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आपराधिक कानून
मीठू आदि बनाम भारत संघ (1995)
«13-Jan-2025
परिचय
यह भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 303 की संवैधानिक वैधता से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।
- यह निर्णय प्रदाता पीठ में न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड, न्यायमूर्ति सैयद मुर्तजा फजलाली, न्यायमूर्ति वी.डी. तुलजापुरकर, न्यायमूर्ति ओ. चिन्नप्पा रेड्डी एवं न्यायमूर्ति ए. वरदराजन शामिल थे।
तथ्य
- यह मामला भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 303 की वैधता से संबधित है।
- IPC की धारा 303 में प्रावधान है कि "जो कोई आजीवन कारावास की सजा के अंतर्गत हत्या कारित करता है, उसे मृत्युदण्ड की सजा दी जाएगी।"
- विधि आयोग की 42वीं रिपोर्ट में कहा गया है कि "इस धारा के अंतर्गत अपराध के लिये मृत्युदण्ड की सजा को अनिवार्य प्रावधानित करने का प्राथमिक उद्देश्य जेल कर्मचारियों को सुरक्षा प्रदान करना प्रतीत होता है"।
- तर्क का सारांश यह है कि धारा 303 में निहित प्रावधान पूरी तरह से अनुचित एवं मनमाना है और इस प्रकार, यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है जो यह गारंटी देता है कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा।
- प्रतिवादियों के अधिवक्ता ने अपने इस तर्क के समर्थन में बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) के निर्णय का उदाहरण दिया कि धारा 303 में निहित प्रावधान किसी भी संवैधानिक दुर्बलता से ग्रस्त नहीं है।
शामिल मुद्दे
- क्या IPC की धारा 303 भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 में निहित गारंटी का उल्लंघन करती है?
टिप्पणी
- न्यायालय ने अवधारित किया कि बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) के मामले में न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार नहीं किया कि क्या मृत्युदण्ड प्रदान करना स्वीकार्य है, बल्कि प्रश्न यह था कि क्या IPC की धारा 302, जो वैकल्पिक सजा के रूप में मृत्युदण्ड का प्रावधान करती है, वैध है।
- बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) में बहुमत द्वारा यह निष्कर्ष निकाले जाने के तीन मुख्य कारण हैं कि IPC की धारा 302 असंवैधानिक है:
- सबसे पहले, धारा 302 के अंतर्गत दी गई मृत्युदण्ड की सजा आजीवन कारावास की सजा का विकल्प है।
- दूसरा, अगर सामान्य नियम से हटकर मृत्युदण्ड की सजा देनी हो तो विशेष कारण स्पष्ट करने होंगे।
- तीसरा, क्योंकि अभियुक्त दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 235(2) के अंतर्गत सजा के प्रश्न पर विचारण का अधिकारी है।
- यदि विधि दण्ड संहिता की धारा 303 के अनुसार मृत्युदण्ड की अनिवार्य सजा का प्रावधान करती है, तो न तो धारा 235(2) एवं न ही धारा 354(3) CrPC के अंतर्गत आ सकती है।
- यदि न्यायालय के पास मृत्युदण्ड देने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है, तो सजा के प्रश्न पर अभियुक्त की सुनवाई करना निरर्थक है तथा मृत्युदण्ड देने के कारणों को स्पष्ट करना भी अनावश्यक हो जाता है।
- न्यायालय ने IPC की धारा 303 और IPC की धारा 302 के बीच इस प्रकार अंतर किया:
- धारा 302 में वैकल्पिक सजा के रूप में मृत्युदण्ड की सजा का प्रावधान है, धारा 303 में केवल मृत्युदण्ड की सजा का प्रावधान है। धारा 303 के अंतर्गत न्यायालय के पास कोई अन्य सजा देने का विकल्प नहीं है, चाहे अपराध की प्रेरणा कुछ भी हो और वह किन परिस्थितियों में किया गया हो।
- दूसरा, CrPC की धारा 354(3) केवल उन मामलों पर लागू होती है, जिनमें "सजा मृत्युदण्ड या वैकल्पिक रूप से आजीवन कारावास या कई वर्षों के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिये होती है"। चूंकि धारा 303 में वैकल्पिक सजा का प्रावधान नहीं है, इसलिये धारा 354(3) उस धारा के अंतर्गत आने वाले मामलों पर लागू नहीं होती।
- तीसरा, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 235(2) जो अभियुक्त को सजा के प्रश्न पर विचारण का अधिकार प्रदान करती है, धारा 303 के अंतर्गत उत्पन्न मामलों में एक अर्थहीन प्रक्रिया बन जाती है। यदि न्यायालय के पास मृत्युदण्ड के अतिरिक्त कोई अन्य सजा देने का कोई विकल्प नहीं है, तो अभियुक्त से यह प्रश्न करना एक निरर्थक औपचारिकता है कि सजा के प्रश्न पर उसे क्या कहना है।
- यदि किसी विशेष वर्ग के व्यक्तियों के संबंध में मृत्युदण्ड को अनिवार्य बना दिया जाता है, तो उन्हें CrPC की धारा 235 (2) के अंतर्गत दिये गए अवसर से वंचित कर दिया जाएगा तथा न्यायालय को CrPC की धारा 354 (3) के अंतर्गत दायित्व से मुक्त कर दिया जाएगा।
- इन अधिकारों एवं सुरक्षा उपायों से वंचित होने से अन्याय होना तय है जो कठोर, मनमाना व अन्यायपूर्ण है।
- इसलिये न्यायालय ने IPC की धारा 303 को असंवैधानिक करार दिया।
निष्कर्ष
- यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो IPC की धारा 303 की संवैधानिक वैधता के विषय में प्रावधान करता है।
- यह IPC की धारा 303 को असंवैधानिक घोषित करता है क्योंकि इसमें अनिवार्य मृत्युदण्ड का प्रावधान है।
- न्यायालय ने माना कि अनिवार्य मृत्युदण्ड का ऐसा प्रावधान COI के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है क्योंकि यह मनमाना है और अपेक्षित सुरक्षा उपायों में कमी है।