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पारिवारिक कानून

गंडूरी कोटेश्वरम्मा एवं अन्य बनाम चाकिरी यानादी एवं अन्य AIR 2012 SC 169

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 02-Sep-2024

परिचय:

  • न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि क्या हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (संशोधन अधिनियम, 2005 द्वारा संशोधित) की धारा 6 के लागू होने से पूर्व पारित वादग्रस्त संपत्तियों के विभाजन एवं कब्ज़े के लिये प्रारंभिक डिक्री को अंतिम डिक्री से पहले संशोधित किया जा सकता है, विशेषकर तब जब बेटियाँ पहले से ही वाद में पक्षकार हों।
  • इसने संशोधित विधि के अंतर्गत सहदायिक के रूप में बेटियों के अधिकारों के विषय में महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किया।

मामले के तथ्य:

  • अपीलकर्त्ता एवं प्रतिवादी चकरी वेंकट स्वामी के भाई-बहन, बेटियाँ एवं बेटे थे।
  • प्रथम प्रतिवादी (वादी) ने ओंगोल में वरिष्ठ सिविल जज के न्यायालय में बँटवारे के लिये वाद संस्थित किया, जिसमें उनके पिता चकरी वेंकट स्वामी (प्रथम प्रतिवादी), उनके भाई चकरी अंजी बाबू (द्वितीय प्रतिवादी) और उनकी दो बहनों (अपीलकर्त्ता) को तीसरे एवं चौथे प्रतिवादी के रूप में शामिल किया गया।
  • वादी ने अनुसूची 'A', 'C', एवं 'D' के अंतर्गत सूचीबद्ध सहदायिक संपत्तियों में 1/3 हिस्सा और अनुसूची संपत्ति 'B' में 1/5 हिस्सा का दावा किया, जो उसकी माँ की थी।
  • 19 मार्च, 1999 को ट्रायल कोर्ट ने घोषित किया कि वादी अनुसूची 'A', 'C', एवं 'D' के अंतर्गत संपत्तियों के 1/3 हिस्से तथा मृतक प्रथम प्रतिवादी द्वारा छोड़े गए 1/3 हिस्से के 1/4 हिस्से का अधिकारी था। वादी को संपत्ति 'B' में भी 1/5 हिस्सा मिला।
  • प्रारंभिक डिक्री को 27 सितंबर 2003 को संशोधित किया गया था तथा ट्रायल कोर्ट ने अंतिम डिक्री के लिये कार्यवाही प्रारंभ की। अंतिम डिक्री पारित होने से पहले, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 लागू हुआ, जिसने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की नई धारा 6 के अंतर्गत बेटियों (अपीलकर्त्ताओं) के अधिकारों को प्रभावित किया।
  • अपीलकर्त्ताओं ने संशोधित अधिनियम के अंतर्गत शेयरों (हिस्सों) के पुनर्वितरण के लिये एक आवेदन दायर किया, जिसमें सहदायिक संपत्तियों (अनुसूची 'A', 'C', एवं 'D') में से प्रत्येक में 1/4 हिस्सा मांगा गया। ट्रायल कोर्ट ने आवेदन स्वीकार कर लिया, लेकिन उच्च न्यायालय ने इस आदेश को रद्द कर दिया।

शामिल मुद्दे:

  • क्या अपीलकर्त्ताओं को (संशोधन) अधिनियम, 2005 का लाभ उपलब्ध था?

टिप्पणी:

  • अपील को स्वीकार कर लिया गया, जिसमें प्रश्न किया गया कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लाभ अपीलकर्त्ताओं (बेटियों) को उपलब्ध थे।
  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 ने बेटियों को सहदायिक संपत्ति में समान अधिकार प्रदान किये, जिससे वे जन्म से ही सहदायिक बन गईं और उन्हें बेटों के समान अधिकार एवं दायित्व प्राप्त हुए। यह अधिनियम सभी बेटियों पर लागू होता है, सिवाय उन मामलों के जहाँ विभाजन 20 दिसंबर 2004 से पहले ही हो चुका था।
  • 19 मार्च 1999 को पारित एवं 27 सितंबर 2003 को संशोधित प्रारंभिक डिक्री ने सीमाओं के आधार पर अंतिम विभाजन नहीं किया। चूँकि अंतिम डिक्री पारित नहीं की गई थी, इसलिये अपीलकर्त्ता 2005 के संशोधन अधिनियम के लाभों के अधिकारी थे।
  • उच्च न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश XX नियम 18 की अपनी व्याख्या में यह निष्कर्ष निकालकर चूक की कि प्रारंभिक डिक्री को संशोधित नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि बदली हुई परिस्थितियों के मद्देनजर अंतिम डिक्री से पहले प्रारंभिक डिक्री को संशोधित या बदला जा सकता है।

निष्कर्ष:

  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया तथा ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया, जिसमें कहा गया कि अपीलकर्त्ता अनुसूची 'A', 'C', एवं 'D'के अंतर्गत सहदायिक संपत्तियों में से प्रत्येक में 1/4 हिस्सा पाने के अधिकारी हैं।
  • न्यायालय ने दोहराया कि विभाजन के वाद में पक्षकारों के अधिकारों का वाद में एक बार में ही निपटारा कर दिया जाना चाहिये तथा विधायिका की मंशा के अनुसार महिलाओं के लिये सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिये 2005 के संशोधन अधिनियम को लागू किया जाना चाहिये।