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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

न्यायमूर्ति संजय करोल

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 12-Aug-2024

न्यायमूर्ति संजय करोल कौन हैं?

न्यायमूर्ति संजय करोल का जन्म 23 अगस्त 1961 को हुआ था। वे हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले के गरली गाँव के निवासी हैं। उन्होंने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की है।

न्यायमूर्ति संजय करोल का कॅरियर कैसा रहा?

  • न्यायमूर्ति करोल ने दिल्ली और अन्य उच्च न्यायालयों में अधिवक्ता के रूप में विधिक व्यवसाय प्रारंभ किया।
  • उन्हें वर्ष 1998 में हिमाचल प्रदेश राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त किया गया।
  • उन्हें वर्ष 1999 में वरिष्ठ अधिवक्ता की उपाधि प्रदान की गई।
  • न्यायमूर्ति करोल को 8 मार्च 2007 को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया था। बाद में उन्होंने कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया।
  • वह 9 नवंबर 2018 को त्रिपुरा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने। बाद में उन्हें पटना उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया और 11 नवंबर 2019 को उन्हें पटना उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
  • उन्हें 6 फरवरी 2023 को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया।

न्यायमूर्ति संजय करोल के उल्लेखनीय निर्णय क्या हैं?

  • राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाएँ बनाम बिहार राज्य (2022)
    • इस मामले में पटना उच्च न्यायालय ने माना कि राज्य का दायित्व है कि वह राजमार्गों पर नागरिकों को मूलभूत सुविधाएँ प्रदान करे, साथ ही स्वच्छता या मूलभूत सुविधाओं के मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करे।
    • पटना उच्च न्यायालय ने कहा कि स्वच्छता का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के व्यापक दायरे में आता है।
    • इस मामले में पीठ ने इस संबंध में आवश्यक निर्देश भी जारी किये।
  • जीन कैम्पेन और अन्य बनाम भारत संघ (2024)
    • इस मामले में आनुवंशिक रूप से संशोधित सरसों को जारी करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा दी गई स्वीकृति को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर उच्चतम न्यायालय ने विभाजित निर्णय दिया था।
    • इस मामले में न्यायमूर्ति संजय करोल ने कहा कि निवारण के सिद्धांत के मद्देनज़र हिमाचल प्रदेश की कृषि फसलों पर प्रतिबंध लगाने का प्रश्न उचित नहीं है और यह पूरी तरह से नीतिगत दायरे में लिया गया निर्णय है।
    • जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) की संरचना नियमों के अनुरूप है, जिसकी संवैधानिकता के लिये दी गई विधिक चुनौती विफल हो गई है तथा नियमों में किसी भी परिवर्तन के अभाव में इसमें कोई दोष नहीं पाया जा सकता है।
    • सशर्त अनुमोदन प्रदान करने का GEAC का निर्णय, निकाय द्वारा विवेक का प्रयोग न करने, या विधि के किसी अन्य सिद्धांत का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि यह निकाय स्वयं एक विशेषज्ञ निकाय है।
  • महाराज सिंह एवं अन्य बनाम करण सिंह (मृत) LR द्वारा एवं अन्य (2024)
    • इस मामले में प्रतिवादी ने वादी के साथ वाद में विवादित संपत्ति के संबंध में विक्रय का करार किया था। इस संपत्ति को पंजीकृत भी किया गया था।
    • हालाँकि बाद में उसी संपत्ति को प्रतिवादी द्वारा कई अन्य पक्षों (बाद के क्रेताओं) को विक्रय कर दिया गया।
    • यह वाद, वादी द्वारा विनिर्दिष्ट निष्पादन के लिये दायर किया गया था।
    • मुद्दा यह था कि क्या बाद के क्रेताओं के साथ किये गए करार को रद्द करने की दलील के बिना विनिर्दिष्ट निष्पादन का आदेश दिया जा सकता है।
    • इस मामले में न्यायालय ने लाला दुर्गा प्रसाद एवं अन्य बनाम लाला दीप चंद एवं अन्य (1953) में प्रतिपादित पूर्वनिर्णय का अनुसरण किया, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि "डिक्री का उचित रूप विक्रेता और वादी के बीच संविदा के विनिर्दिष्ट निष्पादन को निर्देशित करना है तथा बाद में अंतरिती को अंतरण में शामिल होने का निर्देश देना है ताकि उसके पास जो संपत्ति का शीर्षक है वह वादी को अंतरित हो सके।"
    • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने माना कि धारा 19 (1) (b) में निहित प्रावधान यहाँ लागू होंगे जो यह प्रावधान करते हैं कि विनिर्दिष्ट निष्पादन को “संविदा के उपरांत उत्पन्न होने वाले शीर्षक द्वारा उसके अंतर्गत दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध लागू किया जा सकता है, मूल्य के लिये अंतरिती को छोड़कर जिसने अपने धन का भुगतान सद्भावपूर्वक और मूल संविदा की सूचना के बिना किया है”।
    • वर्तमान तथ्यों के अनुसार, चूँकि यह करार संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 3 के स्पष्टीकरण 1 के अनुसार पंजीकृत किया गया था, इसलिये बाद में अंतरिती को उस वाद करार के विषय में जानकारी होनी चाहिये जो विधिवत पंजीकृत था।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जो पक्षकार बाद के क्रेता हैं, उन्हें सद्भावनापूर्वक क्रेता नहीं कहा जा सकता है और इसलिये विनिर्दिष्ट निष्पादन का करार उनके विरुद्ध लागू किया जा सकता है।
  • अलिफिया हुसेनभाई केशरैया बनाम सिद्दीक इस्माइल सिंधी और अन्य। (2024)
    • उच्चतम न्यायालय द्वारा विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या वह व्यक्ति जिसे आर्थिक क्षतिपूर्ति दी गई है, परंतु उसे प्राप्त नहीं हुई है, वह निर्धन व्यक्ति के रूप में बढ़ी हुई क्षतिपूर्ति की मांग करते हुए अपील दायर करने का अधिकारी है।
    • यूनियन बैंक ऑफ इंडिया बनाम खादेर इंटरनेशनल कंस्ट्रक्शन एवं अन्य (2001) के मामले में निर्धन व्यक्ति से संबंधित सिद्धांत निम्नानुसार निर्धारित किये गए थे:
      • यह एक ऐसा प्रावधान है जिसके अंतर्गत किसी निर्धन व्यक्ति को प्रारंभिक स्तर पर न्यायालय शुल्क का भुगतान किये बिना वाद दायर करने की सुविधा दी गई है।
      • यदि वाद पर निर्णय हो जाता है तो राशि की गणना की जाएगी तथा निर्णय के अनुसार जिस व्यक्ति को भुगतान करने का आदेश दिया जाएगा उसके अनुसार ही राज्य द्वारा उस राशि को वसूल किया जाएगा।
      • यदि वाद अस्वीकृत हो जाता है तो न्यायालय शुल्क, वाद की विषय-वस्तु में प्रथम प्रभार के रूप में वसूल किया जाएगा।
    • इस प्रकार, निर्धन व्यक्ति द्वारा दायर वाद के विषय में न्यायालय शुल्क का भुगतान स्थगित कर दिया जाता है और इसका उद्देश्य उन निर्धन वादियों की सहायता करना है जो निर्धनता के कारण वाद दायर करने के लिये अपेक्षित न्यायालय शुल्क का भुगतान करने में असमर्थ हैं।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि भले ही उस व्यक्ति को एक राशि प्रदान की गई हो, परंतु इस से व्यक्ति की निर्धनता समाप्त नहीं हुई है। इसलिये, व्यक्ति को अपील दायर करने की अनुमति दी जाएगी, भले ही उसके पक्ष में क्षतिपूर्ति देने का आदेश हो।
  • बिजय कुमार मनीष कुमार HUF बनाम अश्विन भानुलाल देसाई (2024)
    • यह मामला कोलकाता के डलहौजी क्षेत्र में स्थित संपत्तियों में याचिकाकर्त्ता-मकान मालिक और प्रतिवादी-किरायेदार के बीच चार अलग-अलग किरायेदारी मामलों से संबंधित है।
    • याचिकाकर्त्ता-मकान मालिक ने आरोप लगाया कि किराया न चुकाने के कारण पट्टा ज़ब्त कर लिया गया तथा संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के अंतर्गत बेदखली की कार्यवाही आरंभ कर दी गई।
    • प्रतिवादी इस मामले में अंतः कालीन लाभ की मांग कर रहा था।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हालाँकि अंतः कालीन लाभ सामान्यतः बेदखली के आदेश पारित होने और उस पर रोक लगने के उपरांत प्रदान किया जाता है, परंतु यदि किरायेदार का कब्ज़ा समाप्त होने के उपरांत भी वह उस पर बना रहता है तो उसे अपने किरायेदारी अधिकार समाप्त होने के बाद की अवधि के लिये मकान मालिक को क्षतिपूर्ति देनी होगी।