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पारिवारिक कानून
बलवंत राव बनाम बाजी राव (1920)
«15-Jan-2025
परिचय
यह संपत्ति में महिलाओं के स्वामित्व अधिकारों से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।
- यह निर्णय बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया।
तथ्य
- वर्ष 1868 में बापूजी की मृत्यु हो गई तथा वे वर्धा जिले में चिकनी एवं बिधि नामक दो संपत्तियाँ (मौज़ा) छोड़ गए।
- उनकी बेटी सरस्वती को ये संपत्तियाँ उत्तराधिकार में मिलीं तथा बाद में उन्होंने इनके कई हिस्से अलग-अलग लोगों को बेच दिए।
- 1889 में जब सरस्वती की मृत्यु हुई, तो उनके तीन बेटों ने इन बिक्री को चुनौती दी।
- सरस्वती महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार से थीं, जो मध्य प्रांत में जाकर बस गए थे।
- संबंधित जिला न्यायाधीश ने पाया कि उनका हित आत्यंतिक हित था; लेकिन अपील करने पर न्यायिक आयुक्त ने अपने निर्णय को पलट दिया।
- इसलिये मामला उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
शामिल मुद्दे
क्या सरस्वती को अपने पिता से उत्तराधिकार में मिली संपत्ति पर आत्यंतिक स्वामित्व अधिकार था, या हिंदू विधवाओं के अधिकारों के समान सीमित अधिकार था?
टिप्पणी
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि उत्तराधिकार विधि व्यक्ति के पर्सनल लॉ का पालन करता है, न कि केवल उस स्थान के स्थानीय कानून का जहाँ वह रहता है। जब परिवार पलायन करते हैं, तो वे अपने पर्सनल लॉ को अपने साथ ले जाते हैं जब तक कि वे स्पष्ट रूप से इसका त्याग न कर दें।
- न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों में चूँकि बापूजी महाराष्ट्र के ब्राह्मण थे, इसलिये निम्नलिखित तथ्य उन पर लागू होंगे:
- उनका परिवार बॉम्बे की विधि के अधीन था।
- इस तथ्य का कोई साक्ष्य नहीं था कि उन्होंने इस विधि को त्याग दिया था।
- बॉम्बे की विधि के अंतर्गत, बेटियों को अपने पिता से पूर्ण संपत्ति का अधिकार उत्तराधिकार में मिलता है।
- न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि विधि का निर्धारण इस आधार पर किया जाना चाहिये कि बापूजी बरार में रहते थे या मध्य प्रांत में, और कहा कि यह दृष्टिकोण दोषपूर्ण है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बॉम्बे की विधि का निर्वचन (बेटियों को आत्यंतिक अधिकार देना) हिंदू विधि पर मयूखा टिप्पणी पर आधारित थी, जिसका ऐतिहासिक रूप से पश्चिमी भारत में पालन किया जाता था।
- इस प्रकार, न्यायालय द्वारा निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले गए:
- न्यायालय ने सरस्वती के आत्यंतिक स्वामित्व अधिकारों के पक्ष में निर्णय दिया।
- इसका तात्पर्य यह हुआ कि सरस्वती द्वारा संपत्तियों की बिक्री वैध थी।
- इसलिये उनके बेटों की अपील खारिज कर दी गई।
- इसलिये, मूल जिला न्यायाधीश के निर्णय को यथावत कर दिया गया तथा यह माना गया कि सरस्वती के पास आत्यंतिक स्वामित्व अधिकार था।
निष्कर्ष
- यह मामला इस तथ्य को स्थापित करने के लिये महत्त्वपूर्ण हो गया कि जब कोई परिवार प्रवास करता है तो पर्सनल लॉ उसके साथ लागू होता है, जब तक कि वे स्पष्ट रूप से स्थानीय रीति-रिवाजों का पालन करने का चुनाव नहीं करते।