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आपराधिक कानून

नंदलाल वासुदेव बडवाइक बनाम लता नंदलाल बडवाइक (2014)

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 30-Jan-2025

परिचय

  • यह DNA परीक्षण के द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के अंतर्गत वैधता की उपधारणा के खंडन से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है। 
  • यह निर्णय न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर एवं न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद की 2 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया।

तथ्य 

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता प्रतिवादी संख्या 1 (लता नंदलाल बड़वाइक) का पति है।
  • याचिकाकर्त्ता एवं प्रतिवादी के बीच विवाह 30 जून 1990 को संपन्न हुआ था।
  • पत्नी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अंतर्गत अपने एवं अपनी बेटी के लिये भरण-पोषण का दावा करते हुए भरण-पोषण के लिये आवेदन किया था।
  • पत्नी द्वारा संस्थित मामला यह है कि वह 20 जून 1996 से अपने पति के साथ रहने लगी तथा दो वर्ष तक उसके साथ रही, जब वह गर्भवती हो गई। 
  • इसके बाद उसे उसकी मां के घर भेज दिया गया, जहाँ उसने प्रतिवादी संख्या 2 अर्थात बेटी को जन्म दिया। 
  • पति (याचिकाकर्त्ता) ने इस आधार पर दावे का विरोध किया कि पत्नी का यह दावा कि वह उसके साथ रहती है, मिथ्या है।
  • इसके अतिरिक्त, उन्होंने इस तथ्य से भी इनकार किया कि प्रतिवादी संख्या 2 उनकी बेटी है। पति का मामला यह था कि 1991 से उसका अपनी पत्नी के साथ कोई शारीरिक संबंध नहीं था।
  • मजिस्ट्रेट ने पत्नी की दलील स्वीकार कर ली तथा पत्नी को 900 रुपये प्रति माह एवं बेटी को 500 रुपये प्रति माह की दर से भरण-पोषण देने का आदेश दिया।
  • पुनरीक्षण में उक्त आदेश को चुनौती देने वाली याचिका विफल हो गई है तथा इन आदेशों को चुनौती देने वाली CrPC की धारा 482 के अंतर्गत याचिका भी विफल हो गई है।
  • याचिकाकर्त्ता ने बच्चे को DNA टेस्ट के लिये रेफर करने के लिये भी आवेदन किया था जिसे अस्वीकार कर दिया गया।
  • इन्हीं आदेशों के विरुद्ध याचिकाकर्त्ता ने यह विशेष अनुमति याचिका संस्थित की है। 

शामिल मुद्दे  

  • क्या वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर पत्नी एवं बच्चा CrPC की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण पाने के अधिकारी हैं?

टिप्पणी  

  • न्यायालय ने कहा कि भबानी प्रसाद जेना बनाम उड़ीसा राज्य महिला आयोग (2010) के मामले में न्यायालय ने माना था कि:
    • जब किसी व्यक्ति के निजता के अधिकार और बलात मेडिकल जाँच के लिये प्रस्तुत न होने तथा सत्य तक की यात्रा के लिये न्यायालय के कर्त्तव्य के बीच स्पष्ट टकराव हो, तो न्यायालय को पक्षों के हितों को संतुलित करने तथा इस तथ्य पर उचित विचार करने के बाद ही अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिये कि मामले में न्यायोचित निर्णय के लिये DNA परीक्षण की आवश्यकता है या नहीं। 
    • DNA परीक्षण नियमित रूप से या नियमित रूप से नहीं होना चाहिये। 
    • न्यायालय को यह विचार करना होगा कि क्या ऐसे परीक्षण के बिना सत्य तक की यात्रा संभव है।
  • न्यायालय ने सबसे पहले इस तथ्य पर चर्चा की कि DNA परीक्षण क्या होगा:
    • सभी जीवित प्राणी कोशिकाओं से बने होते हैं जो जीवन की सबसे छोटी और मूलभूत इकाई है। 
    • DNA (डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड), जो जीवित प्राणियों की कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाया जाता है, एक व्यक्ति का सूक्ष्म रूप है। 
    • यह देखते हुए कि पृथ्वी की आबादी लगभग 5 बिलियन है, इस परीक्षण का सटीक परिणाम होगा।
  • न्यायालय ने कामता देवी बनाम पोशी राम (2001) के मामले में माना है कि वास्तविक DNA परीक्षण का परिणाम वैज्ञानिक रूप से सटीक होता है। 
  • न्यायालय ने आगे कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 112 वैधता की उपधारणा के बारे में बात करती है। यह प्रावधान प्रदान करता है:
    • उपर्युक्त के स्पष्ट वाचन से यह स्पष्ट है कि वैध विवाह के जारी रहने के दौरान पैदा हुआ बच्चा इस तथ्य का निर्णायक साक्ष्य होगा कि बच्चा उस पुरुष का वैध बच्चा है जिससे जन्म देने वाली महिला विवाहित है।
    • यदि उपर्युक्त शर्तें पूरी होती हैं तो यह प्रावधान बच्चे की वैधता को निर्णायक साक्ष्य बनाता है।
    • इसे केवल तभी अस्वीकार किया जा सकता है जब यह दिखाया जाए कि विवाह के पक्षकारों की उस समय एक-दूसरे से ऐसे मिलना नहीं था जब बच्चा पैदा किया जा सकता था।
  • यह ध्यान देने योग्य है कि वर्तमान तथ्यों में पति ने दलील दी कि उसकी पत्नी से कोई ऐसा संबंध नहीं था जबकि पत्नी ने इससे इनकार किया। हालांकि, अधीनस्थ न्यायालयों ने पति की इस दलील के संबंध में कोई निष्कर्ष नहीं दिया कि बच्चे के जन्म के समय उसकी पत्नी से कोई ऐसा संबंध था या नहीं।
  • न्यायालय ने DNA परीक्षण और IEA की धारा 112 के संबंध में निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • यद्यपि धारा 112 में उल्लिखित शर्तों की संतुष्टि पर निर्णायक प्रमाण की उपधारणा को उठाया गया है, लेकिन यह खंडनीय है। 
    • न्याय का हित में सत्य की खोज करना से सबसे अच्छा होता है और न्यायालय को सर्वोत्तम उपलब्ध विज्ञान से लैस किया जाना चाहिये तथा उसे उपधारणाओं पर निर्भर नहीं होना चाहिये, जब तक कि विज्ञान के पास मुद्दे के तथ्यों का कोई उत्तर न हो। 
    • जब विधि के अंतर्गत परिकल्पित निर्णायक प्रमाण एवं विश्व समुदाय द्वारा सही माने जाने वाले वैज्ञानिक उन्नति पर आधारित प्रमाण के बीच संघर्ष होता है, तो बाद वाले को पहले वाले पर हावी होना चाहिये।
  • पति की यह दलील कि बच्चे के जन्म के समय उसकी पत्नी से कोई संपर्क नहीं था, DNA परीक्षण रिपोर्ट से सिद्ध हो जाती है और इसके बावजूद, न्यायालय अपीलकर्त्ता को बच्चे का पिता बनने के लिये बाध्य नहीं कर सकता, जबकि वैज्ञानिक रिपोर्ट इसके विपरीत सिद्ध करती है। 
  • न्यायालय ने आगे कहा कि वर्तमान मामला अलग है, क्योंकि वर्तमान मामले में न्यायालय के सामने ऐसी स्थिति थी, जिसमें DNA परीक्षण रिपोर्ट वास्तव में उपलब्ध थी तथा यह IEA की धारा 112 के अंतर्गत बच्चे की वैधता के निर्णायक साक्ष्य की उपधारणा के साथ विरोधाभास में थी। 
  • इस प्रकार, अपील को अनुमति दी गई तथा बच्चे को भरण-पोषण के भुगतान के निर्देश देने वाले निर्णय को रद्द कर दिया गया।

निष्कर्ष 

यह ऐतिहासिक निर्णय है जो DNA परीक्षण के माध्यम से IEA की धारा 112 के अंतर्गत अनुमान के खंडन की चर्चा करता है।