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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व

न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर

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 16-Dec-2024

न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर कौन हैं?

न्यायमूर्ति सुजाता वसंत मनोहर का जन्म 28 अगस्त 1934 को हुआ था। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के लेडी मार्गरेट हॉल एवं लंदन के लिंकन इन से शिक्षा ग्रहण की।

न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर का कैरियर कैसा रहा?

  • न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर ने 14 फरवरी 1958 को बॉम्बे में एक अधिवक्ता के रूप में नामांकन कराया।
  • वर्ष 1970-71 के दौरान वह बॉम्बे में सिटी सिविल कोर्ट में सहायक सरकारी अधिवक्ता बनीं।
  • बाद में उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया तथा बाद में उन्हें स्थायी न्यायाधीश का पद मिला।
  • उन्होंने बॉम्बे उच्च न्यायालय एवं केरल उच्च न्यायालय दोनों में मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया है।
  • 8 नवंबर 1994 को उन्हें भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
  • वह 27 अगस्त 1999 को उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त हुईं।
  • 2021 में वह आठ उत्कृष्ट महिला न्यायविदों में से एक हैं जिन्हें रूथ बेजर गिन्सबर्ग मेडल ऑफ ऑनर से सम्मानित किया गया।
  • न्यायमूर्ति मनोहर विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (WIPO) के तत्वावधान में बीजिंग में आयोजित पेटेंट परीक्षणों पर एक पाठ्यक्रम में भाग लेने के लिये चुने गए दो उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से एक थीं।

न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर द्वारा दिये गए उल्लेखनीय निर्णय क्या हैं?

  • विशाखा एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997):
    • यह एक ऐतिहासिक मामला है, जिसमें न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर ने कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित किये हैं।
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 एवं अनुच्छेद 21 के अनुसार प्रत्येक व्यापार, पेशा, व्यवसाय करने के लिये सुरक्षित होना चाहिये।
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि महिलाओं को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचने का मौलिक अधिकार है।
    • उच्चतम न्यायालय ने यौन उत्पीड़न की परिभाषा भी स्पष्ट की है।
    • उच्चतम न्यायालय का मुख्य उद्देश्य महिलाओं के लिये कार्यस्थल पर लैंगिक समानता का वातावरण तैयार करना तथा उन्हें सुरक्षित कामकाजी अनुभव प्रदान करना था।
  • आयकर आयुक्त, तमिलनाडु बनाम एस. बालासुब्रमण्यम (1998):
    • मुख्य मुद्दा यह था कि क्या संयुक्त हिंदू परिवार (HUF) को कर निर्धारण वर्ष 1960-61 से वर्ष 1965-66 के लिये दी गई विकास छूट को, मशीनरी की स्थापना के आठ वर्षों के अंदर उसकी बिक्री के कारण आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 155(5) के अंतर्गत वापस लिया जा सकता है।
    • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि:
      • संयुक्त हिंदू परिवार में विभाजन अधिनियम की धारा 2(47) के अंतर्गत "अंतरण" नहीं माना जाता है।
      • विभाजन में संपत्ति का विभाजन सहदायिकों के बीच अधिकारों का समायोजन है, स्वामित्व का अंतरण नहीं।
    • सहदायिकों द्वारा मशीनरी की बाद में की गई बिक्री "करदाता" (अर्थात HUF) द्वारा तीसरे पक्ष को अंतरण की शर्त को पूरा नहीं करती है।
  • रौनक इंटरनेशनल लिमिटेड बनाम IVR कंस्ट्रक्शन लिमिटेड एवं अन्य (1998):
    • इस मामले में न्यायालय एक ऐसे मामले पर विचार कर रहा था जिसमें राज्य द्वारा किसी विशेष निविदाकर्त्ता को संविदा दिये जाने को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी।
    • न्यायालय ने माना कि याचिका पर तभी विचार किया जाएगा जब इसमें दुष्प्रेरण का आरोप हो या यह आरोप हो कि संविदा को संपार्श्विक उद्देश्यों के लिये दर्ज किया गया है।
    • जहाँ निर्णय लेने की प्रक्रिया संरचित की गई है तथा निविदा शर्तों में आवश्यकताएँ निर्धारित की गई हैं, वहाँ न्यायालय यह जाँच करने का अधिकारी है कि क्या इन आवश्यकताओं पर विचार किया गया है।
    • हालाँकि, यदि कोई छूट सद्भावनापूर्ण कारणों से दी जाती है, निविदा की शर्तें ऐसी छूट की अनुमति देती हैं तथा सभी प्रस्तावों पर निष्पक्ष विचार-विमर्श के बाद वैध कारणों से निर्णय लिया जाता है, तो न्यायालय को हस्तक्षेप करने में संकोच करना चाहिये।
    • न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया तथा अंतरिम आदेश पारित करने से मना कर दिया।
  • पटेल चंदूलाल त्रिकमियाल एवं अन्य बनाम रावरी प्रभात हरजी (1995):
    • वर्तमान मामले में किरायेदारी करार में स्पष्ट रूप से किरायेदारों को केवल मवेशियों को बाँधने के लिये पट्टे पर दी गई भूमि का उपयोग करने की आवश्यकता थी तथा आसन्न भूमि पर अतिक्रमण को प्रतिबंधित किया गया था; इस दायित्व को किरायेदारी शर्तों का अभिन्न अंग माना गया था।
    • किरायेदारों ने किराया नोट में निर्धारित शर्तों का उल्लंघन करते हुए आसन्न भूमि पर अतिक्रमण करके किरायेदारी शर्तों का उल्लंघन किया।
    • न्यायालय ने माना कि यह प्रतिबंध केवल एक व्यक्तिगत दायित्व नहीं था, बल्कि किरायेदारी करार के अनुसार पट्टे पर दी गई भूमि के उपभोग एवं उपयोग से सीधे जुड़ी एक शर्त थी।
    • किरायेदारों द्वारा किरायेदारी की शर्तों के उल्लंघन के आधार पर बेदखली का आदेश देने के अपीलीय न्यायालय के निर्णय को यथावत रखा गया, तथा उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए विपरीत निर्णय को खारिज कर दिया गया।