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सिविल कानून
कैलाश बनाम नन्हकू (2005)
«16-Apr-2025
परिचय
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश VIII नियम 1 के अंतर्गत लिखित अभिकथन दाखिल करने की समयसीमा निर्देशात्मक है, अनिवार्य नहीं।
- न्यायालय ने माना कि CPC के आदेश VIII नियम 1 में दिये गए समय से परे लिखित अभिकथन दाखिल करने के लिये समय बढ़ाने की न्यायालय की शक्ति को नहीं छीना गया है।
- यह निर्णय उच्चतम न्यायालय के 3 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया, जिसमें न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी, न्यायमूर्ति डी.एम. धर्माधिकारी एवं न्यायमूर्ति पी.के. बालासुब्रमण्यम शामिल थे।
तथ्य
- उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिये चुनाव 7 नवंबर, 2003 को राष्ट्रपति की अधिसूचना के बाद हुए थे।
- अपीलकर्त्ता को चुनाव का विजेता घोषित किया गया। प्रतिवादी संख्या 1 ने अपीलकर्त्ता के चुनाव को चुनौती देते हुए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 80 के अंतर्गत चुनाव याचिका दायर की।
- अपीलकर्त्ता को समन एवं चुनाव याचिका की एक प्रति दी गई, जिसमें उसे 6 अप्रैल 2004 को न्यायालय में प्रस्तुत होने की आवश्यकता थी।
- नियत दिन पर, अपीलकर्त्ता अपने अधिवक्ता के माध्यम से प्रस्तुत हुआ तथा लिखित अभिकथन दाखिल करने के लिये एक महीने का समय मांगा।
- न्यायालय ने लिखित अभिकथन दाखिल करने के लिये 13 मई 2004 तक का समय दिया।
- 13 मई 2004 को, अपीलकर्त्ता ने कई दस्तावेजों की प्रतियाँ प्राप्त करने की आवश्यकता का उदाहरण देते हुए लिखित अभिकथन दाखिल करने के लिये अतिरिक्त समय की मांग करते हुए एक और आवेदन दायर किया।
- न्यायालय ने सुनवाई 3 जुलाई, 2004 तक स्थगित कर दी, क्योंकि उच्च न्यायालय 13 मई से 2 जुलाई, 2004 तक ग्रीष्मकालीन अवकाश के लिये बंद था।
- 22 जून, 2004 को अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता के भतीजे का निधन हो गया, हालाँकि लिखित अभिकथन का प्रारूप तैयार कर उसे दाखिल करने के लिये तैयार रखा गया था।
- अधिवक्ता के पंजीकृत क्लर्क को गाजीपुर से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लिखित अभिकथन दाखिल करने के लिये भेजा गया, जहाँ अपीलकर्त्ता एवं उसके अधिवक्ता रहते थे।
- सुनवाई से दो दिन पहले 1 जुलाई, 2004 को लिखित अभिकथन के साथ संलग्न अपीलकर्त्ता के शपथपत्र पर इलाहाबाद में शपथ ली गई।
- क्लर्क की समझ की कमी के कारण, लिखित अभिकथन 3 जुलाई, 2004 को दाखिल नहीं किया गया, बल्कि 8 जुलाई, 2004 को दाखिल किया गया।
- लिखित अभिकथन के साथ विलंब के लिये क्षमा का आवेदन भी था, जिसमें विलंब से दाखिल करने के कारणों का संक्षेप में उल्लेख किया गया था।
- 23 अगस्त 2004 को, उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के आवेदन को खारिज कर दिया और लिखित अभिकथन को स्वीकार करने से मना कर दिया क्योंकि यह समन की सेवा की तिथि से 90-दिन की सीमा अवधि से परे दायर किया गया था, जैसा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VIII के नियम 1 के प्रावधान द्वारा अनिवार्य है। इस आदेश से व्यथित होकर, विजयी उम्मीदवार (उच्च न्यायालय के समक्ष प्रतिवादी-प्रतिवादी) ने विशेष अनुमति द्वारा अपील दायर की।
शामिल मुद्दे
- क्या CPC का आदेश VIII नियम 1 अधिनियम के अध्याय II के अंतर्गत चुनाव याचिका की सुनवाई के लिये लागू है?
- क्या चुनाव याचिकाओं की सुनवाई को नियंत्रित करने वाले उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियम CPC के प्रावधानों को दरकिनार कर देंगे तथा CPC के आदेश VIII नियम 1 द्वारा निर्धारित अवधि से परे लिखित अभिकथन दाखिल करने की अनुमति देंगे?
- क्या CPC के आदेश VIII के नियम 1 से जुड़े प्रावधान द्वारा निर्धारित 90 दिनों की समय सीमा अनिवार्य है या प्रकृति में निर्देशात्मक है?
टिप्पणी
- ट्रायल में लिखित अभिकथन दाखिल करने की अनिवार्यता: चुनाव याचिका के संदर्भ में 'ट्रायल' शब्द में लिखित अभिकथन दाखिल करने का चरण शामिल है। इसलिये, उच्च न्यायालय इसे दाखिल करने के लिये समय देने के लिये ट्रायल को स्थगित कर सकता है।
- न्यायालय के पास समय बढ़ाने का विवेकाधिकार: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 86(6) और संविधान के अनुच्छेद 225 के अंतर्गत बनाए गए नियम 5 एवं 12 के अंतर्गत, उच्च न्यायालय के पास लिखित रूप में दर्ज वैध कारणों के लिये लिखित अभिकथन दाखिल करने के लिये समय बढ़ाने का विवेकाधिकार है।
- आदेश VIII नियम 1 की प्रकृति प्रक्रियात्मक: सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) का आदेश VIII नियम 1, जो लिखित अभिकथन दाखिल करने के लिये समयसीमा निर्धारित करता है, एक प्रक्रियात्मक प्रावधान है और मूल विधि का हिस्सा नहीं है।
- प्रावधान निर्देशात्मक है, अनिवार्य नहीं: आदेश VIII नियम 1 में प्रयोग की गई नकारात्मक भाषा के बावजूद, न्यायालय ने माना कि प्रावधान प्रकृति में निर्देशात्मक है। इसका उद्देश्य शीघ्र निपटान सुनिश्चित करना है, लेकिन यह पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाता है।
- न्यायालय शक्तिहीन नहीं: आदेश VIII नियम 1 द्वारा निर्धारित 90-दिन की सीमा के बाद भी, न्यायालय लिखित अभिकथन को स्वीकार करने में शक्तिहीन नहीं है, यदि वह न्याय के हित में उचित एवं आवश्यक समझता है।
- कोई दण्डात्मक परिणाम निर्दिष्ट नहीं: नियम 90 दिनों के अंदर लिखित अभिकथन दाखिल करने में विफलता के लिये विशिष्ट दण्डात्मक परिणाम निर्धारित नहीं करता है।
- नियम का उद्देश्य न्याय में शीघ्रता, न कि न्याय से अस्वीकृति: नियम का उद्देश्य वाद में शीघ्रता लाना है, न कि न्याय के उद्देश्यों को विफल करना या प्रतिवादी को अनुचित तरीके से दण्डित करना।
- असाधारण परिस्थितियों में विस्तार की अनुमति: न्यायालय असाधारण मामलों में 90-दिन की सीमा से परे दाखिल करने की अनुमति दे सकता है, जहाँ विलंब प्रतिवादी के नियंत्रण से परे कारणों से होती है और जहाँ मना करने से गंभीर अन्याय होगा।
- नियमित विस्तार की अनुमति नहीं: समय का विस्तार नियमित रूप से या केवल अनुरोध पर नहीं दिया जाना चाहिये। कारणों को दर्ज किया जाना चाहिये और उचित ठहराया जाना चाहिये।
- चुनाव याचिकाओं में लचीलापन: चुनाव याचिकाओं में, CPC के प्रक्रियात्मक नियम लचीले ढंग से लागू होते हैं तथा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 87 (1) के अनुसार उनका सख्ती से पालन नहीं किया जाना चाहिये।
- न्यायालय द्वारा लागत के साथ विलंब से दाखिल करने की अनुमति का प्रावधान: वर्तमान मामले में, उच्च न्यायालय ने दोषपूर्ण तरीके से माना कि उसके पास विलंब से दाखिल करने की अनुमति देने का कोई अधिकार नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी को लागत के रूप में 5000 रुपये का भुगतान करने पर लिखित अभिकथन स्वीकार किया जाना चाहिये।
- लिखित अभिकथन की स्वीकार्यता: अपीलकर्त्ता द्वारा दायर लिखित अभिकथन को 4 सप्ताह के अंदर लागत के भुगतान के अधीन रिकॉर्ड पर लेने का निर्देश दिया गया था।
निष्कर्ष
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CPC के आदेश VIII नियम 1 के अंतर्गत 90 दिन की समय-सीमा निर्देशात्मक है, अनिवार्य नहीं है, तथा न्यायालयों के पास असाधारण मामलों में विलंब की अनुमति देने का विवेक है।
- यह निर्णय न्याय के व्यापक हितों के साथ शीघ्र सुनवाई की आवश्यकता को संतुलित करता है।