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आपराधिक कानून
एस वर्धराजन बनाम मद्रास राज्य एआईआर 1965 एससी 942
« »05-Oct-2023
परिचय-
यह नाबालिग के अपहरण का एक ऐतिहासिक मामला है जहाँ न्यायालय ने 'ले जाने (taking away)' और नाबालिग को साथ ले जाने की अनुमति देने का अर्थ परिभाषित किया।
तथ्य
- वर्ष 1960 में एस. नटराजन नाम का एक व्यक्ति अपनी पत्नी और दो बेटियों, रमा और सावित्री के साथ नुंगमबक्कम में निवासरत था।
- सितंबर, 1960 से कुछ माह पूर्व सावित्री की वर्धराजन (अपीलकर्त्ता) नाम के एक लड़के से दोस्ती हो गई, जो उनके घर के बगल वाले घर में रहता था।
- सावित्री और वर्धराजन अपने घरों से एक-दूसरे से बात करते थे।
- 30 सितंबर, 1960 को सुबह करीब 9 बजे रमा ने उन्हें आपस में बातें करते देखा, उसने पहले भी उन्हें बातचीत करते हुए देखा था।
- ऐसा करते हुए देख उसने सावित्री से पूछा कि, वह वर्धराजन से क्यों बात कर रही थी? जिसके जवाब में सावित्री ने उससे कहा कि वह वर्धराजन से शादी करना चाहती है।
- रमा ने अपने पिता को सावित्री के आशय के बारे में बताया, वह उनके रिश्ते से पूरी तरह असहमत था।
- उसी दिन, नटराजन सावित्री को कोडंबक्कम ले गया और जितना संभव हुआ, उसने उसे वर्धराजन से दूर रखने के लिये उसे एक रिश्तेदार के घर पर छोड़ दिया।
- अगले दिन सुबह करीब 10:00 बजे सावित्री अपने रिश्तेदार के घर से निकल गई तथा उसने वर्धराजन को फोन किया और उसे उस इलाके की एक निश्चित सड़क पर मिलने के लिये कहा। वह स्वयं भी उस सड़क पर आ गई।
- जब वह पहुँची तो वर्धराजन पहले से ही अपनी कार में मौज़ूद था। वह कार में बैठ गई और वे दोनों एक दोस्त को अपने विवाह का गवाह बनाने के लिये रजिस्ट्रार कार्यालय में बुलाने के आशय से उस दोस्त के घर गए।
- हालाँकि, वे अपने विवाह का पंजीकरण नहीं करा सके। वे एक साथ ऐसे रहने लगे जैसे कि वे पति-पत्नी हों।
- उन्होंने कोयंबटूर और फिर तंजौर की यात्रा की।
- तंजौर में, पुलिस ने उन्हें सावित्री के पिता की शिकायत की जाँच करते समय पकड़ लिया, जिन्होंने वर्धराजन पर उसके अपहरण का आरोप लगाया था।
- उच्च न्यायालय ने मामले के भौतिक तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् अपीलकर्त्ता को अपहरण का दोषी ठहराया और उसे एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी।
- अभियुक्त ने भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 के तहत एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
शामिल मुद्दे
- क्या कोई नाबालिग अपनी पसंद से विधिपूर्ण संरक्षकता छोड़ सकता है?
- इस मामले में ले जाने या फुसलाने की बात साबित हुई है या नहीं?
टिप्पणी
- न्यायालय ने कहा कि यह ध्यान में रखना चाहिये कि किसी नाबालिग को "ले जाना" और उसे किसी व्यक्ति के साथ जाने की अनुमति देने के बीच अंतर होता है।
- ऐसे मामलों में जहाँ नाबालिग को कथित तौर पर आरोपी व्यक्ति द्वारा ले जाया गया था, उसने यह जानते हुए और यह जानने की क्षमता रखते हुए कि वह क्या कर रही थी, स्वेच्छा से आरोपी व्यक्ति के साथ शामिल होती है, अपने पिता का संरक्षण त्याग देती है।
- ऐसे मामले में न्यायालय को नहीं लगता कि आरोपी के बारे में यह कहा जा सकता है कि उसने उसे उसके वैध अभिभावक के संरक्षण से अधिग्रहीत कर लिया है।
- इस तरह के मामले में कुछ और दिखाया जाना है और वह है आरोपी व्यक्ति द्वारा दिया गया किसी प्रकार का प्रलोभन या नाबालिग के अभिभावक का घर छोड़ने का आशय उत्पन्न करने में उसकी सक्रिय भागीदारी।
- न्यायालय की राय में आरोपी ने उसे अपने साथ एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर उसके अभिभावक के घर वापस न लौटने में उसकी सहायता की।
- निस्संदेह, आरोपी द्वारा निभाई गई भूमिका को लड़की के आशय को पूरा करने में सहायता करने वाला माना जा सकता है। न्यायालय की राय में, वह हिस्सा नाबालिग को उसके कानूनी अभिभावक के संरक्षण से बाहर निकलने के लिये प्रेरित करने से कम है और इसलिये वह "लेने" के समान नहीं है।
निष्कर्ष
- उच्चतम न्यायालय की उपरोक्त टिप्पणियों से यह स्पष्ट है कि यदि आरोपी ने किसी भी स्तर पर कोई भूमिका निभाई, जिसके द्वारा उसने नाबालिग को कानूनी संरक्षकता का परित्याग करने के लिये आग्रह किया या राजी किया, तो ऐसा व्यक्ति अपहरण का दोषी ठहराने के लिये पर्याप्त होगा।
- इस निष्कर्ष के आधार पर कि नाबालिग सावित्री, आरोपी के किसी भी प्रलोभन के बिना अपने अभिभावक के घर से बाहर चली गई, उच्चतम न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस मामले में आरोपी अपराध का दोषी नहीं था।
- न्यायालय ने माना कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध IPC की धारा 363 के तहत कोई अपराध स्थापित नहीं किया गया है और इसलिये वह बरी होने का हकदार है।
नोट:
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 361- विधिपूर्ण संरक्षकता से अपहरण
जो कोई सोलह वर्ष से कम आयु के किसी नाबालिग, यदि वह पुरुष है या अठारह वर्ष से कम आयु का यदि एक महिला है या किसी विकृत मानसिकता वाले व्यक्ति को ऐसे नाबालिग, या विकृत मानसिता वाले व्यक्ति को विधिपूर्ण संरक्षकता की देखरेख से बाहर ले जाता है या फुसलाता है। संरक्षक की सहमति के बिना ऐसे नाबालिग या व्यक्ति को विधिपूर्ण संरक्षकता से बाहर ले जाना अपहरण कहलाता है।
स्पष्टीकरण —इस धारा में "विधिपूर्ण संरक्षक" शब्द में कोई भी व्यक्ति शामिल है जिसे कानूनी तौर पर ऐसे नाबालिग या अन्य व्यक्ति की देखभाल या हिरासत का कार्य सौंपा गया है।
स्पष्टीकरण —यह धारा किसी ऐसे व्यक्ति के कार्य पर लागू नहीं होती है जो सद्भावनापूर्वक स्वयं को एक नाजायज बच्चे का पिता मानता है, या जो सद्भावनापूर्वक स्वयं को ऐसे बच्चे की विधिपूर्ण संरक्षकता का हकदार मानता है, जब तक कि ऐसा कार्य अनैतिक या गैरकानूनी उद्देश्य के लिये नहीं किया जाता है।
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 363- अपहरण के लिये सजा
जो कोई भी भारत से या विधिपूर्ण संरक्षकता से किसी भी व्यक्ति का अपहरण करेगा, उसे किसी निश्चित अवधि के लिये कारावास की सजा दी जाएगी जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
- न्यायमूर्ति गजेंद्रगडकर (तब वह थे) ने राज्य बनाम हरबनसिंह कियानसिंह (वर्ष 1954) मामले में उक्त टिप्पणी की है।
"ऐसा हो सकता है कि जिस शरारत को दंडित करने का आशय है, उसमें आंशिक रूप से अपने बच्चों को अपनी देखभाल और संरक्षण में रखने के अभिभावकों के अधिकार का उल्लंघन शामिल है; लेकिन इन प्रावधानों का अधिक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य निस्संदेह रक्षकों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करना है।"