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आपराधिक कानून
मुंशी राम एवं अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन (1967)
«12-Feb-2025
परिचय
- यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो भारतीय दण्ड संहिता, 1860 में निहित प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार पर चर्चा करता है।
- यह निर्णय न्यायमूर्ति के.एस. हेगड़े, न्यायमूर्ति एस.एम. सीकरी एवं न्यायमूर्ति जे.एम. शेलत की तीन सदस्यीय पीठ द्वारा दिया गया।
तथ्य
- पाँच बीघा और तेरह बिस्वा का यह खेत एक प्रबंध अधिकारी के अधीन निष्क्रांत संपत्ति थी।
- केंद्र सरकार ने विस्थापित व्यक्ति अधिनियम, 1954 के अंतर्गत संपत्ति का अधिग्रहण किया तथा 2 जनवरी, 1961 को सार्वजनिक नीलामी के माध्यम से इसे बेच दिया। PW संख्या 17, अश्विनी कुमार दत्त ने इसे 7,600 रुपये में खरीदा।
- कब्जे और बिक्री प्रमाण पत्र से संबंधित घटनाक्रम इस प्रकार हैं:
- 10 अक्टूबर, 1961 को अनंतिम कब्जा दिया गया।
- 8 फरवरी, 1962 को बिक्री प्रमाण पत्र जारी किया गया।
- प्रबंध अधिकारी, PW संख्या 5 द्वारा जारी वारंट के अनुसार, वास्तविक कब्जा 22 जून, 1962 को दिया गया तथा PW संख्या 10 द्वारा निष्पादित किया गया।
- 1 जुलाई 1962 को घटित घटना का विवरण इस प्रकार है:
- PW संख्या 17, उसके पिता PW संख्या 19, तथा अन्य, जिनमें PW संख्या 16, PW संख्या 15, तथा बी. एन. आचार्य (ट्रैक्टर चालक) शामिल थे, भूमि समतल करने गए।
- भालों तथा लाठियों से लैस अपीलकर्त्ताओं ने उन पर हमला कर दिया, जिससे PW 17, PW 19 तथा ट्रैक्टर चालक घायल हो गए।
- अपीलकर्त्ता ने निम्नलिखित अभिवाक दिया:
- उन्होंने दावा किया कि उनके रिश्तेदार जमुना (DW संख्या 3) 30 वर्ष से अधिक समय से किरायेदार थे तथा उनकी किरायेदारी कभी भी विधिक रूप से समाप्त नहीं हुई थी।
- उन्होंने आरोप लगाया कि 22 जून, 1962 को कभी भी विधिक रूप से कब्ज़ा नहीं दिया गया तथा जमुना के पास ज़मीन का नियंत्रण बना रहा।
- उन्होंने तर्क दिया कि शिकायतकर्त्ता पक्ष ट्रैक्टर लेकर जबरदस्ती आया तथा PW संख्या 19 के पास बिना लाइसेंस वाली पिस्तौल थी।
- उन्होंने कहा कि उन्होंने शिकायतकर्त्ता पक्ष को खेत से हटाने के लिये न्यूनतम बल का प्रयोग किया।
- अधीनस्थ न्यायालयों ने निम्नलिखित निर्णय दिये:
- न्यायालयों ने विधिक कब्जे एवं हमले के तरीके के विषय में अभियोजन पक्ष के अभिकथन को स्वीकार कर लिया।
- अपीलकर्त्ताओं को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 447, 324 के साथ साथ 149 एवं 148 के अंतर्गत दोषसिद्धि दी गई।
- इस मामले पर निर्णय उच्चतम न्यायालय के समक्ष था।
शामिल मुद्दे
- क्या अपीलकर्त्ताओं ने अपने द्वारा प्रस्तुत प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को संतोषजनक ढंग से स्थापित किया है?
- क्या इस मामले में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिलंघन कारित किया गया था?
टिप्पणी
- प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के संबंध में न्यायालय ने कहा कि:
- यह अच्छी तरह से स्थापित है कि भले ही कोई अभियुक्त प्रतिरक्षा का दावा न करे, लेकिन यदि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से ऐसा प्रतीत होता है तो न्यायालय को ऐसे अभिवाक पर विचार करने का अधिकार है।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने माना कि प्रतिरक्षा के प्रतिरक्षा को सिद्ध करने का भार अभियुक्त पर है तथा इसे संभाव्यता की प्रबलता की सीमा तक सिद्ध किया जाना चाहिये।
- पहले मामले में न्यायालय ने जो प्राथमिक मामला निर्धारित किया वह यह था कि 1 जुलाई 1962 को भूमि पर किसका कब्जा था।
- यह देखा गया कि DW संख्या 3 (जमुना) 30 वर्षों से अधिक समय से संबंधित भूमि पर किरायेदार थी।
- इसके अतिरिक्त, यह भी देखा गया कि जमुना के पास वैध कब्जा बना हुआ था तथा PW संख्या 17 एवं 19 को यह तथ्य पता था।
- प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के संबंध में न्यायालय द्वारा निम्नलिखित टिप्पणियाँ की गईं:
- विधि के अनुसार, किसी व्यक्ति को, जिसकी संपत्ति पर अतिक्रमणकारियों द्वारा बलात कब्जा करने का प्रयास किया जाता है, भागकर अधिकारियों से सुरक्षा मांगने की आवश्यकता नहीं होती।
- प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार एक सामाजिक उद्देश्य पूरा करता है तथा इस अधिकार का उदारतापूर्वक निर्वचन किया जाना चाहिये।
- ऐसा अधिकार न केवल बुरे चरित्र पर अंकुश लगाएगा, बल्कि यह एक स्वतंत्र नागरिक में सही भावना को प्रोत्साहित करेगा।
- संकट के समय भाग जाने से अधिक मानवीय भावना को अपमानित करने वाला कोई तथ्य नहीं है।
- न्यायालय ने तथ्यों पर विधि लागू करते हुए माना कि अपीलकर्त्ता ने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अपने अधिकार का अतिक्रमण किया है।
- परिणामस्वरूप, न्यायालय ने दोषसिद्धि को रद्द कर दिया तथा आरोपी व्यक्तियों को दोषमुक्त कर दिया।
निष्कर्ष
- यह प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार, इसके अनुप्रयोग एवं सीमाओं से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।
- इस मामले में न्यायालय ने अभियुक्तों को प्रतिरक्षा का लाभ दिया।