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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

न्यायमूर्ति पं कज मित्तल

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 17-Sep-2024

परिचय:

न्यायमूर्ति पंकज मिथल का जन्म 17 जून 1961 को मेरठ में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा बाद में वर्ष 1985 में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ से विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

कॅरियर:

  • न्यायमूर्ति पंकज मिथल ने वर्ष 1985 में उत्तर प्रदेश बार काउंसिल में सदस्यता लिया।
  • उन्होंने किराया नियंत्रण, भूमि अधिग्रहण, शिक्षा एवं संवैधानिक मामलों सहित दीवानी मामलों से जुड़े मामलों का निपटान किया।
  • उन्होंने 3 जनवरी 2021 तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य किया।
  • बाद में उन्हें 4 जनवरी 2021 को जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया।
  • बाद में उन्होंने 14 अक्टूबर 2022 को राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली।
  • उन्हें 6 फरवरी 2023 को उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत किया गया तथा वे 16 जून 2026 को सेवानिवृत्त होंगे।

उल्लेखनीय निर्णय:

  • हाई कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024)
    • इस मामले में न्यायालय ने कुछ महत्त्वपूर्ण मानदंड निर्धारित किये जो भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्रासंगिक हैं:
      • अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अधिकारिता पूर्ण न्याय करना है तथा इसका प्रयोग बड़ी संख्या में वादियों द्वारा उनके पक्ष में पारित न्यायिक आदेशों के आधार पर प्राप्त लाभों को नकारने के लिये नहीं किया जा सकता है।
      • अनुच्छेद 142 इस न्यायालय को वादियों के मूल अधिकारों की अनदेखी करने का अधिकार नहीं देता है।
      • न्यायालय इस उपबंध के अंतर्गत निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए सदैव प्रक्रियात्मक पहलुओं को सुव्यवस्थित करने के लिये प्रक्रियात्मक निर्देश जारी कर सकता है, लेकिन यह न्यायालय उन वादियों के मूल अधिकारों को प्रभावित नहीं कर सकता जो उसके समक्ष मामले में पक्षकार नहीं हैं।
      • अनुच्छेद 142 के अंतर्गत इस न्यायालयी शक्ति का प्रयोग प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को पराजित करने के लिये नहीं किया जा सकता है, जो हमारे न्यायशास्त्र का एक अभिन्न अंग हैं।
  • दानी वूलटेक्स कॉर्पोरेशन बनाम शील प्रॉपर्टीज़ (पी) लिमिटेड (2024):
    • उच्चतम न्यायालय (SC) ने माना कि A&C अधिनियम की धारा 32(2)(c) के अंतर्गत निहित शक्ति का प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है, जब किसी कारण से कार्यवाही जारी रखना अनावश्यक या असंभव हो गया हो।
    • जब तक मध्यस्थ अधिकरण रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री के आधार पर अपनी संतुष्टि दर्ज नहीं करता कि कार्यवाही अनावश्यक या असंभव हो गई है, तब तक धारा 32(2)(c) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता। यदि उक्त शक्ति का दोषपूर्ण तरीके से प्रयोग किया जाता है, तो यह A&C अधिनियम को लागू करने के मूल उद्देश्य को विफल कर देगा।
    • दावेदार द्वारा अपने दावे का परित्याग यह कहने का आधार हो सकता है कि मध्यस्थता कार्यवाही अनावश्यक हो गई है। हालाँकि परित्याग को स्थापित किया जाना चाहिये। परित्याग या तो स्पष्ट या निहित हो सकता है। परित्याग का सुगमता से अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये कि दावेदार, अपने दावे का विवरण दाखिल करने के बाद, सुनवाई की तिथि तय करने के लिये मध्यस्थ अधिकरण में नहीं जाता है, यह नहीं कहा जा सकता है कि दावेदार ने अपना दावा छोड़ दिया है।
    • न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये कि दावेदार, अपने दावे का विवरण दाखिल करने के बाद, सुनवाई की तिथि तय करने के लिये मध्यस्थ न्यायाधिकरण में आवेदन नहीं करता है, दावेदार की विफलता, स्वयं में, दावे का परित्याग नहीं मानी जाएगी।
  • घनश्याम बनाम योग्रेंद्र राठी (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने यहाँ सबसे पहले यह टिप्पणी की कि संपत्ति अंतरण अधिनियम (TPA) की धारा 54 में यह प्रावधान है कि संपत्ति के स्वामित्व का अंतरण तब तक नहीं होता जब तक कि धारा 54 के अंतर्गत अपेक्षित दस्तावेज़ भारतीय पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 17 के अंतर्गत निष्पादित एवं पंजीकृत न हो जाए।
    • न्यायालय ने यहाँ सूरज लैंप एंड इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य व अन्य (2009) के निर्णय का उदाहरण दिया, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने पंजीकृत अंतरण विलेख के स्थान पर विक्रय करार, पावर ऑफ अटॉर्नी एवं वसीयत के निष्पादन द्वारा अचल संपत्ति को अंतरित करने की प्रथा की निंदा की थी।
    • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि चूँकि पावर ऑफ अटॉर्नी के अनुसरण में कोई दस्तावेज़ निष्पादित नहीं किया गया था, इसलिये इसका कोई महत्त्व नहीं है। इसी तरह, वसीयत का भी कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि यह निष्पादनकर्त्ता की मृत्यु के बाद लागू होती है।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि बिक्री के लिये एक करार वास्तव में स्वामित्व के अधिकार को अंतरित नहीं कर सकता है, लेकिन TPA की धारा 53A के आधार पर अंतरणकर्त्ता वादी के स्वामित्व को बाधित नहीं कर सकता है क्योंकि उसके पास संपत्ति पर कब्ज़े का अधिकार है।
  • एस.के. गोलम लालचंद बनाम नंदू लाल शॉ उर्फ नंद लाल केशरी उर्फ नंद लाल बेयस एवं अन्य (2024):
    • न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि सह-स्वामी को अपनी भागीदारी निर्धारित किये बिना तथा सीमांकन किये बिना पूरी संपत्ति अंतरित करने का अधिकार नहीं है, ताकि अन्य सह-स्वामी इससे आबद्ध हो सकें।
    • यह भी देखा गया कि बिक्री विलेख संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 44 के अनुसार संपत्ति में सह-स्वामी के हिस्से की सीमा तक वैध दस्तावेज़ हो सकता है।