डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) 7 SCC 740
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डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) 7 SCC 740

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 21-Aug-2024

परिचय:

यह मामला मुस्लिम विधि के अंतर्गत तलाक के उपरांत पति द्वारा दिये जाने वाले भरण-पोषण से संबंधित है, जो इद्दत अवधि तक सीमित था तथा पति को पत्नी के प्रति उसके दायित्त्वों से मुक्त नहीं करता।

  • तलाक के बाद इद्दत अवधि वह अवधि है:
    • जहाँ महिला मासिक धर्म के अधीन है, वहाँ तलाक के बाद इद्दत की अवधि तीन चरणों की है।
    • जहाँ महिला तलाक के समय गर्भवती है, वहाँ इद्दत प्रसव तक चलती है, चाहे वह तीन महीने से कम हो या अधिक।
    • जहाँ महिला मासिक धर्म के अंतर्गत नहीं है, वहाँ यह तीन चंद्र मास की समयावधि है।
  • मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है क्योंकि अधिनियम की धारा 3 में तलाक के समय मुस्लिम महिला को दिये जाने वाले भरण-पोषण का प्रावधान शामिल है। अधिनियम की धारा 3(a) में उल्लेख किया गया है कि जहाँ तलाकशुदा महिला द्वारा आवेदन किया गया है, मजिस्ट्रेट, यदि वह संतुष्ट है कि-
  • (a) उसके पति ने पर्याप्त साधन होने के बावजूद, इद्दत अवधि के अंदर उसके एवं बच्चों के लिये उचित और युक्तियुक्त भरण-पोषण का प्रावधान करने या भुगतान करने में विफल रहा है या उपेक्षा की है।

तथ्य:

  • इस मामले में पति ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध अपील की थी, जिसमें उसे अपनी तलाकशुदा पत्नी को 179 रुपए प्रतिमाह देने का निर्देश दिया गया था, जो मजिस्ट्रेट द्वारा मूल रूप से दी गई 25 रुपए प्रतिमाह की मामूली राशि में वृद्धि थी।
  • बीमार एवं बुज़ुर्ग पत्नी को उसके पति के घर से बाहर निकाले जाने से पहले दोनों पक्षों की शादी को 43 साल हो चुके थे।
  • उन्होंने 3000 रुपए विलंबित मेहर (दहेज़) के रूप में तथा बकाया भरण-पोषण एवं इद्दत अवधि के लिये भरण-पोषण के लिये अतिरिक्त राशि का भुगतान किया तथा इसके बाद उन्होंने इस आधार पर याचिका को खारिज करने की मांग की कि उन्हें पक्षों पर लागू मुस्लिम विधि के अधीन तलाक पर देय राशि मिल गई है।
  • इससे पहले उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985) मामले में माना था कि वास्तविक स्थिति यह है कि यदि तलाकशुदा पत्नी अपना भरण-पोषण स्वयं करने में सक्षम है, तो इद्दत की अवधि समाप्त होने के साथ ही उसके लिये भरण-पोषण प्रदान करने का पति का दायित्त्व समाप्त हो जाता है, लेकिन यदि वह इद्दत की अवधि के बाद अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अंतर्गत सहायता प्राप्त करने की अधिकारी है।
  • यह माना गया कि मुस्लिम पति द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी, जो स्वयं अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, को भरण-पोषण प्रदान करने के दायित्त्व के प्रश्न पर CrPC की धारा 125 और मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों के बीच कोई संघर्ष नहीं है।
  • तलाकशुदा महिलाएँ CrPC की धारा 125 के अधीन अपने पूर्व पतियों के विरुद्ध भरण-पोषण आदेश के लिये आवेदन करने की अधिकारी हैं तथा CrPC की धारा 127(3)(b) के अधीन ऐसे आवेदन वर्जित नहीं हैं।
  • डेनियल लतीफी ने मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।

शामिल मुद्दे:

  • क्या यह अधिनियम संवैधानिक रूप से वैध था?
  • क्या मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 21 के साथ असंगत है?

याचिकाकर्त्ता की दलीलें

  • याचिकाकर्त्ता का मुख्य तर्क यह था कि CrPC की धारा 125 को ऐसी स्थिति को संबोधित करने के लिये तैयार किया गया था जिसमें तलाकशुदा पत्नी को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 को ध्यान में रखते हुए तलाक से लाभ मिलने की संभावना थी, जो जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा से संबंधित है।
  • याचिकाकर्त्ता का एक और तर्क यह था कि यह अधिनियम भेदभावपूर्ण था तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।

भारतीय संघ की दलीलें

  • भारत संघ ने दलील दी कि जब भरण-पोषण का प्रश्न उठता है, जो किसी समुदाय के पर्सनल लॉ का भाग होता है, तो उस संदर्भ में क्या उचित एवं युक्तिसंगत है, यह तथ्य का प्रश्न है।
  • आगे तर्क यह था कि अधिनियम की धारा 3 के अधीन यह प्रावधान है कि इद्दत अवधि के अंदर उसके पूर्व पति द्वारा किया जाने वाला युक्तियुक्त एवं उचित भरण-पोषण और दिया जाने वाला भुगतान यह स्पष्ट करेगा कि यह जीवन भर के लिये नहीं हो सकता है, बल्कि केवल इद्दत की अवधि तक ही सीमित होगा। जब प्रावधान में यह तथ्य स्पष्ट रूप से कहा गया है, तो यह व्याख्या करने का प्रश्न ही नहीं उठता कि यह जीवन भर के लिये है या इद्दत की अवधि के लिये। इस याचिका में उठाई गई चुनौती पर्सनल लॉ के विरुद्ध है क्योंकि यह भेदभाव के लिये एक वैध आधार है तथा इसलिये, संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है।

मुस्लिम पर्सनल बोर्ड द्वारा प्रस्तुत तर्क:

  • इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य शाहबानो मामले में दिये गए निर्णय को रद्द करना था।
  • उन्होंने तर्क दिया कि अधिनियम का उद्देश्य पति को दण्डित करना नहीं है, बल्कि दायित्त्व विहीन होने की प्रवृत्ति से बचना है तथा इस संदर्भ में अधिनियम की धारा 4 ऐसी स्थिति से निपटने के लिये पर्याप्त है और उन्होंने मुसलमानों पर लागू व्याख्या एवं धार्मिक विचारों पर कई कार्यों का संदर्भ देते हुए कहा कि मुस्लिम समाज के सामाजिक लोकाचार ने मुस्लिम तलाकशुदा पत्नी की देखभाल के लिये एक व्यापक नेटवर्क की व्यवस्था की है और वह पति पर बिल्कुल भी निर्भर नहीं है।

टिप्पणी:

  • न्यायालय ने मुस्लिम विधि के प्रावधानों की तुलना CrPC की धारा 125 से की तथा कहा कि धारा 125 में प्रदत्त आवश्यकताएँ और उसका उद्देश्य, लक्ष्य एवं दायरा उन लोगों को सहारा देने के लिये बाध्य करके दायित्त्व विहीन होने की प्रवृत्ति को रोकना है जो स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं एवं जिनका भरण-पोषण करने का सामान्य व वैध दावा है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि शाह बानो के मामले में इस न्यायालय ने स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी को भरण-पोषण का भुगतान करने के लिये CrPC की धारा 125 के पीछे क्या तर्क है तथा यह स्पष्ट रूप से मुस्लिम महिला की ओर से दायित्त्व विहीन होने की प्रवृत्ति या भौतिक अभाव से बचने के लिये है।
  • यह अधिनियम उन महिलाओं पर लागू होता है जो मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार विवाहित थीं तथा जिनका तलाक मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार हुआ था। यह उन महिलाओं पर लागू नहीं होता है जो भारतीय विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अनुसार विवाहित थीं या ऐसी मुस्लिम महिला जिसका विवाह भारतीय तलाक अधिनियम, 1969 या भारतीय विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अनुसार विघटित हो गया था।
  • एक मुस्लिम पति तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिये उचित एवं युक्तियुक्त प्रावधान करने के लिये उत्तरदायी है जिसमें स्पष्ट रूप से उसका भरण-पोषण भी शामिल है। इद्दत अवधि से आगे तक विस्तारित ऐसा उचित एवं युक्तियुक्त प्रावधान अधिनियम की धारा 3(1)(a) के अनुसार इद्दत अवधि के अंदर पति द्वारा किया जाना चाहिये।
  • अधिनियम की धारा 3(1)(a) के अधीन मुस्लिम पति का अपनी तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने का दायित्त्व इद्दत अवधि तक सीमित नहीं है।
  • एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला जिसने पुनर्विवाह नहीं किया है तथा जो इद्दत अवधि के बाद अपना भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं है, वह अधिनियम की धारा 4 के अधीन अपने उन रिश्तेदारों के विरुद्ध कार्यवाही कर सकती है, जो तलाकशुदा महिला से मुस्लिम विधि के अनुसार उसकी मृत्यु पर उत्तराधिकार में मिली संपत्ति के अनुपात में उसका भरण-पोषण करने के लिये उत्तरदायी हैं, जिसमें उसके बच्चे एवं माता-पिता शामिल हैं।
  • यदि कोई रिश्तेदार भरण-पोषण देने में असमर्थ है, तो मजिस्ट्रेट अधिनियम के अधीन स्थापित राज्य वक्फ बोर्ड को ऐसा भरण-पोषण देने का निर्देश दे सकता है।
  • अधिनियम के प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 21 का उल्लंघन नहीं करते हैं।

निष्कर्ष:

  • न्यायालय ने अंततः निष्कर्ष निकाला कि यह कृत्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 21 के अंतर्गत अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है। इसलिये अपील खारिज कर दी गई।

नोट्स:

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973

  • धारा 125 - पत्नी, बच्चों एवं माता-पिता के भरण-पोषण के लिये आदेश-

(1) यदि पर्याप्त साधन वाला कोई व्यक्ति भरण-पोषण करने में उपेक्षा करता है या मना करता है-

(a) उसकी पत्नी, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, या

(b) उसकी धर्मज या अधर्मज अप्राप्तवय संतान, चाहे वह विवाहित हो या नहीं, अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, या

(c) उसकी धर्मज या अधर्मज संतान (जो विवाहित पुत्री न हो) जो वयस्क हो गई है, जहाँ ऐसी संतान किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या चोट के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, या

(d) उसके पिता या माता, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, वहाँ प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट ऐसी उपेक्षा या अस्वीकरण के सिद्ध होने पर ऐसे व्यक्ति को आदेश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी या ऐसे बच्चे, पिता या माता के भरण-पोषण के लिये ऐसी मासिक दर पर, जिसे मजिस्ट्रेट ठीक समझे, मासिक भत्ता दे तथा उसे ऐसे व्यक्ति को दे, जैसा मजिस्ट्रेट समय-समय पर निर्दिष्ट करे।

  • परंतु यदि मजिस्ट्रेट का यह भान हो जाता है कि ऐसी अप्राप्तवय बालिका का पति, यदि विवाहित है, पर्याप्त साधन संपन्न नहीं है तो वह खंड (ख) में निर्दिष्ट अवयस्क बालिका के पिता को उसके वयस्क होने तक ऐसा भत्ता देने का आदेश दे सकेगा।
  • परंतु यह और कि मजिस्ट्रेट, इस उपधारा के अधीन भरण-पोषण के लिये मासिक भत्ते से संबंधित कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, ऐसे व्यक्ति को आदेश दे सकेगा कि वह अपनी पत्नी या ऐसे बच्चे, पिता या माता के अंतरिम भरण-पोषण के लिये मासिक भत्ता दे तथा ऐसी कार्यवाही के व्ययों के लिये, जिन्हें मजिस्ट्रेट उचित समझे, मासिक भत्ता दे तथा उसे ऐसे व्यक्ति को दे, जैसा मजिस्ट्रेट समय-समय पर निर्देश दे।
  • यह भी प्रावधान है कि दूसरे परंतुक के अधीन अंतरिम भरण-पोषण एवं कार्यवाही के व्ययों के लिये मासिक भत्ते के लिये आवेदन का निपटारा, जहाँ तक ​​संभव हो, ऐसे व्यक्ति को आवेदन की नोटिस की तामील की तिथि से साठ दिन के अंदर किया जाएगा।

स्पष्टीकरण- इस अध्याय के प्रयोजनों के लिये-

(क) “अवयस्क” से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है, जो भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 (1875 का 9) के उपबंधों के अधीन वयस्क नहीं समझा जाता है;

(ख) “पत्नी” में ऐसी महिला शामिल है, जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया है या उसने अपने पति से तलाक ले लिया है तथा उसने पुनः विवाह नहीं किया है।

(2) भरण-पोषण या अन्तरिम भरण-पोषण तथा कार्यवाही के व्यय के लिये ऐसा कोई भत्ता, आदेश की तिथि से, या यदि ऐसा आदेश दिया गया हो, तो भरण-पोषण या अन्तरिम भरण-पोषण तथा कार्यवाही के व्यय के लिये आवेदन की तिथि से, जैसा भी मामला हो, देय होगा।

(3) यदि इस प्रकार आदेशित कोई व्यक्ति पर्याप्त कारण के बिना आदेश का पालन करने में असफल रहता है तो ऐसा कोई मजिस्ट्रेट आदेश के प्रत्येक भंग के लिये अर्थदण्ड लगाने के लिये उपबंधित रीति से देय रकम वसूलने के लिये वारंट जारी कर सकता है तथा ऐसे व्यक्ति को, वारंट के निष्पादन के पश्चात्, प्रत्येक मास की पूरी रकम या उसके किसी भाग के लिये, यथास्थिति, भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण तथा कार्यवाही के व्यय का भुगतान न किये जाने की दशा में एक महीने तक की अवधि के लिये या यदि भुगतान पहले कर दिया जाए तो उस अवधि तक के लिये कारावास की सज़ा दे सकता है।

परंतु इस धारा के अधीन देय किसी रकम की वसूली के लिये तब तक कोई वारंट जारी नहीं किया जाएगा जब तक कि ऐसी रकम देय होने की तिथि से एक वर्ष की अवधि के अंदर उसे प्राप्त करने के लिये न्यायालय में आवेदन न किया जाए।

आगे यह भी परंतु कि यदि ऐसा व्यक्ति अपनी पत्नी को इस शर्त पर भरण-पोषण देने का प्रस्ताव करता है कि वह उसके साथ रहेगी तथा वह उसके साथ रहने से मना कर देती है, तो ऐसा मजिस्ट्रेट उसके द्वारा बताए गए अस्वीकरण के किसी भी आधार पर विचार कर सकता है और ऐसी प्रस्तुति के होते हुए भी इस धारा के अधीन आदेश दे सकता है, यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये न्यायोचित आधार है।

स्पष्टीकरण- यदि पति ने किसी अन्य स्त्री से विवाह कर लिया है या रखैल रखता है, तो यह उसकी पत्नी द्वारा उसके साथ रहने से मना करने का न्यायोचित आधार माना जाएगा।

(4) कोई भी पत्नी इस धारा के अधीन अपने पति से भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण तथा कार्यवाही के व्यय के लिये, जैसी भी स्थिति हो, भत्ता प्राप्त करने की अधिकारी नहीं होगी, यदि वह व्यभिचार में लिप्त रह रही है, या यदि वह बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से मना करती है, या यदि वे आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं।

(5) यह सिद्ध होने पर कि कोई पत्नी, जिसके पक्ष में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया है, व्यभिचार में रहने के लिये, या कि वह बिना पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से मना करती है, या कि वे आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं।

मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986

  • धारा 3 - तलाक के समय मुस्लिम महिला को उसकी मेहर या अन्य संपत्ति दी जाएगी।
  • (3) जहाँ तलाकशुदा महिला द्वारा उपधारा (2) के अधीन आवेदन किया गया है, वहाँ मजिस्ट्रेट, यदि उसका समाधान हो जाता है कि-
  • (क) पर्याप्त साधन होने के बावजूद उसका पति उसे तथा उसके बच्चों के लिये उचित तथा न्यायसंगत भरण-पोषण का प्रावधान करने या उसे देने में असफल रहा है या उपेक्षा की है।

भारत का संविधान, 1950

  • अनुच्छेद, 14 - विधि के समक्ष समानता- राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
  • अनुच्छेद, 15 - धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का प्रतिषेध।

(1) राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।

(2) कोई भी नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर निम्नलिखित के संबंध में किसी निर्योग्यता, दायित्त्व, प्रतिबंध या शर्त के अधीन नहीं होगा-

(a) दुकानों, सार्वजनिक रेस्टोरेंट, होटलों एवं सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों तक पहुँच; या

(b) कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों एवं सार्वजनिक रिसॉर्ट के स्थानों का उपयोग जो पूरी तरह या आंशिक रूप से राज्य निधि से बनाए गए हैं या आम जनता के उपयोग के लिये समर्पित हैं।

(3) इस अनुच्छेद का कोई उपबंध राज्य को महिलाओं एवं बच्चों के लिये कोई विशेष प्रावधान करने से नहीं रोकेगा।

(4) इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 29 के खंड (2) का कोई उपबंध राज्य को सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े नागरिकों के किसी वर्ग या अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिये कोई विशेष प्रावधान करने से नहीं रोकेगी।

(5) इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उपखंड (g) की कोई बात राज्य को सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों के किसी वर्ग या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिये, जहाँ तक ​​ऐसे विशेष उपबंध अनुच्छेद 30 के खंड (1) में निर्दिष्ट अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थाओं को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थाओं सहित शैक्षिक संस्थाओं में चाहे वे राज्य द्वारा सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त, उनके प्रवेश से संबंधित हैं, विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से नहीं रोकेगी।

(6) इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उपखंड (छ) या अनुच्छेद 29 के खंड (2) का कोई उपबंध राज्य को निम्नलिखित करने से नहीं रोकेगा-

(क) खंड (4) एवं (5) में उल्लिखित वर्गों के अतिरिक्त नागरिकों के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों की उन्नति के लिये कोई विशेष प्रावधान तथा

(ख) खंड (4) एवं (5) में उल्लिखित वर्गों के अतिरिक्त नागरिकों के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों की उन्नति के लिये कोई विशेष प्रावधान, जहाँ तक ​​ऐसे विशेष प्रावधान निजी शैक्षणिक संस्थानों सहित शैक्षणिक संस्थानों में उनके प्रवेश से संबंधित हैं, चाहे वे राज्य द्वारा सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में निर्दिष्ट अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के अतिरिक्त, जो आरक्षण के मामले में वर्तमान आरक्षण के अतिरिक्त होगा तथा प्रत्येक श्रेणी में कुल सीटों के अधिकतम दस प्रतिशत के अधीन होगा।

  • अनुच्छेद 21 - जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण- किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।