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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित
« »09-Oct-2024
न्यायमूर्ति यू.यू. ललित कौन हैं?
न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित का जन्म 9 नवंबर, 1957 को हुआ था। वे सीधे उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत होने वाले 6वें वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। उन्होंने भारत के उच्चतम न्यायालय के 49वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया।
न्यायमूर्ति यू.यू. ललित का कॅरियर कैसा रहा?
- न्यायमूर्ति यू.यू. ललित वर्ष 1983 में बार में शामिल हुए और बॉम्बे उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में कार्य किया।
- वह वर्ष 1986 से 1992 तक भारत के पूर्व महान्यायवादी सोली सोराबजी के चैंबर में कार्यरत रहे।
- उन्हें वर्ष 2004 में वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया गया था।
- वर्ष 2014 में उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
- 10 अगस्त, 2022 को उन्हें भारत के 49वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया। वह दूसरे व्यक्ति हैं जिन्हें बार से सीधे मुख्य न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत किया गया।
- वह 8 नवंबर, 2022 को मुख्य न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त हुए।
न्यायमूर्ति यू.यू. ललित के उल्लेखनीय निर्णय क्या हैं?
- रविंद्रन बनाम आसूचना अधिकारी, राजस्व निदेशालय (2020):
- न्यायालय ने माना कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 167 (2) के तहत प्रावधान का अनुपालन करना भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के तहत प्रावधान का उल्लंघन होगा।
- CrPC की धारा 167 (2) में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि जाँच एजेंसी को निर्धारित अवधि के भीतर साक्ष्य एकत्र करना होगा, अन्यथा अभियुक्त को हिरासत में नहीं रखा जा सकता।
- धारा 167 (2) की व्याख्या तीन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिये, अर्थात् निष्पक्ष सुनवाई, शीघ्र जाँच और सुनवाई सुनिश्चित करना तथा एक तर्कसंगत प्रक्रिया स्थापित करना जो समाज के निर्धन वर्गों के हितों की रक्षा करे।
- सौरव यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2021):
- इस मामले में न्यायालय ने क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर आरक्षण की प्रयोज्यता के मुद्दे पर विचार किया।
- इस मामले में एक उदाहरण लिया गया जहाँ महिलाओं को क्षैतिज आरक्षण दिया गया।
- न्यायालय ने माना कि अनुसूचित जनजाति के लिये ऊर्ध्वाधर कॉलम में आवंटित पहली महिला उम्मीदवार ने अनारक्षित श्रेणी के उम्मीदवार की तुलना में उच्च स्थान प्राप्त किया हो सकता है।
- ऐसी स्थिति में उक्त उम्मीदवार को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी से हटाकर खुली/जनरल श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया जाएगा, जिससे अनुसूचित जनजाति के ऊर्ध्वाधर कॉलम में रिक्त स्थान उत्पन्न हो जाएगा।
- ऐसी रिक्ति से अनुसूचित जनजाति-महिला की प्रतीक्षा सूची में शामिल उम्मीदवार को लाभ सुनिश्चित होना चाहिये।
- भारत संघ बनाम वी. श्रीहरन (2016):
- यह निर्णय न्यायमूर्ति एच.एल. दत्तू, न्यायमूर्ति इब्राहिम कलीफुल्ला, न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष, न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे और न्यायमूर्ति यू.यू. ललित की संविधान पीठ द्वारा दिया गया।
- न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 53 और धारा 45 के तहत आजीवन कारावास का तात्पर्य है कि दोषी को उसके शेष जीवन के लिये कारावास में रखा जाएगा।
- न्यायालय ने यह निर्णय लिया है कि मृत्युदंड के विकल्प के रूप में 14 वर्ष से अधिक की छूट वाली सज़ा दी जा सकती है।
- शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मूलतः दो मुद्दे थे:
- क्या तत्काल तीन तलाक की प्रथा इस्लाम धर्म का एक अनिवार्य अभ्यास है?
- क्या तीन तलाक की प्रथा किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है?
- इस ऐतिहासिक निर्णय में न्यायालय ने 3:2 बहुमत से माना कि तलाक-ए-बिद्दत की प्रथा स्पष्टतः मनमानी और असंवैधानिक है।
- न्यायमूर्ति केहर और न्यायमूर्ति नज़ीर ने असहमतिपूर्ण राय दी।
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मूलतः दो मुद्दे थे:
- अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर (2017):
- यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13B (2) के तहत आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद पर ऐतिहासिक निर्णय है।
- न्यायालय ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13B (2) के तहत निर्धारित छह माह की न्यूनतम अवधि निर्देशात्मक है, अनिवार्य नहीं।
- न्यायालय ने कहा कि कूलिंग ऑफ अवधि को केवल निम्नलिखित कारकों पर विचार करने के बाद ही माफ किया जा सकता है:
- धारा 13B (2) में निर्दिष्ट छह माह की वैधानिक अवधि, धारा 13B (1) के तहत पक्षकारों के पृथक्करण की एक वर्ष की वैधानिक अवधि के अतिरिक्त, पार्टियों को अलग करने के पहले प्रस्ताव से पहले ही समाप्त हो चुकी होती है;
- मध्यस्थता/सुलह के लिये सभी प्रयास जिनमें आदेश XXXIIA नियम 3 CPC/अधिनियम की धारा 23(2)/कुटुम्भ न्यायालय अधिनियम की धारा 9 के अनुसार पक्षकारों को फिर से एकजुट करने के प्रयास शामिल होते हैं, विफल हो जाते हैं और आगे किसी भी प्रयास से उस दिशा में सफलता की कोई संभावना नहीं होती है;
- पक्षकारों ने गुज़ारा भत्ता, बच्चे की कस्टडी या पक्षकारों के बीच किसी भी अन्य लंबित मुद्दे सहित अपने मतभेदों को वास्तव में सुलझा लिया है;
- प्रतीक्षा अवधि केवल उनकी पीड़ा को बढ़ाएगी।