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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन

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 08-Aug-2024

न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन कौन हैं?

न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन का जन्म 26 मई 1966 को हुआ था। उनके पिता कोयंबटूर में लोक अभियोजक थे। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पोलाची अरोकिया मठ मैट्रिकुलेशन स्कूल से की।

न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन का कॅरियर कैसा रहा?

  • न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन ने कोयंबटूर लॉ कॉलेज, भरथियार से पाँच वर्ष की एकीकृत स्नातक विधि की पढ़ाई पूरी की।
  • उन्होंने वर्ष 1988 में तमिलनाडु बार काउंसिल में पंजीकरण प्राप्त किया।
  • उन्होंने अधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल एवं सी.एस. वैद्यनाथन के अधीन कनिष्क (जूनियर) के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया।
  • वर्ष 2013 में उन्हें भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के रूप में नियुक्त किया गया।
  • एक अधिवक्ता के रूप में कार्य करते हुए उन्हें कई मामलों में एमिकस क्यूरी के रूप में न्यायालय की सहायता करने के लिये नियुक्त किया गया था।
  • वह उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सीधे पदोन्नत होने वाले 10वें अधिवक्ता हैं।

न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन के उल्लेखनीय निर्णय क्या हैं?

  • रामजी लाल जाट बनाम राजस्थान राज्य (2024)
    • इस मामले में राजस्थान पुलिस में पुलिस कांस्टेबल की उम्मीदवारी राजस्थान पुलिस अधीनस्थ सेवा नियम, 1989 के नियम 24(4) के अनुसार इस आधार पर खारिज कर दी गई थी कि 1 जून 2002 के बाद उसके दो से अधिक बच्चे थे।
    • न्यायालय ने जावेद बनाम हरियाणा राज्य (2003) के निर्णयों का उदाहरण दिया, जिसमें न्यायालय ने माना था कि दो से अधिक बच्चे होने पर अयोग्य ठहराना गैर-भेदभावपूर्ण है तथा संविधान के अंतर्गत आता है, क्योंकि इसका उद्देश्य परिवार नियोजन को बढ़ावा देना है।
    • इसलिये न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया।
  • नईम अहमद बनाम राज्य (NCT दिल्ली) (2023)
    • इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध अपील दायर की गई थी, जहाँ उच्च न्यायालय ने स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम (NDPS) के अंतर्गत अपीलकर्त्ता को ज़मानत देने से मना कर दिया था।
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को इस आधार पर ज़मानत दी कि अपीलकर्त्ता ने अभिरक्षा में काफी समय बिताया है।
  • प्रभु बनाम राज्य (2024)
    • इस मामले में उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 417, धारा 306 के साथ तमिलनाडु महिला उत्पीड़न निषेध अधिनियम, 2002 (TNPHW) की धारा 4 के अधीन अपीलकर्त्ता के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से मना कर दिया था।
    • यह पता लगाने के लिये कि क्या IPC की धारा 306 के अधीन आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित किया गया है, न्यायालय को सबसे पहले यह पता लगाना होगा कि क्या IPC की धारा 107 के अधीन दुष्प्रेरित किया गया था।
    • न्यायालय ने माना कि जब झगड़ते लोगों के बीच क्षणिक आवेश में ये शब्द आकस्मिक रूप से कहे गए हों तो इसे दुष्प्रेरण नहीं माना जाएगा।
    • ‘दुष्प्रेरण’ के लिये यह सिद्ध करना होगा कि आरोपी ने अपने कृत्यों से लगातार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं कि आरोपी के पास आत्महत्या करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचा।
    • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी माना कि इस मामले में IPC की धारा 417 के अधीन धोखाधड़ी का कोई मामला नहीं बनता।
  • आदित्य खेतान एवं अन्य बनाम IL एवं FS फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड (2023)
    • वर्तमान मामले में उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए आवेदन को अनुमति देने से मना कर दिया कि लिखित बयान दाखिल करने के लिये 30 दिनों की अवधि 08.03.2020 को समाप्त हो गई है तथा इसलिये पक्षकार को लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
    • पक्षकारों द्वारा यह तर्क दिया गया कि परिसीमा विस्तार के लिये संज्ञान (2020) के संबंध में पारित आदेश का लाभ इस मामले में नहीं दिया जाएगा क्योंकि यह केवल 15.03.2020 से प्रभावी था तथा अपीलकर्त्ताओं के लिये परिसीमा अवधि 08.03.2020 को समाप्त हो गई थी।
    • उच्चतम न्यायालय ने यहाँ 08.03.2021 को पारित आदेश का हवाला दिया, जिसमें न्यायालय ने पिछले आदेशों द्वारा प्रदान की गई सुरक्षा का विस्तार किया था, जिसमें न्यायालय द्वारा विलंब के लिये क्षमा करने की वाह्य सीमाओं की गणना करने की अवधि को भी शामिल नहीं किया गया था।
    • इसलिये, इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने विलंब को क्षमा कर दिया।
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने विलंब को क्षमा करने की अनुमति दी।
  • SBI बनाम ए.जी.डी. रेड्डी (2023)
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में साक्ष्य प्रस्तुत करने के भार का प्रश्न इस तथ्य पर निर्भर करेगा;
      • आरोप की प्रकृति तथा
      • प्रतिवादी द्वारा दिये गए स्पष्टीकरण की प्रकृति
    • यह माना गया कि स्पष्टीकरण के आधार पर साक्ष्य का भार प्रतिवादी पर डाला जा सकता है।
    • न्यायालय ने यह भी माना कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में न्यायिक समीक्षा की सीमित संभावना है।