पष्ट उल्लंघन है।
  • वैनपिक पोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम उप निदेशक (2022)
    • इस मामले में तेलंगाना उच्च न्यायालय ने धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) की धारा 5 और धारा 8 की व्याख्या की।
    • न्यायालय ने कहा कि दोनों प्रावधानों के आधार पर यह जाँच की जानी चाहिये कि क्या ATPMLA ने अपने न्यायिक कार्यों का परित्याग करके कोई गलती की है, यद्यपि कुर्की को अवैध पाए जाने के बाद भी कुर्क की गई संपत्तियों को मुक्त कराने के लिये अपीलकर्त्ता को विशेष न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया।