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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा
« »27-Aug-2024
न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा कौन हैं?
न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा का जन्म 2 जून, 1965 को हुआ था। उन्होंने 1988 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा का कॅरियर कैसा रहा?
- न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा वर्ष 1988 से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सिविल, राजस्व, आपराधिक एवं संवैधानिक विधि से संबंधित मामलों में विधिक व्यवसाय कर रहे हैं।
- बाद में उन्हें 21 नवंबर, 2011 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया।
- 6 अगस्त, 2013 को उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
- अंततः 6 फरवरी, 2023 को उन्हें उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया।
- वह 1 जून, 2030 को सेवानिवृत्त होंगे।
न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा द्वारा उल्लेखनीय निर्णय क्या हैं?
- सीता सोरेन बनाम भारत संघ (2024)
- यह सात न्यायाधीशों की पीठ का ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें न्यायालय ने रिश्वतखोरी के आरोपों का सामना कर रहे विधिनिर्माताओं के लिये विधायी प्रतिरक्षा के मुद्दे पर विचार किया।
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पी.वी. नरसिंह राव बनाम राज्य (1988) के मामले में निर्धारित बहुत विवादास्पद अनुपात को पलट दिया। निर्धारित विवादास्पद अनुपात था:
- संसद सदस्य (MP) और राज्य विधानमंडल सदस्य (MLA) भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 105 एवं अनुच्छेद 194 के अंतर्गत संसदीय विशेषाधिकारों के आधार पर संसद या राज्य विधान सभा में वे क्या कहते हैं, इस विषय में सभी बाधाओं से मुक्त हैं।
- साथ ही, यह माना गया कि जो सांसद एवं विधायक रिश्वत लेते हैं तथा अपना वोट नहीं डालते हैं, उनके विरुद्ध अभियोजन चलाया जा सकता है, जबकि जो रिश्वत लेते हैं और वोट देते हैं, उन्हें उन्मुक्ति प्रदान की जाती है।
- न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदु निर्धारित किये:
- यूनाइटेड किंगडम के विपरीत, भारत में ‘प्राचीन एवं निस्संदेह’ विशेषाधिकार नहीं हैं, जो संसद और राजा के बीच संघर्ष के बाद निहित थे।
- विशेषाधिकार का दावा संविधान के मापदंडों के अनुरूप है या नहीं, इसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
- उन्मुक्ति के किसी भी दावे को दोहरी कसौटी पर खरा उतरना होगा:
- इसे सदन के सामूहिक कार्यप्रणाली से संबद्ध किया जाना चाहिये।
- यह एक विधायक के आवश्यक कर्त्तव्यों के निर्वहन के लिये आवश्यक है।
- विशेषाधिकारों का उद्देश्य ऐसा वातावरण बनाए रखना है जिसमें बहस एवं चर्चा हो सके।
- रिश्वतखोरी की घटना होने पर ऐसा वातावरण नष्ट हो जाता है। संसदीय विशेषाधिकारों के आधार पर रिश्वतखोरी से बचा नहीं जा सकता।
- माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम 1996 तथा भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 (2023) के अंतर्गत मध्यस्थता करारों के मध्य परस्पर संबंध
- इस मामले में 7 न्यायाधीशों की पीठ ने बिना मुहर लगे मध्यस्थता करारों की प्रवर्तनीयता पर विधान बनाया।
- मुद्दा यह था कि यदि अंतर्निहित संविदा पर मुहर नहीं लगी है तो क्या मध्यस्थता करार अप्रवर्तनीय एवं अमान्य होगा।
- न्यायालय ने माना कि स्टाम्प अधिनियम की धारा 35 स्पष्ट है तथा यह स्टाम्प रहित लिखत को अमान्य बनाती है और उसे शून्य नहीं बनाती।
- स्टाम्प शुल्क का भुगतान न करना एक सुधार योग्य दोष माना जाता है।
- न्यायालय ने निम्नलिखित अभिनिर्नित किया:
- जिन करारों पर मुहर नहीं लगी है उन्हें स्टाम्प अधिनियम की धारा 35 के अंतर्गत साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसे करारों को शून्य या आरंभ से ही शून्य या लागू न किये जाने योग्य नहीं माना जाता।
- स्टाम्प न होना या अपर्याप्त रूप से स्टाम्प लगाना एक ऐसा दोष है जिसे ठीक किया जा सकता है।
- स्टाम्पिंग के विषय में आपत्ति मध्यस्थता अधिनियम की धारा 8 या 11 के अंतर्गत निर्धारण के लिये नहीं आती है। संबंधित न्यायालय को यह जाँच करनी चाहिये कि क्या मध्यस्थता करार प्रथम दृष्टया मौजूद है।
- करार की स्टाम्पिंग के संबंध में कोई भी आपत्ति मध्यस्थ अधिकरण की परिधि में आती है।
- एन.एन. ग्लोबल मर्केंटाइल (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम इंडो यूनिक फ्लेम लिमिटेड (2021) एवं एसएमएस टी. एस्टेट्स (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम चांदमारी टी कंपनी (प्राइवेट) लिमिटेड, (2011) के निर्णयों को अपास्त कर दिया गया। इसके अतिरिक्त, गरवारे वॉल रोप्स लिमिटेड बनाम कोस्टल मरीन कंस्ट्रक्शन एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड, (2019) के पैराग्राफ 22 एवं 29 को उस परिसीमा तक खारिज कर दिया गया।
- कॉक्स एंड किंग्स लिमिटेड बनाम एस.ए.पी. इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2023)
- उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ को माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) के अंतर्गत कार्यवाही में 'कंपनी समूह सिद्धांत' की प्रयोज्यता एवं सांविधिक आधार निर्धारित करने का दायित्व सौंपा गया था।
- इसके आवेदन में भिन्नताओं पर प्रकाश डालते हुए, न्यायालय ने इसके सांविधिक स्रोत पर प्रश्न किया।
- मुख्य प्रश्न A&C अधिनियम की धारा 8 एवं 45 की व्याख्या और सिद्धांत की वैधता के समीप सृजित हुए थे।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि सिद्धांत पक्षकारों के आशयों का निर्वचन करने में सहायता करता है, लेकिन निश्चितता के लिये इसे धारा 7(4)(b) के अंतर्गत शामिल किया जाना चाहिये।
- यह निष्कर्ष निकाला गया कि "के माध्यम से या के अंतर्गत दावा करना" वाक्यांश, पक्षकार की स्थिति स्पष्ट नहीं करती हैम तथा क्लोरो कंट्रोल्स इंडिया (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम सेवर्न ट्रेंट वाटर प्यूरिफिकेशन इंक (2013) त्रुटिपूर्ण था।
- सिद्धांत का अनुप्रयोग पक्षों की पारस्परिक मंशा तथा सांविधिक प्रावधानों के अनुरूप होना चाहिये, जिससे व्यवस्थित विधिक विकास सुनिश्चित हो सके।
- एम.के. रंजीत सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ (2024)
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय की 3 न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।
- यहाँ मुद्दा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के विषय से संबंधित था।
- न्यायालय ने माना कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता एवं विधियों का समान संरक्षण) तथा 21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध अधिकार के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।