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सिविल कानून

मौला बख्श बनाम भारत संघ (1970)

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 06-Feb-2025

परिचय

यह अग्रिम राशि की जब्ती और भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 74 की प्रयोज्यता से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है। 

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति जे.सी. शाह, न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी एवं न्यायमूर्ति ए.एन. ग्रोवर की तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया।

तथ्य

  • मौला बक्श (वादी) ने 1947 में भारत सरकार के साथ दो संविदा किये:
    • 10,000 रुपये की सुरक्षा जमा के साथ आलू की आपूर्ति के लिये संविदा। 
    • 8,500 रुपये की सुरक्षा जमा के साथ मुर्गी, अंडे एवं मछली की आपूर्ति के लिये संविदा।
  • वादी ने लगातार नियमित रूप से और पूरी तरह से वस्तुओं की आपूर्ति करने में चूक कारित की। 
  • भारत सरकार ने दोनों संविदाओं को रद्द कर दिया तथा प्रतिभूति निक्षेप जब्त कर ली। 
  • मौला बख्श ने भारत संघ के विरुद्ध वाद संस्थित कर 20,000 रुपये (कुल प्रतिभूति निक्षेप) को 6% प्रति वर्ष ब्याज के साथ वापस करने की मांग की। 
  • ट्रायल कोर्ट ने माना कि हालाँकि सरकार संविदाओं को रद्द करने में उचित थी, लेकिन वह जमा राशि जब्त नहीं कर सकती क्योंकि वास्तविक क्षति का कोई साक्ष्य नहीं था। वाद का निर्णय वादी के पक्ष में दिया गया।
  • उच्च न्यायालय ने डिक्री को संशोधित करते हुए 3% ब्याज के साथ 416.25 रुपए का पंचाट दिया, यह तर्क देते हुए कि वास्तविक क्षति के साक्ष्य के अभाव के बावजूद जब्त किये गए प्रतिभूति निक्षेप को उचित क्षतिपूर्ति माना जा सकता है। 
  • मौला बख्श ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका संस्थित की।

शामिल मुद्दे 

  • क्या इस मामले में भारत सरकार अग्रिम जमा राशि जब्त कर सकती है?

टिप्पणी  

  • इस मामले में न्यायालय ने फतेह चंद बनाम बालकिशन दास (1964) मामले का उदाहरण दिया, जिसमें यह माना गया था कि ऐसे सभी मामलों में जहाँ करार के अनुसार जमा की गई राशि को जब्त करने के लिये दण्ड की प्रकृति का प्रावधान है, न्यायालय के पास केवल उचित राशि देने का अधिकार है, जो जब्त की जाने योग्य निर्दिष्ट राशि से अधिक नहीं है।
  • न्यायालय ने इस मामले में माना कि यदि अग्रिम राशि को जब्त करना उचित है तो यह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) की धारा 74 के अंतर्गत नहीं आता है।
  • हालाँकि, यदि जब्ती दण्ड की प्रकृति की है, तो ICA की धारा 74 लागू होगी।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि जहाँ उल्लंघन करने वाले पक्ष ने एक धनराशि का भुगतान करने या उस धनराशि को जब्त करने का वचन दिया है जिसे उसने उल्लंघन की शिकायत करने वाले पक्ष को पहले ही भुगतान कर दिया है, तो वचनबद्धता दण्ड की प्रकृति की है।
  • इसके अतिरिक्त, दिये जा सकने वाली क्षतिपूर्ति के संबंध में न्यायालय ने कहा कि:
    • कुछ मामलों में संविदा भंग की स्थिति में न्यायालय के लिये उल्लंघन से क्षतिपूर्ति का आकलन करना असंभव हो सकता है, जबकि अन्य मामलों में इसकी गणना स्थापित नियमों के अनुसार की जा सकती है।
    • जहाँ न्यायालय क्षतिपूर्ति का आकलन करने में असमर्थ है, वहाँ पक्षकारों द्वारा नामित राशि को यदि वास्तविक पूर्व-अनुमान माना जाए तो उसे उचित क्षतिपूर्ति के उपाय के रूप में ध्यान में रखा जा सकता है, लेकिन यदि नामित राशि दण्ड की प्रकृति की है तो उसे उचित क्षतिपूर्ति के उपाय के रूप में नहीं माना जाएगा।
    • जहाँ धन के रूप में हानि निर्धारित की जा सकती है, वहाँ क्षतिपूर्ति का दावा करने वाले पक्ष को उसे हुई क्षतिपूर्ति को सिद्ध करना होगा।
  • न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामले में भारत सरकार आसानी से यह सिद्ध कर सकती थी कि बाद में सरकार ने किन दरों पर वस्तुएँ खरीदीं। हालाँकि, भारत सरकार ने इसके लिये कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया। 
  • न्यायालय ने अंततः माना कि वादी संविदा के उल्लंघन का दोषी था तथा इसके कारण सैन्य अधिकारियों को काफी असुविधा हुई। 
  • इसलिये, न्यायालय ने माना कि सबसे उचित आदेश यह है कि प्रत्येक पक्ष अपनी लागत स्वयं वहन करे।

निष्कर्ष 

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो एक महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रस्तुत करता है कि यदि अग्रिम राशि की जब्ती उचित है तो यह ICA की धारा 74 के अंतर्गत नहीं आएगी।