होम / मुस्लिम विधि

मुस्लिम विधि

नूर सबा खातून बनाम मो. कासिम AIR 1997 SC 3280

   »
 02-Nov-2023

परिचय

यह मामला इस तथ्य से संबंधित है कि क्या मुस्लिम माता-पिता के बच्चे व्यक्तिगत कानून के तहत दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के तहत भरण-पोषण प्राप्त करने के हकदार हैं।

तथ्य

  • अपीलकर्त्ता (पत्नी) ने प्रत्यर्थी (पति) के साथ मुस्लिम रीति-रिवाज़ से विवाह किया।
  • दंपति के 3 बच्चे हैं।
  • दंपति के बीच मतभेद और संघर्ष उत्पन्न हुए, जिसके कारण प्रत्यर्थी ने कथित तौर पर अपीलकर्त्ता को उनके तीन अवयस्क बच्चों के साथ उनके वैवाहिक निवास से बाहर निकाल दिया।
  • इसके अलावा, प्रत्यर्थी अपने निष्कासन के बाद अपीलकर्त्ता तथा बच्चों को वित्तीय सहायता प्रदान करने में विफल रहा।
  • वर्ष 1992 में, अपीलकर्त्ता ने रुपए का अनुरोध करते हुए वित्तीय राहत मांगी। स्वयं के लिये 400/- प्रति माह और तीनों बच्चों में से प्रत्येक के लिये 300/- प्रति माह।
  • वर्ष 1992 में, अपीलकर्त्ता ने वित्तीय राहत की मांग करते हुए अपने लिये 400/- रुपए प्रति माह तथा तीन बच्चों में से प्रत्येक के लिये 300/- रुपए प्रति माह का अनुरोध किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी को अपीलकर्त्ता के लिये 200/- रुपए प्रति माह तथा तीन अवयस्क बच्चों में से प्रत्येक के लिये 150/- रुपए प्रति माह की दर से भरण-पोषण का भुगतान करने का आदेश दिया जब तक कि वे वयस्क नहीं हो गए।
  • इसके बाद, प्रत्यर्थी ने दायर एक आवेदन के अनुसार मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 (1986 का अधिनियम) के प्रावधानों के आधार पर ट्रायल कोर्ट के फैसले में संशोधन करने की मांग की।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपने पहले के फैसले को संशोधित करते हुए अपीलकर्त्ता के लिये भरण-पोषण को समायोजित कर दिया, जबकि तीन अवयस्क बच्चों में से प्रत्येक के लिये भरण-पोषण की पुष्टि की।
  • ट्रायल कोर्ट के फैसले से असंतुष्ट प्रतिवादी ने एक पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिसे पुनरीक्षण न्यायालय ने खारिज़ कर दिया।
  • इसके बाद प्रत्यर्थी ने उच्च न्यायालय में अपील की, जहाँ फैसला आंशिक रूप से उसके पक्ष में आया।
  • इसलिये, अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका दायर की।
  • उच्चतम कोर्ट ने 1986 के अधिनियम की धारा 3(1)(b) और CrPC की धारा 125 दोनों के पहलुओं पर निर्णय लिया।

शामिल मुद्दा

  • क्या 1986 के अधिनियम की धारा 3(1)(b) किसी भी तरह से धारा 125 CrPC के तहत तलाकशुदा मुस्लिम माता-पिता के अवयस्क बच्चों के भरण-पोषण के अधिकार को प्रभावित करती है?

टिप्पणियाँ

  • न्यायालय ने कहा कि, व्यक्तिगत और वैधानिक दोनों कानूनों के अनुसार, पर्याप्त साधन वाले एक मुस्लिम पिता का स्पष्ट कर्त्तव्य है कि वह अपने अवयस्क बच्चों को आर्थिक रूप से समर्थन दे, जो स्वयं का समर्थन नहीं कर सकते।
  • यह उत्तरदायित्व तब तक रहता है जब तक बच्चे वयस्क नहीं हो जाते या महिलाओं के मामले में, जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती।
  • यह दायित्व तब भी रहता है, जब तलाकशुदा पत्नी बच्चों की देखभाल कर रही हो।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अधिनियम 1986 की धारा 3(1)(b) में एक विशिष्ट अवधि के लिये प्रदान किया गया भरण-पोषण उनके जन्म से दो वर्ष तक शिशु/शिशुओं की देखभाल में माँ के स्वयं के समर्थन के लिये है।
  • यह प्रावधान CrPC की धारा 125 के तहत अवयस्क बच्चों के भरण-पोषण का दावा करने के अधिकार को प्रभावित नहीं करता है।
  • जब तक CrPC की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की शर्तें पूरी होती हैं, तब तक अवयस्क बच्चों के अधिकार 1986 के अधिनियम की धारा 3(1)(b) से प्रभावित नहीं होते हैं।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धारा 125, CrPC जैसे कानून, जो व्यक्तियों को लाभ पहुँचाने के लिये हैं, उन्हें तब तक कमज़ोर नहीं किया जाना चाहिये जब तक कि कानून स्पष्ट रूप से इसकी अनुमति नहीं देता।
  • एक मुस्लिम पिता का अपने अवयस्क बच्चों के भरण-पोषण का दायित्व CrPC की धारा 125 के तहत एक हिंदू पिता के समान पूर्ण है तथा 1986 के अधिनियम की धारा 3(1)(b) से प्रभावित नहीं होता है।

निष्कर्ष

  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि CrPC की धारा 125 और 1986 के अधिनियम की धारा 3(1)(b) अलग-अलग स्थितियों में लागू होती हैं और दोनों प्रावधानों के बीच कोई विरोधाभास नहीं है।
  • जबकि 1986 का अधिनियम एक मुस्लिम पति के अपनी तलाकशुदा पत्नी के प्रति दायित्वों को संबोधित करता है, जिसमें दो वर्ष तक बच्चों के लिये भरण-पोषण भी शामिल है, धारा 125, CrPC, विशेष रूप से एक मुस्लिम पिता के अवयस्क बच्चों को तब तक बनाए रखने के दायित्व से संबंधित है जब तक कि वे वयस्क न हो जाएँ या स्वयं का भरण-पोषण न कर सकें (इनमें से जो भी पहले आता हो)।

नोट

सीआरपीसी (CrPC)

धारा 125 - पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण के लिये आदेश -

  1. यदि पर्याप्त संसाधन संपन्न कोई व्यक्ति उपेक्षा करता है या भरण-पोषण से इंकार करता है-
    1. उसकी पत्नी, अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ, या
    2. उसका वैध या अधर्मज़ अवस्यक शिशु, चाहे वह विवाहित हो या नहीं, अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो, या
    3. उसका वैध या अधर्मज़ शिशु (जो विवाहित पुत्री न हो) जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है, जहाँ ऐसा शिशु किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या चोट के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, या
    4. उसके पिता या माता अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, तो प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट, ऐसी उपेक्षा या इनकार का सबूत मिलने पर, ऐसे व्यक्ति को अपनी पत्नी या ऐसे बच्चे, पिता या माता के भरण-पोषण के लिये ऐसी मासिक दर मासिक भत्ता देने का आदेश दे सकता है, जिसे मजिस्ट्रेट उचित समझे तथा ऐसे व्यक्ति को उतना ही भुगतान करे जितना मजिस्ट्रेट समय-समय पर निर्देश दे।
  • बशर्ते कि मजिस्ट्रेट खंड (b) में निर्दिष्ट अवयस्क लड़की के पिता को उसके वयस्क होने तक ऐसा भत्ता देने का आदेश दे सकता है, यदि मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट है कि ऐसी अवयस्क बच्ची के पति, यदि विवाहित है, के पास पर्याप्त साधन नहीं हैं।
  • बशर्ते कि मजिस्ट्रेट, इस उपधारा के तहत भरण-पोषण के लिये मासिक भत्ते के संबंध में कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, ऐसे व्यक्ति को अपनी पत्नी या ऐसे बच्चे, पिता या माता के अंतरिम भरण-पोषण के लिये मासिक भत्ता और ऐसी कार्यवाही के खर्चों के लिये मासिक भत्ता देने का आदेश दे सकता है, जिसे मजिस्ट्रेट युक्तियुक्त मानता है तथा उसे ऐसे व्यक्ति को भुगतान करना होगा जिसे मजिस्ट्रेट समय-समय पर निर्देशित कर सकता है।
  • बशर्ते कि अंतरिम भरण-पोषण के लिये मासिक भत्ते तथा दूसरे परंतुक के तहत कार्यवाही के खर्चों के लिये एक आवेदन, जहाँ तक संभव हो, ऐसे व्यक्ति को आवेदन की सूचना की सेवा की तिथि से साठ दिनों के भीतर निपटाया जाएगा।
  • स्पष्टीकरण- इस अध्याय के प्रयोजनों के लिये,-
    1. "अवयस्क" का अर्थ एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे भारतीय बहुमत अधिनियम, 1875 (1875 का 9) के प्रावधानों के तहत यह माना जाता है कि उसने बहुमत प्राप्त नहीं किया है;
    2. "पत्नी" में वह महिला शामिल है जिसे अपने पति ने तलाक दे दिया है, या जिसने तलाक ले लिया है और दोबारा शादी नहीं की है।

(2) भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्चों के लिये ऐसा कोई भी भत्ता आदेश की तिथि से देय होगा, या, यदि ऐसा आदेश दिया गया है, तो भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्चों के लिये आवेदन की तिथि से, जैसा भी मामला हो, देय होगा।

(3) यदि इस प्रकार आदेश दिया गया कोई भी व्यक्ति पर्याप्त कारण के बिना आदेश का अनुपालन करने में विफल रहता है, तो ऐसा कोई भी मजिस्ट्रेट, आदेश के प्रत्येक उल्लंघन के लिये, ज़ुर्माना लगाने के लिये प्रदान किये गए तरीके से देय राशि वसूलने के लिये वारंट जारी कर सकता है, और ऐसे व्यक्ति को भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्चों के लिये प्रत्येक माह का संपूर्ण या कुछ भाग भत्ता, जैसा भी मामला हो, वारंट के निष्पादन के बाद अवैतनिक रहने पर, एक अवधि के लिये कारावास की सजा दे सकता है जिसे एक महीने तक या यदि पहले भुगतान किया जाए तो भुगतान तक बढ़ाया जा सकता है।

  • बशर्ते कि इस धारा के तहत देय किसी भी राशि की वसूली के लिये कोई वारंट जारी नहीं किया जाएगा, जब तक कि उस तिथि से एक वर्ष की अवधि के भीतर ऐसी राशि वसूलने के लिये न्यायालय में आवेदन नहीं किया जाता है।
  • बशर्ते कि यदि ऐसा व्यक्ति अपनी पत्नी को उसके साथ रहने की शर्त पर भरण-पोषण देने की पेशकश करता है तथा वह उसके साथ रहने से इनकार करती है, तो ऐसा मजिस्ट्रेट उसके द्वारा बताए गए इनकार के किसी भी आधार पर विचार कर सकता है तथा ऐसी पेशकश के बावजूद इस धारा के तहत आदेश दे सकता है, यदि वह संतुष्ट है कि ऐसा करने के लिये युक्तियुक्त आधार है।
  • स्पष्टीकरण - यदि पति ने किसी अन्य महिला से विवाह किया है या रखैल रखता है, तो यह उसकी पत्नी के उसके साथ रहने से इनकार करने का युक्तियुक्त आधार माना जाएगा।

(4) कोई भी पत्नी इस धारा के तहत अपने पति से भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण तथा कार्यवाही के खर्चों के लिये भत्ता प्राप्त करने की हकदार नहीं होगी, यदि वह व्यभिचार में रह रही है, या यदि, बिना किसी पर्याप्त कारण के, वह इनकार करती है अपने पति के साथ रहने के लिये, या यदि वे आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं।

(5) इस सबूत पर कि कोई भी पत्नी जिसके पक्ष में इस धारा के तहत आदेश दिया गया है वह व्यभिचार में रह सकती है, या कि बिना पर्याप्त कारण के वह अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है, या कि वे आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं।

मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986

धारा 3 - तलाक के समय मुस्लिम महिला की महर या अन्य संपत्ति उसे दी जाएगी।

(1) तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य कानून में किसी बात के होते हुए भी, एक तलाकशुदा महिला निम्नलिखित की हकदार होगी -

(b) जहाँ वह स्वयं अपने तलाक से पहले या बाद में पैदा हुए बच्चों का भरण-पोषण करती है, ऐसे बच्चों के जन्म की तिथि से दो वर्ष की अवधि के लिये उसके पूर्व पति द्वारा उचित प्रावधान और भरण-पोषण का भुगतान किया जाना चाहिये।