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सिविल कानून

सरगुजा परिवहन सेवा बनाम राज्य परिवहन अपीलीय अधिकरण (1986)

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 12-Nov-2024

परिचय: 

  • यह रिट याचिकाओं पर सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXIII नियम 1 की प्रयोज्यता से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।
  • यह निर्णय न्यायमूर्ति ई.एस. वेंकटरमैय्या और न्यायमूर्ति एम.एम. दत्त की एक द्वि-न्यायाधीशीय पीठ द्वारा सुनाया गया।

तथ्य: 

  • याचिकाकर्त्ताओं और कुछ अन्य लोगों ने क्षेत्रीय परिवहन प्राधिकरण, बिलासपुर के समक्ष परमिट प्रदान करने के लिये आवेदन दायर किया।
  • राज्य परिवहन अपीलीय अधिकरण ने याचिकाकर्त्ता के पक्ष में परमिट देने के आदेश को रद्द कर दिया।
  • अधिकरण के आदेश से व्यथित होकर भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 227/226 के अंतर्गत मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की गई।
  • याचिकाकर्त्ता ने याचिका वापस लेने की अनुमति मांगी और उसे वापस ली गई मानते हुए खारिज कर दिया गया।
  • बाद में याचिकाकर्त्ता ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष एक और रिट याचिका दायर की।
  • यह रिट याचिका खारिज कर दी गई। याचिका खारिज करने के आदेश से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने विशेष अनुमति याचिका दायर कर उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील करने के लिये विशेष अनुमति देने का अनुरोध किया।     

शामिल मुद्दा:

  • क्या कोई याचिकाकर्त्ता भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में दायर रिट याचिका को वापस लेने के बाद, नई याचिका प्रस्तुत करने की अनुमति के बिना उस अनुच्छेद के तहत उच्च न्यायालय में नई रिट याचिका दायर कर सकता है?

टिप्पणियाँ:

  • न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के नियम रिट कार्यवाही पर लागू नहीं होते हैं, हालाँकि उच्च न्यायालय द्वारा रिट याचिकाओं के निपटान के दौरान, जहाँ तक संभव हो, निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाता है।
  • न्यायालय ने कहा कि संहिता के आदेश XXIII के नियम 1 में अंतर्निहित सिद्धांत यह है कि जब कोई वादी एक बार न्यायालय में वाद संस्थित करता है और इस प्रकार कानून के तहत उसे दिये गए उपचार का लाभ उठाता है, तो उसे पहले के वाद को त्यागने या न्यायालय की अनुमति के बिना उसे वापस लेने के बाद उसी विषय-वस्तु के संबंध में फिर से नया वाद संस्थित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। कानून किसी व्यक्ति को कोई अधिकार या लाभ प्रदान नहीं करता है जिसकी वह इच्छा नहीं करता है।
  • यहाँ न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या इससे न्याय को प्रोत्साहन मिलेगा या नहीं, यदि संहिता के आदेश XXIII के नियम 1 में निहित सिद्धांत को भारत के संविधान के अनुच्छेद 226/227 के तहत दायर रिट याचिकाओं के संदर्भ में भी अपनाया जाए।
  • एक न्यायालय जो याचिका को स्वीकार करने के लिये अनिच्छुक है, सामान्यतः नई याचिका दायर करने की स्वतंत्रता नहीं देगा, जबकि वह याचिका को वापस लेने की अनुमति देने पर सहमत हो सकता है।
    • यह स्पष्ट है कि जब एक बार उच्च न्यायालय में दायर रिट याचिका को याचिकाकर्त्ता द्वारा स्वयं वापस ले लिया जाता है तो उसे रिट याचिका में पारित आदेश के विरुद्ध अपील दायर करने से रोक दिया जाता है, क्योंकि उसे उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश से व्यथित पक्ष नहीं माना जा सकता है।
  • CPC के आदेश XXIII के नियम 1 में अंतर्निहित सिद्धांत को न्याय प्रशासन के हित में रिट याचिका वापस लेने के मामलों में भी लागू किया जाना चाहिये।
  • जबकि एक नई रिट याचिका दायर करने की अनुमति के बिना उच्च न्यायालय में दायर रिट याचिका को वापस लेने से भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत वाद या याचिका जैसे अन्य उपायों पर रोक नहीं लग सकती है, क्योंकि इस तरह की वापसी रेस ज्युडिकाटा के बराबर नहीं होती है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उपाय को याचिकाकर्त्ता द्वारा रिट याचिका में भरोसा किये गए कार्रवाई के कारण के संबंध में त्याग दिया गया माना जाना चाहिये जब वह बिना अनुमति के इसे वापस लेता है।
  • इस प्रकार न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय का यह कहना सही था कि उसी विषय-वस्तु के संबंध में उसके समक्ष नई रिट याचिका स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि नई याचिका दायर करने की अनुमति के बिना ही पिछली रिट याचिका वापस ले ली गई है।

निष्कर्ष: 

  • निर्णय में रिट याचिकाओं पर CPC के आदेश XXIII नियम 1 की प्रयोज्यता पर चर्चा की गई है।
  • इस निर्णय में कहा गया कि यदि न्यायालय की अनुमति के बिना एक याचिका वापस ले ली गई है, तो उसी कारण से एक नई याचिका की अनुमति नहीं दी जाएगी।