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आपराधिक कानून
के.जी. प्रेमशंकर बनाम पुलिस निरीक्षक (2002)
«23-Apr-2025
परिचय
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसमें न्यायालय ने निर्णयों की प्रासंगिकता पर निर्णयज विधि निर्धारित की है।
- यह निर्णय उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया, जिसमें न्यायमूर्ति एम.बी. शाह, न्यायमूर्ति बिशेश्वर प्रसाद सिंह एवं न्यायमूर्ति एच.के. सेमा शामिल थे।
तथ्य
- अपीलकर्त्ता ने उनके विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिये एक याचिका दायर की, जिसे केरल उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया, जिसके कारण यह अपील दायर की गई।
- मामला फरवरी 1988 में माधवन द्वारा प्रकाशित एक समाचार सामग्री से आरंभ हुआ, जिसमें एक आदिवासी लड़की के साथ बलात्संग होने की बात कही गई थी, जिसके कारण माधवन की गिरफ्तारी हुई।
- माधवन ने आरोप लगाया कि गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने उन पर हमला किया, पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध FIR दर्ज की और बाद में मजिस्ट्रेट ने उन्हें जमानत दे दी।
- जब पुलिस के विरुद्ध माधवन की शिकायत की जाँच में कोई प्रगति नहीं हुई, तो मामला अंततः उच्चतम न्यायालय द्वारा CBI को सौंप दिया गया, जिसने माधवन को 10,000 रुपये की क्षतिपूर्ति भी दिया।
- CBI ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 324, 341, 342, 357, 219 एवं 166 के अधीन विभिन्न अपराधों के लिये 12 आरोपियों (अपीलकर्त्ता सहित) के विरुद्ध आरोप दायर किए।
- अपीलकर्त्ता एवं अन्य ने तर्क दिया कि CBI की रिपोर्ट धारा 468 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अधीन परिसीमा अवधि से परे दायर की गई थी, लेकिन यह आपत्ति अंततः असफल रही।
- माधवन ने अपीलकर्त्ता के विरुद्ध हर्जाने के लिये एक सिविल वाद भी दायर किया था, जिसे आरंभ में ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था, लेकिन बाद में उच्च न्यायालय ने उस निर्णय को अलग रखा और मामले को वापस ट्रायल कोर्ट में भेज दिया।
- वर्तमान में, आपराधिक अभियोजन और हर्जाने के लिये सिविल वाद दोनों ही परीक्षण चरण में लंबित हैं।
- अपीलकर्त्ता का तर्क है कि पूर्व न्यायिक निर्णय (विशेष रूप से वी.एम. शाह बनाम महाराष्ट्र राज्य) के आधार पर, जब सिविल कोर्ट आपराधिक कार्यवाही के विपरीत निष्कर्ष निकालते हैं, तो सिविल कोर्ट के निष्कर्षों को आपराधिक न्यायालय के निष्कर्षों से ऊपर होना चाहिये।
शामिल मुद्दे
- क्या सिविल कार्यवाही का निर्णय आपराधिक कार्यवाही पर बाध्यकारी है, या इसके विपरीत?
टिप्पणी
- न्यायालय ने निर्णयों की प्रासंगिकता के संबंध में निम्नलिखित बिंदु निर्धारित किये:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 40 से लेकर 43 के अधीन दिये गए प्रावधान के अनुसार, पूर्व निर्णय जो अंतिम है, उस पर विश्वास किया जा सकता है।
- एक ही पक्षों के बीच सिविल वादों में, पूर्व न्याय का सिद्धांत लागू हो सकता है।
- आपराधिक मामले में, CrPC की धारा 300 प्रावधान करती है कि एक बार किसी व्यक्ति को दोषी ठहराए जाने या दोषमुक्त किये जाने के बाद, उस पर उसी अपराध के लिये दोबारा अभियोजन का वाद नहीं लाया जा सकता है, यदि उसमें उल्लिखित शर्तें पूरी होती हैं;
- यदि आपराधिक मामला और सिविल कार्यवाही एक ही कारण के लिये हैं, तो सिविल न्यायालय का निर्णय प्रासंगिक होगा यदि धारा 40 से 43 में से किसी की भी शर्तें पूरी होती हैं,
- लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि धारा 41 में दिये गए प्रावधान को छोड़कर यह निर्णायक होगा।
- धारा 41 प्रदान करती है कि कौन सा निर्णय उसमें प्रावधानित तथ्य का निर्णायक साक्ष्य होगा।
- न्यायालय ने कहा कि संविधान पीठ ने एम.एस. शेरिफ बनाम मद्रास राज्य (1954) के मामले में माना था कि सिविल एवं आपराधिक कार्यवाही के बीच वरीयता के संबंध में कोई कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता है, तथा परस्पर विरोधी निर्णयों की संभावना कोई प्रासंगिक विचार नहीं है।
- विधि में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सजा या क्षतिपूर्ति जैसे सीमित उद्देश्यों को छोड़कर एक न्यायालय का निर्णय दूसरे पर बाध्यकारी नहीं होगा।
- इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक मामले में न्यायालय को पहले यह निर्धारित करना होगा कि क्या पूर्व निर्णय प्रासंगिक है, तथा यदि हाँ, तो उसमें तय किये गए मामलों के संबंध में यह किस सीमा तक बाध्यकारी या निर्णायक हो सकता है।
निष्कर्ष
- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि निर्णय की प्रासंगिकता IEA की धारा 40 से 43 के अधीन प्रावधानित की गई है।
- न्यायालय इस दृष्टिकोण से असहमत था कि एक न्यायालय का निर्णय दूसरे पर बाध्यकारी होगा।