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आपराधिक कानून
श्रीमती लक्ष्मी बनाम ओम प्रकाश एवं अन्य (2001)
«19-Dec-2024
परिचय
- यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें एक से अधिक मृत्युकालिक कथनों के मामले में मृत्युकालिक कथनों के साक्ष्यिक मूल्य पर चर्चा की गई है।
- यह निर्णय न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी और न्यायमूर्ति दोरईस्वामी राजू की दो न्यायाधीशों की पीठ ने सुनाया।
तथ्य
- इस मामले में मृतका (जनक कुमारी) की 7 मार्च, 1982 को चोटें आने के बाद 8 मार्च, 1982 को अप्राकृतिक मृत्यु हो गई।
- घटना से छह वर्ष पहले उसका विवाह हुआ था और उसकी एक पाँच वर्ष की बेटी भी थी।
- मृतका ने 14 नवंबर, 1980 को अभियुक्त व्यक्तियों (पति, पति की माँ और पति की बहन) के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 385 और दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम (DPA) की धारा 4 के तहत शिकायत दर्ज कराई थी।
- 7 मार्च, 1982 को प्रातः लगभग 7:20 बजे अभियुक्त ओम प्रकाश ने पुलिस नियंत्रण कक्ष को सूचना दी कि उसकी पत्नी जनक कुमारी ने मिट्टी का तेल डालकर खुद को आग लगा ली है।
- उपनिरीक्षक बद्री नाथ (PW 19) ने PCR वैन को घटनास्थल पर भेजा तथा थाना पहाड़गंज, पुलिस स्टेशन को सूचित किया, जहाँ घटना को प्रदर्श PW14/E के रूप में रोजनामचा में दर्ज किया गया।
- उपनिरीक्षक रमेश चंद गर्ग (PW 21) को आवश्यक कार्रवाई के लिये नियुक्त किया गया और ASI शिवचरण (PW 5) PCR वैन के साथ अभियुक्त के घर पहुँचे।
- मृत्युकालिक कथन:
- पहला कथन: जनक कुमारी द्वारा अस्पताल जाते समय ASI शिवचरण (PW 5) को दी गई।
- दूसरा कथन: अस्पताल में डॉ. सी.एम. खानिजाऊ (PW 9) को दिया गया और प्रदर्श PW 9/A के रूप में दर्ज किया गया।
- तीसरा कथन: उप निरीक्षक रमेश चंद गर्ग (PW 21) द्वारा सुबह 9:00 से 10:00 बजे के बीच प्रदर्श PW 21/A के रूप में दर्ज किया गया।
- चौथा कथन: उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (PW 16) अजीत श्रीवास्तव द्वारा दोपहर 1:30 से 1:45 बजे के बीच प्रदर्श PW 16/A के रूप में दर्ज किया गया।
- पाँचवाँ कथन: शाम करीब 5:30 बजे उसके भाई किशन लाल (PW 3) को दिया गया।
- अभियुक्तों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 302 एवं धारा 34 के तहत आरोप तय किये गए थे, लेकिन उन्होंने स्वयं को निर्दोष बताया।
- 31 जनवरी, 1985 को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा अभियुक्तों को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया।
- यद्यपि राज्य सरकार ने बरी किये जाने के विरुद्ध अपील दायर नहीं की, तथापि भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका दायर की गई।
शामिल मुद्दा
- क्या अभियुक्तों को मृत्युकालिक कथनों और रिकार्ड में मौजूद अन्य साक्ष्यों के आधार पर दोषी ठहराया जाना चाहिये?
टिप्पणी
- मृत्युकालिक कथन के पीछे सिद्धांत:
- मृत्युकालिक कथन का सिद्धांत इस कहावत पर आधारित है कि 'नीमो मोरिटुरस प्रेसुमितुर मेंटायर' (nemo moriturus praesumitur mentire) का अर्थ है कि कोई व्यक्ति झूठ बोलकर अपने निर्माता से नहीं मिलेगा।
- कुंदुला बाला सुब्रह्मण्यम बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) के मामले में न्यायालय ने माना कि यदि न्यायालय संतुष्ट है कि मृत्युकालिक कथन सत्य है और उसमें कोई जोड़-तोड़ नहीं है, तो ऐसा मृत्युकालिक कथन किसी पुष्टिकरण की अपेक्षा किये बिना भी दोषसिद्धि दर्ज करने के लिये पर्याप्त हो सकता है।
- मृत्युकालिक कथन की स्वीकार्यता आवश्यकता के सिद्धांत पर आधारित है।
- यदि मृत्युकालिक कथन कमजोरियों से ग्रस्त है तो न्यायालय, नियम के अनुसार, पुष्टि के लिये साक्ष्य की अपेक्षा कर सकता है और यदि कमजोरियाँ न्यायालय की अंतरात्मा को चोट पहुँचाती हैं तो न्यायालय उसे दोषसिद्धि के आधार के रूप में स्वीकार करने से इंकार कर सकता है।
- मृत्युकालिक कथन का मूल्यांकन:
- मृतका के शव का पोस्टमार्टम करने वाले एसोसिएट प्रोफेसर ने गवाही में बताया कि जनक कुमारी का शरीर 85 प्रतिशत तक जल गया था।
- पहला मृत्युकालिक कथन:
- PW5 शिव चरण, ASI ने दावा किया कि पीड़िता जनक कुमारी ने अपने पति, सास और ननद पर उसे जलाने का आरोप लगाया था, लेकिन उन्होंने यह सूचना PCR वैन रोज़नामचा में दर्ज नहीं की और न ही पुलिस नियंत्रण कक्ष को सूचित किया, जिससे उनकी गवाही की प्रामाणिकता पर संदेह उत्पन्न हो गया।
- शिवचरण ने जिरह के दौरान स्वीकार किया कि जब पीड़िता का बयान दर्ज किया गया तो उसने जाँच अधिकारी को उसके कथित बयान के बारे में सूचित नहीं किया, जिससे उसकी विश्वसनीयता और कम हो गई।
- अभियुक्त को फँसाने वाले कथित मृत्युकालिक कथन की पुष्टि अन्य साक्ष्यों से नहीं हुई थी या रुक्का (घटना रिपोर्ट) में दर्ज नहीं थी। नतीजतन, न्यायालय ने पहले मृत्युकालिक कथन को अविश्वसनीय माना और उसे खारिज कर दिया।
- दूसरा मृत्युकालिक कथन:
- न्यायालय ने कहा कि इस तरह के कथन को मृत्युकालिक कथन कहना गलत होगा।
- डॉ. सी.एन. खानिजाऊ ने पीड़िता जनक कुमारी से कोई प्रत्यक्ष बयान या मृत्युकालिक कथन प्राप्त या दर्ज नहीं किया।
- यह दावा कि जनक कुमारी को आग लगाने से पहले रस्सी से गला घोंटकर मार दिया गया था, भ्रामक प्रतीत होता है, क्योंकि डॉ. बी.एन. रेड्डी द्वारा किये गए शव परीक्षण के दौरान गला घोंटने से संबंधित कोई पुष्टिकारी साक्ष्य या निशान नहीं पाए गए।
- तीसरा मृत्युकालिक कथन:
- रमेश चंद, उपनिरीक्षक ने जनक कुमारी का एक विस्तृत बयान (प्रदर्श PW21/A) दर्ज किया, जिस पर कथित रूप से उनके हस्ताक्षर थे, जबकि बयान के समय उनकी शारीरिक और मानसिक स्वस्थता की पुष्टि करने के लिये किसी डॉक्टर से कोई स्वतंत्र सत्यापन नहीं कराया गया था।
- चिकित्सा साक्ष्य से पता चला कि जनक कुमारी के शरीर पर 85 प्रतिशत गहरी जलन थी, जिसमें उसकी गर्दन, मुँह, होंठ और हाथ शामिल थे, जिससे यह अत्यधिक संदिग्ध हो गया कि वह भारी बेहोशी की हालत में और बिगड़ती हालत में विस्तृत बयान दे पाएगी या हस्ताक्षर कर पाएगी।
- रमेश चंद ने स्वीकार किया कि पड़ोसियों और घटनास्थल पर मौजूद लोगों ने अभियुक्त को दोषी नहीं ठहराया, तथा किसी भी स्वतंत्र गवाह ने इस दावे का समर्थन नहीं किया कि जनक कुमारी को उसके पति, सास या ननद ने आग लगाई थी।
- इस प्रकार, यह मृत्युकालिक कथन भी अस्वीकृत कर दिया गया।
- चौथा मृत्युकालिक कथन:
- अजीत श्रीवास्तव (प्रदर्श PW16/A) द्वारा दर्ज किया गया मृत्युकालिक कथन विस्तृत और वर्णनात्मक था, जो उपनिरीक्षक रमेश चंद द्वारा दर्ज किये गए पहले बयान के समान था।
- इसमें पीड़िता का यह दावा भी शामिल था कि बयान पूरी तरह होश में दिया गया था, लेकिन इसमें उसकी मानसिक या शारीरिक स्थिति की पुष्टि करने वाले किसी भी चिकित्सा पेशेवर का समर्थन नहीं था।
- न्यायालय ने इस बात पर गंभीर संदेह व्यक्त किया कि क्या जनक कुमारी कोई बयान देने या हस्ताक्षर करने के लिये स्वस्थ स्थिति में थी, विशेषकर तब जब दिन भर उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी।
- पाँचवाँ मृत्युकालिक कथन:
- मृतका जनक कुमारी के भाई किशन लाल ने दावा किया कि घटना की जानकारी मिलने के बाद वे शाम करीब साढ़े पाँच या छह बजे अस्पताल पहुँचे।
- किशन लाल ने स्वीकार किया कि जनक कुमारी ने कथित तौर पर उन्हें जो कुछ बताया था, उसके बारे में उन्होंने पुलिस से संपर्क नहीं किया या उन्हें सूचित नहीं किया, जबकि उनके लिये ऐसा करना स्वाभाविक होता।
- न्यायालय ने पाया कि किशन लाल द्वारा घटना की सूचना पुलिस को न देना उसकी विश्वसनीयता तथा कथित मृत्युकालिक कथन के संबंध में उसकी गवाही की विश्वसनीयता के लिये हानिकारक था।
- न्यायालय ने इस बात पर गंभीर संदेह व्यक्त किया कि क्या जनक कुमारी अपनी बिगड़ती सेहत को देखते हुए शाम 5:30 या 6:00 बजे किशन लाल से बात करने या बयान देने की शारीरिक स्थिति में थी।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि मामले से जुड़े तथ्यों और परिस्थितियों के कारण पाँचों मृत्युकालिक कथनों में से कोई भी विश्वसनीय नहीं है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया और दोषमुक्ति के निर्णय को बरकरार रखा।
निष्कर्ष
- यह उच्चतम न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें एक से अधिक मृत्युकालिक कथनों के मामले में मृत्युकालिक कथनों के साक्ष्यिक मूल्य पर चर्चा की गई है।
- न्यायालय ने इस सुस्थापित नियम को दोहराया कि यह साबित किया जाना चाहिये कि मृत्युकालिक कथन देने वाले व्यक्ति ने यह बयान तब दिया था जब वह मानसिक रूप से स्वस्थ था।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि एक बार जब मृत्युकालिक कथन न्यायालयों की सावधानीपूर्वक जाँच से गुज़र जाता है तो यह एक महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय साक्ष्य बन जाता है।