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आपराधिक कानून

कविता चंद्रकांत लखानी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2018)

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 04-Oct-2024

परिचय

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो यह निर्धारित करता है कि केवल अपहरण से अपराधी भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 366 के दायरे में नहीं आता है।

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी एवं न्यायमूर्ति आर.के. अग्रवाल की 2 न्यायाधीशों वाली पीठ ने दिया।

तथ्य

  • अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी संख्या 2 के विरुद्ध एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की थी।
  • FIR में कहा गया था कि अपीलकर्त्ता अपने दोस्तों के साथ जन्मदिन की पार्टी में थी।
  • पार्टी खत्म होने के बाद, प्रतिवादी संख्या 2, अपीलकर्त्ता को डिनर के लिये कार्यक्रम स्थल पर छोड़ने के बहाने, जिसके साथ वह पहले रिलेशनशिप में थी, उसे मुंबई के कफ परेड में अपने घर ले गया।
  • अपीलकर्त्ता ने कार से बाहर आने से मना कर दिया तथा प्रतिवादी संख्या 2 ने उसे बलात उठा लिया तथा अपने घर ले जाकर बिस्तर पर लिटा दिया।
  • प्रतिवादी नंबर 2 ने उसके सारे कपड़े उतार दिए तथा अपनी कमर की बेल्ट से उसे पीटना शुरू कर दिया और उसकी शील भंग करने के लिये उसके निजी अंगों को अनुचित तरीके से छूना प्रारंभ कर दिया।
  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC ) की धारा 363, 342,324,354,323 एवं 506 (भाग II) के अधीन अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र दायर किया गया।
  • प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा एक डिस्चार्ज आवेदन प्रस्तुत किया गया जिसमें कहा गया कि IPC की धारा 363 के अधीन कोई अपराध नहीं बनता है।

अधीनस्थ न्यायालयों में मामले की प्रक्रिया

  • 10.2006 को संबंधित ACMM ने डिस्चार्ज आवेदन को खारिज कर दिया तथा मामले को सत्र न्यायालय को सौंप दिया।
  • उपर्युक्त निर्णय से असंतुष्ट होकर प्रतिवादी संख्या 2 ने सत्र न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण आवेदन प्रस्तुत किया। (1261/2006)
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने भी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366 के अधीन डिस्चार्ज के लिये तथा मामले को अधीनस्थ न्यायालय में वापस भेजने के लिये आवेदन दायर किया। (244/2007)
  • 04.2007 को सत्र न्यायालय ने आवेदन 244/2007 को खारिज कर दिया।
  • दिनांक 03.10.2006 के आदेश एवं दिनांक 10.04.2007 के आदेश से व्यथित होकर प्रतिवादी संख्या 2 ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक आवेदन प्रस्तुत किया।
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने हालाँकि इसे इस अनुरोध के साथ वापस ले लिया कि आवेदन संख्या 1261/2006 के निपटान तक अभियोजन का वाद आगे नहीं बढ़ना चाहिये ।
  • उच्च न्यायालय ने कार्यवाही पर रोक लगा दी।
  • 07.2007 को संबंधित अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 03.10.2006 के आदेश को रद्द कर दिया तथा प्रतिवादी संख्या 2 को न केवल IPC की धारा 366 के अधीन अपराध के संबंध में बल्कि IPC  की धारा 363 एवं 506 (ii) के अधीन भी आरोपमुक्त कर दिया।
  • दिनांक 04.07.2007 के आदेश के विरुद्ध रिट याचिका दायर की गई थी तथा इसे दिनांक 06.05.2013 के आदेश द्वारा खारिज कर दिया गया था।
  • दिनांक 06.05.2013 के निर्णय से असंतुष्ट होकर अपीलकर्त्ता ने इस न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत की।

शामिल मुद्दे  

  • क्या वर्तमान तथ्यों के आधार पर अपीलकर्त्ता ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366 के अंतर्गत मामला संस्थित किया है?

टिप्पणी

  • IPC की धारा 366 में किसी महिला का व्यपहरण, अपहरण या उसे विवाह के लिये विवश करने आदि से संबंधित अपराध के विषय में प्रावधान है।
  • अपहरण का अपराध गठित करने के लिये किसी व्यक्ति को बलपूर्वक या धोखे से अवैध रूप से ले जाया जाना चाहिये, अर्थात किसी व्यक्ति को बलपूर्वक या धोखे से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिये विवश करना।
  • इस प्रकार, अभियुक्त का आशय अपराध का मुख्य बिंदु है।
  • एक बार जब अभियुक्त का आशय सफल हो जाता है तो अपराध पूरा हो जाता है, चाहे अभियुक्त अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल हो या नहीं तथा चाहे महिला ने विवाह या अवैध संभोग के लिये सहमति दी हो या नहीं।
  • केवल अपहरण से अभियुक्त इस प्रावधान के दायरे में नहीं आता।
    • अभियोजन पक्ष के लिये यह सिद्ध करना आवश्यक है कि अभियुक्त ने महिला को बहकाया तथा ऐसा बहकावा छल से किया गया था।
    • साथ ही, ऐसा अपहरण इस आशय से हुआ था कि शिकायतकर्त्ता को अवैध संभोग के लिये बहकाया जा सकता है या अभियुक्त को यह पता था कि शिकायतकर्त्ता को उसके अपहरण के परिणामस्वरूप अवैध संभोग के लिये बहकाया जा सकता है।
  • जब तक यह आशय सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक किसी व्यक्ति को IPC की धारा 366 के अधीन उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।
  • उपरोक्त विधि निम्नलिखित तथ्यों पर लागू किया गया:
    • प्रतिवादी संख्या 2 को बाहर निकालने की घटना को चौकीदार ने देखा था, इसलिये आरोप इस पहलू तक सीमित हैं कि प्रतिवादी संख्या 2 को बलात अपने घर ले जाया गया था।
    • हालाँकि, कपड़े उतारने एवं उसे अनुचित तरीके से छूने के आरोप बाद में शमन किये गए।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि केवल अपहरण से अपराध धारा 366 के दायरे में नहीं आएगा।
    • इसके अतिरिक्त, यह भी देखा गया कि छेड़छाड़ के विषय में आरोप FIR दर्ज होने के एक सप्ताह बाद ही लगाए गए थे।
    • न्यायालय ने माना कि इस संबंध में विलंब का स्पष्टीकरण ठीक से नहीं दिया गया है तथा यह स्पष्टीकरण विश्वास उत्पन्न नहीं करता है।
    • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि यह सिद्ध किया जा सकता है कि अपीलकर्त्ता को बलात प्रतिवादी संख्या 2 के घर ले जाया गया था, लेकिन उसका आशय उससे विवाह करने या उसे विवश करने या बहकाने का था, यह स्पष्ट रूप से एक बाद का विचार है।
  • इस प्रकार न्यायालय ने निम्नलिखित निष्कर्ष निकाला:
    • IPC की धारा 366 के अधीन आरोप विचारण योग्य नहीं है।
    • चूंकि मामला 2003 से लंबित था, इसलिये ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया गया कि वह निर्णय दिये जाने के 6 महीने के अंदर विचारण प्रक्रिया पूरी करे।
    • इस मामले में की गई टिप्पणियाँ केवल IPC की धारा 366 की प्रयोज्यता के उद्देश्य से थीं तथा ट्रायल कोर्ट मामले का निर्णय गुण-दोष के आधार पर करेगा।

निष्कर्ष

  • यह निर्णय भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366 के अंतर्गत अपराध स्थापित करने के लिये शर्तें निर्धारित करता है।
  • यह मामला निर्णायक रूप से स्थापित करता है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366 के अंतर्गत अपराध का गठन करने के लिये केवल अपहरण ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि अभियुक्त की ओर से अपेक्षित आशय भी सिद्ध होना चाहिये ।