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सिविल कानून
किरण सिंह एवं अन्य बनाम चमन पासवान एवं अन्य (1954)
« »18-Feb-2025
परिचय
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1887 की धारा 11 के अंतर्गत 'पूर्वाग्रह' की परिभाषा तय करता है।
- यह निर्णय न्यायमूर्ति बी.के. मुखर्जी, न्यायमूर्ति विवियन बोस एवं न्यायमूर्ति गुलाम हसन की तीन सदस्यीय पीठ ने दिया।
तथ्य
- अपीलकर्त्ताओं ने मौजा बरडीह में स्थित 12 एकड़ 51 सेंट भूमि पर कब्जे की वापसी के लिये अधीनस्थ न्यायाधीश, मोंगीर की न्यायालय में एक वाद संस्थित किया।
- प्रतिवादी संख्या 12 एवं 13 (दूसरा पक्ष) विचाराधीन भूमि के मालिक हैं।
- वादी ने आरोप लगाया कि 12 अप्रैल, 1943 को उन्हें दूसरे पक्ष ने 1,950 रुपये सलामी के तौर पर देने के बाद दखलंदाजी किरायेदार के तौर पर स्वीकार किया तथा भूमि पर कब्जा दिला दिया।
- वादी ने आगे आरोप लगाया कि प्रतिवादी संख्या 1 से 11 (पहला पक्ष) ने भूमि पर अतिक्रमण किया तथा फसलें उठा ले गए।
- यह वाद प्रतिवादी संख्या 1 से 11 को बाहर निकालने तथा अंतःकालीन लाभ की वसूली के लिये था, जिसका मूल्य 2,950 रुपये था (कब्जे के लिये 1,950 रुपये तथा पिछले अंतःकालीन लाभ के लिये 1,000 रुपये)।
- प्रतिवादी संख्या 1 से 11 ने वाद में बचाव किया, जिसमें दावा किया गया कि वे फसली 1336 से बटाई प्रणाली (फसल-बंटवारा) के अंतर्गत काश्तकारों के रूप में भूमि पर काबिज थे तथा उन्होंने अधिभोग अधिकार प्राप्त कर लिया था।
- प्रथम पक्ष प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि दूसरे पक्ष को वादी की भूमि पर बसने का कोई अधिकार नहीं था, तथा वादी ने 12 अप्रैल, 1943 के समझौते के अंतर्गत कोई अधिकार प्राप्त नहीं किया था।
- प्रतिवादी संख्या 12 एवं 13 कार्यवाही में एकपक्षीय रहे।
- अधीनस्थ न्यायाधीश ने फसली 1336 से 1347 तक पटवारियों की लिखावट में प्रदर्श A से A-114 के रूप में चिह्नित रसीदों पर विश्वास करते हुए माना कि प्रतिवादी संख्या 1 से 11 12 वर्षों से अधिक समय से खेती करने वाले काश्तकारों के रूप में काबिज थे तथा उन्होंने अधिभोग अधिकार प्राप्त कर लिया था।
- अधीनस्थ न्यायाधीश ने यह पाते हुए वाद खारिज कर दिया कि 12 अप्रैल 1943 को हुए समझौते से वादी को कोई अधिकार नहीं मिलता।
- वादीगण ने जिला न्यायाधीश, मुंगेर के समक्ष अपील की, जिन्होंने रसीदों की वास्तविकता के विषय में अधीनस्थ न्यायालय से सहमति व्यक्त की और अपील को खारिज कर दिया।
- वादीगण ने उच्च न्यायालय, पटना (एस.ए. संख्या 1152/1946) में दूसरी अपील दायर की।
- उच्च न्यायालय में, पहली बार, स्टाम्प रिपोर्टर ने वादपत्र में मूल्यांकन पर आपत्ति जताई तथा जाँच के बाद, न्यायालय ने सही मूल्यांकन 9,980 रुपये निर्धारित किया।
- वादीगण ने अतिरिक्त न्यायालय-शुल्क का भुगतान किया तथा फिर तर्क दिया कि संशोधित मूल्यांकन पर, अधीनस्थ न्यायाधीश के निर्णय के विरुद्ध अपील सीधे उच्च न्यायालय में की जानी चाहिये थी, न कि जिला न्यायालय में।
- वादीगण ने तर्क दिया कि जिला न्यायालय के निर्णय की अनदेखी करते हुए उनकी दूसरी अपील को पहली अपील के रूप में सुना जाना चाहिये।
- रामदेव सिंह बनाम राज नारायण के निर्णय के बाद उच्च न्यायालय ने माना कि जिला न्यायालय में अपील सक्षम थी तथा इसे केवल तभी उलट दिया जा सकता था जब अपीलकर्त्ता गुण-दोष के आधार पर पूर्वाग्रह सिद्ध कर दें।
- यह पाते हुए कि ऐसा कोई पूर्वाग्रह नहीं दिखाया गया था, उच्च न्यायालय ने दूसरी अपील को खारिज कर दिया।
- यह मामला विशेष अनुमति पर उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया, जिसमें वाद मूल्यांकन अधिनियम की धारा 11 के निर्माण पर प्रश्न किया गया।
शामिल मुद्दे
- क्या न्यायालय द्वारा गुण-दोष के आधार पर पारित किया गया निर्णय अमान्य है?
- वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1887 (SVA) की धारा 11 के अंतर्गत 'पूर्वाग्रह' क्या माना जाएगा?
- क्या न्यायालय के अधिकारिता का आह्वान करने वाला पक्षकार अधिक मूल्यांकन या कम मूल्यांकन के आधार पर पूर्वाग्रह की शिकायत कर सकता है?
टिप्पणी
- न्यायालय ने कहा कि अधिकारिता का दोष चाहे वह क्षेत्रीय हो, आर्थिक हो या विषय-वस्तु का, न्यायालय के अधिकार पर आघात करता है तथा इस तरह के दोष को पक्षों की सहमति से भी ठीक नहीं किया जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC ) की धारा 99 में यह प्रावधान है कि किसी डिक्री को उसमें उल्लिखित दोषों के कारण अपील में उलटा या बदला नहीं जाएगा, जब वे मामले के गुण-दोष को प्रभावित नहीं करते हैं। इस प्रकार, धारा 99 गुण-दोष के आधार पर पारित डिक्री को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करती है, जब उन्हें पारित करने वाले न्यायालयों के पास अधिक मूल्यांकन या कम मूल्यांकन के परिणामस्वरूप अधिकारिता नहीं होता है।
- उपर्युक्त का प्रतिवाद करने के लिये ही SVA की धारा 11 अधिनियमित की गई थी, जो यह प्रावधान करती है कि अधिक मूल्यांकन या कम मूल्यांकन के आधार पर न्यायालय की अधिकारिता पर आपत्तियों को अपीलीय न्यायालय द्वारा धारा में उल्लिखित तरीके और परिसीमा के अतिरिक्त विचार नहीं किया जाएगा।
- न्यायालय ने CPC की धारा 21 की भी पुनरावृत्ति किया। न्यायालय ने माना कि CPC की धारा 21, धारा 99 और SVA की धारा 11 का आधार एक ही है अर्थात् जब किसी मामले की सुनवाई न्यायालय द्वारा गुण-दोष और दिये गए निर्णय के आधार पर की जाती है, तो उसे केवल तकनीकी आधार पर उलटने योग्य नहीं होना चाहिये, जब तक कि इससे न्याय में विफलता न हो।
- यह भी दोहराया गया कि SVA की धारा 11 की भाषा यह प्रावधान करती है कि वाद के अधिक या कम मूल्यांकन ने गुण-दोष के आधार पर मामले के निपटान को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया होगा।
- न्यायालय को वर्तमान तथ्यों में यह निर्धारित करना था कि क्या अपीलकर्त्ताओं को कम मूल्यांकन के कारण कोई पूर्वाग्रह हुआ है।
- वर्तमान मामले में तथ्यों के संबंध में यह देखा गया कि पूर्वाग्रह केवल तभी राहत का आधार हो सकता है जब यह किसी अन्य पक्ष की कार्यवाही के कारण हो तथा तब नहीं जब यह किसी के अपने कार्य का परिणाम हो।
- न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों के आधार पर न्यायालय द्वारा अपील की पूर्ण एवं निष्पक्ष सुनवाई की गई तथा मामले में साक्ष्य के आधार पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय दिया गया। इस प्रकार, वर्तमान तथ्यों में कोई अन्याय नहीं हुआ।
- इस प्रकार, न्यायालय ने SVA की धारा 11 के अंतर्गत हस्तक्षेप करने से मना कर दिया।
निष्कर्ष
- यह न्यायालयों की अधिकारिता के अभाव से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।
- इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पक्ष द्वारा आरोपित पूर्वाग्रह दूसरे पक्ष द्वारा उत्पन्न होना चाहिये, न कि उसके अपने कृत्यों का परिणाम होना चाहिये।