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आपराधिक कानून

सहदेवन बनाम तमिलनाडु राज्य (2012)

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 07-Feb-2025

परिचय

यह न्यायेतर संस्वीकृति के साक्ष्य मूल्य से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है। 

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार एवं न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक की दो सदस्यीय पीठ द्वारा दिया गया।

तथ्य 

  • श्रीमती कमला (PW-2) का विवाह मृतक योगनंदन उर्फ ​​लोगनाथन से हुआ था। 
  • कमला के भाई, आरोपी संख्या 1, चंद्रन का मानना ​​था कि लोगनाथन की हत्या करने से उसकी बहन का जीवन बेहतर हो जाएगा, क्योंकि उसका पति उसके साथ बुरा व्यवहार कर रहा था। 
  • चंद्रन ने आरोपी संख्या 2, सहदेवन एवं आरोपी संख्या 3, अरुल मुरुगन के साथ मिलकर लोगनाथन की हत्या का षड्यंत्र रचा। 
  • 9 जुलाई 2002 को रात करीब 10 बजे, PW-5, करुप्पुस्वामी ने आरोपी संख्या 2, सहदेवन को दो पीछे बैठे लोगों के साथ TVS मोपेड चलाते हुए देखा।
  • बाद में, लगभग 2 बजे, PW-4 ने लोगनाथन और आरोपी संख्या 1 को मोपेड पर उसी दिशा में जाते देखा, जिसके बाद आरोपी संख्या 2 अकेले वापस आ गया। 
  • 10 जुलाई 2002 को, लगभग 8:30 बजे, PW-3, राजेंद्रन ने पोम्मानयाक्कनपल्लम रोड पर एक शव देखा तथा प्रशासनिक अधिकारी PW-1 को सूचित किया, जिसने फिर पेरुमनल्लूर पुलिस स्टेशन को इसकी सूचना दी। 
  • पुलिस ने अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध IPC की धारा 302 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की। 
  • विवेचना अधिकारी (PW-9) ने घटनास्थल का दौरा किया, एक अवलोकन महाजर (एक्सटेंशन P-2) तैयार किया, और शव की तस्वीरें लीं।
  • 14 जुलाई 2002 को तीनों आरोपी PW-6, मुथुराथिनम के पास गए तथा गला घोंटकर और केरोसिन डालकर उसके शव को आग लगाकर लोगनाथन की हत्या करने की संस्वीकृति की। 
  • ​​PW-6 ने अपना संस्वीकृति दिया तथा आरोपियों के साथ पुलिस को सौंप दिया। 
  • आरोपियों के संस्वीकृति के आधार पर पुलिस ने TVS मोपेड, केरोसिन की गंध वाली एक बोतल (MO-7) एवं एक माचिस (MO-8) बरामद की। 
  • इन वस्तुओं को फोरेंसिक जाँच के लिये भेजा गया। PW-9 एवं PW-10 ने जाँच पूरी की तथा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 120B एवं 302 के अधीन आरोप पत्र दायर किया। 
  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के अधीन अपने अभिकथन के दौरान, आरोपियों ने संलिप्तता और कथित न्यायेतर संस्वीकृति से मना किया, लेकिन कोई बचाव प्रस्तुत नहीं किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने उन्हें IPC की धारा 120B के अधीन षड्यंत्र  के आरोप से दोषमुक्त कर दिया, लेकिन IPC की धारा 302 के अधीन उन्हें दोषी ठहराया, उन्हें आजीवन कारावास एवं 5,000 रुपये का जुर्माना लगाया, साथ ही चूक की स्थिति में छह महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। 
  • आरोपियों ने उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने 27 सितंबर 2006 को उनकी अपील खारिज कर दी। 
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट आरोपियों ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।

शामिल मुद्दे  

  • क्या परिस्थितिजन्य साक्ष्य अर्थात न्यायिक संस्वीकृति के आधार पर अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत हत्या के अपराध के लिये उत्तरदायी है?

टिप्पणी  

  • वर्तमान तथ्यों में कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं था, इसलिये पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर टिका हुआ था। 
  • न्यायेतर संस्वीकृति के संबंध में न्यायालय ने कहा:
    • न्यायालय को न्यायेतर संस्वीकृति की अधिक सावधानी एवं सतर्कता से जाँच करनी होगी। 
    • आपराधिक न्यायशास्त्र का यह स्थापित सिद्धांत है कि न्यायेतर संस्वीकृति एक कमजोर साक्ष्य है।
  • न्यायालय ने न्यायेतर संस्वीकृति पर निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किये:
    • न्यायेतर संस्वीकृति स्वयं में एक कमज़ोर साक्ष्य है। न्यायालय को इसकी अधिक सावधानी एवं सतर्कता से जाँच करनी चाहिये। 
    • इसे स्वेच्छा से किया जाना चाहिये और सत्य होना चाहिये। iii) इससे विश्वास का भाव उत्पन्न होना चाहिये। 
    • यदि न्यायेतर संस्वीकृति को ठोस परिस्थितियों की एक श्रृंखला द्वारा समर्थित किया जाता है तथा अभियोजन पक्ष के अन्य साक्ष्यों द्वारा इसकी पुष्टि की जाती है, तो यह अधिक विश्वसनीयता एवं साक्ष्य मूल्य प्राप्त करता है।
    • किसी न्यायेतर संस्वीकृति को दोषसिद्धि का आधार बनाने के लिये, उसमें कोई भौतिक विसंगतियाँ और अंतर्निहित असंभवताएँ नहीं होनी चाहिये। 
    • ऐसे कथन को अनिवार्य रूप से किसी अन्य तथ्य की तरह और विधि के अनुरूप सिद्ध किया जाना चाहिये।
  • इस मामले में अभियोजन पक्ष ने अपने मामले को समर्थन देने के लिये अंतिम बार देखे जाने के सिद्धांत पर भी विश्वास किया। 
  • न्यायालय ने माना कि यह अच्छी तरह से स्थापित है कि अंतिम बार देखे जाने (लास्ट सीन थ्योरी) की एकमात्र परिस्थिति परिस्थितियों की श्रृंखला को पूरा नहीं करेगी, जिससे यह निष्कर्ष दर्ज किया जा सके कि यह केवल अभियुक्त के अपराध की परिकल्पना के अनुरूप है तथा इसलिये, केवल इस आधार पर कोई दोषसिद्धि स्थापित नहीं की जा सकती। 
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य ऐसे नहीं हैं जो केवल अभियुक्त के अपराध की ओर इशारा करते हैं। 
  • इसलिये, न्यायालय ने इस मामले में अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया।

निष्कर्ष 

  • अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति परिस्थितिजन्य साक्ष्यों में से एक है जो परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की श्रृंखला में स्थान रखता है। 
  • यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति पर सिद्धांतों को अभिनिर्धारित करता है।