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सिविल कानून

मेसर्स राजश्री शुगर्स एंड केमिकल्स बनाम मेसर्स एक्सिस बैंक लिमिटेड (2019)

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 15-Nov-2024

परिचय

  • यह व्युत्पन्न संविदाओं की वैधता से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।
  • यह निर्णय न्यायमूर्ति वी. रामसुब्रमण्यम की एकल पीठ द्वारा दिया गया।

तथ्य

  • पक्षकार एवं पृष्ठभूमि:
    • वादी एक सूचीबद्ध कंपनी है जो चीनी बनाती और निर्यात करती है। 
    • उनके पास विदेशी ऋण (बाहरी वाणिज्यिक उधार) हैं और वे विदेशी मुद्राओं में सौदा करते हैं। 
    • प्रतिवादी यूटीआई बैंक है (जो बाद में एक्सिस बैंक बन गया)।
  • प्रारंभिक समझौता:
    • 14 मई, 2004 को दोनों पक्षकारों ने ISDA मास्टर समझौते पर हस्ताक्षर किये। 
    • यह वित्तीय व्यापार के लिये एक मानक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। 
    • इस समझौते में मुंबई उच्च न्यायालय की अधिकारिता को निर्दिष्ट करने वाली एक अनुसूची शामिल थी। 
    • वादी के मुख्य वित्तीय अधिकारी (पी.के. विश्वनाथन) को व्युत्पन्न लेनदेन को संभालने के लिये अधिकृत किया गया था।
  • विवादित लेनदेन:
    • पक्षकारों के बीच 10 सौदों में से 9 सौदे सुचारू रूप से चले।
    • यह विवाद 22 जून, 2007 के 10वें सौदे (संविदा संख्या OPT 727) से संबंधित है।
    • यह अमेरिकी डॉलर और स्विस फ़्रैंक से जुड़ा एक जटिल मुद्रा विकल्प सौदा था।
    • इस सौदे में विनिमय दरों और भुगतानों के बारे में विशिष्ट शर्तें शामिल थीं।
  • प्रमुख घटनाएँ:
    • बैंक ने 27 जून, 2007 को वादी को 100,000 अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया। 
    • दिसंबर 2007 में, वादी ने दावा किया कि संविदा समाप्त कर दी गई थी। 
    • बैंक ने असहमति जताते हुए कहा कि संविदा अभी भी वैध है। 
    • बैंक ने जोखिम कम करने के विकल्पों पर कार्य करने की पेशकश की।
  • कानूनी कार्रवाई:
    • वादी ने कई घोषणाओं की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया: 
      • संविदा को शून्य और अवैध घोषित करना।
      • यह घोषित करना कि यह RBI के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करती है।
      • इसे कंपनी की अधिकारिता से बाहर घोषित करना। 
  • उन्होंने निम्नलिखित के लिये भी व्यादेश का अनुरोध किया: 
    • बैंक को किसी भी तरह की धनराशि वसूलने से रोकें।
    • बैंक को सभी संबंधित दस्तावेज़ न्यायालय में जमा करने के लिये बाध्य करें। 
  • न्यायालयी कार्यवाही:
    • न्यायालय ने शुरू में यथापूर्व स्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था।
    • बाद में बैंक को संविदा लागू करने से रोकने के लिये इसे संशोधित किया गया।
    • बैंक ने निम्नलिखित अनुरोध करते हुए प्रति-आवेदन दायर किये:
    • वादी को संपत्ति बेचने से रोका जाए।
    • अन्य बैंकों के साथ लेन-देन पर प्रतिबंध।
    • 40 करोड़ रुपए की बैंक गारंटी।
    • विभिन्न अन्य प्रक्रियात्मक अनुरोध।
  • यह मामला मूलतः एक जटिल वित्तीय व्युत्पन्न संविदा के इर्द-गिर्द घूमता है जिसे वादी रद्द करना चाहता है, जबकि बैंक इसे लागू करना चाहता है।

शामिल मुद्दा

क्या व्युत्पन्न संविदा कानून की दृष्टि में अवैध या वैध है?

टिप्पणी 

  • बैंकिंग कानूनों के तहत व्युत्पन्न लेनदेन को 'ऋण' माना जाता है। 
  • बैंक अपने सामान्य बैंकिंग कारोबार के एक भाग के रूप में व्युत्पन्न लेनदेन को संभाल सकते हैं।
  • केवल इसलिये कि कोई चीज़ 'ऋण' है, इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति सिविल मुकदमा दायर करने से स्वतः ही वंचित हो जाएगा। लोग अभी भी कुछ सीमित परिस्थितियों में सिविल मुकदमा दायर कर सकते हैं। 
  • हालाँकि, यदि उधारकर्त्ता का मामला बैंक के दावे से निकटतापूर्वक जुड़ा हुआ है, तो मामला ऋण वसूली अधिकरण (DRT) में जाना चाहिये।
  • इस मामले में, यह केवल इसलिये अंतरित नहीं किया गया क्योंकि बैंक ने इसके लिये नहीं कहा था। 
  • उच्च न्यायालय उन न्यायालयों की कार्यवाही को नहीं रोक सकता जो उसके "अधीनस्थ" नहीं हैं। 
  • DRT को उच्च न्यायालय के अधीन नहीं माना जाता है। इसलिये उच्च न्यायालय किसी को DRT में जाने से नहीं रोक सकता। हालाँकि, उच्च न्यायालय अन्य पहलुओं पर भी मामले की सुनवाई कर सकता है। 
  • एक पंदयम् समझौते में ये सभी चार तत्त्व होने चाहिये:
    • भविष्य में होने वाली अनिश्चित घटना के बारे में दो पक्षकारों के विचार विपरीत होने चाहिये।
    • जब घटना घटित हो तो एक पक्षकार को जीतना चाहिये और दूसरे को हारना चाहिये।
    • पक्षकारों को घटना में कोई वास्तविक रुचि नहीं होनी चाहिये।
    • किसी भी पक्षकार को संविदा को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने का आशय नहीं रखना चाहिये (यह केवल सट्टेबाज़ी के लिये एक कवर होता है)।
  • इस मामले में मुख्य निष्कर्ष:
    • यहाँ व्युत्पन्न लेनदेन को सट्टेबाजी नहीं माना गया क्योंकि: 
      • इसने वास्तविक व्यावसायिक उद्देश्य (जैसे बीमा) को पूरा किया।
      • इससे कंपनी को अपने वित्तीय जोखिमों का प्रबंधन करने में सहायता मिली।
  • इस लेनदेन को वैध माना गया क्योंकि:
    • विभिन्न कानूनों और नियमों द्वारा इसकी विशेष रूप से अनुमति दी गई है। 
    • कानूनी रूप से जो अनुमति दी गई है वह सार्वजनिक नीति के विरुद्ध नहीं हो सकती।
  • महत्त्वपूर्ण सिद्धांत:
    • यदि किसी चीज़ को कानून द्वारा स्पष्ट रूप से अनुमति दी गई है, तो उसे सार्वजनिक नीति के विरुद्ध नहीं माना जा सकता।
  • इस मामले ने अनिवार्य रूप से यह स्थापित कर दिया कि व्युत्पन्न लेनदेन वैध वित्तीय साधन हैं, जब उनका उपयोग जोखिम प्रबंधन जैसे व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये किया जाता है, न कि केवल सट्टेबाजी के लिये।

निष्कर्ष

  • इस निर्णय में डेरिवेटिव संविदाओं के जटिल विषयों पर चर्चा की गई है। 
  • यह उन पहले उदाहरणों में से एक है जहाँ डेरिवेटिव संविदाओं की वैधता को चुनौती दी गई थी।