होम / वैकल्पिक विवाद समाधान
वाणिज्यिक विधि
आरिफ अजीम कंपनी लिमिटेड बनाम एप्टेक लिमिटेड (2024)
«26-Dec-2024
परिचय
- यह माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (6) के अंतर्गत दायर याचिका पर परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 137 की प्रयोज्यता पर चर्चा करने वाला एक ऐतिहासिक निर्णय है।
- यह निर्णय न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला, मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की 3-न्यायाधीशों की पीठ ने दिया।
तथ्य
- इस मामले में विवाद की जड़ मेसर्स आरिफ अजीम कंपनी लिमिटेड (इस मामले में एक काबुल स्थित फ्रेंचाइजी एवं याचिकाकर्त्ता) और मेसर्स एप्टेक लिमिटेड (एक मुंबई स्थित फ्रेंचाइज़र एवं प्रतिवादी) के मध्य हुआ फ्रेंचाइज़ करार है।
- ये फ्रेंचाइज़ करार (AELA, ACE, AHNA) मार्च 2013 में किये गए थे। AELA करार के अंतर्गत ICCR (भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद) द्वारा अफगान छात्रों के लिये स्वीकृत एक प्रशिक्षण कार्यक्रम के निष्पादन के संबंध में एक विशिष्ट विवाद उत्पन्न हुआ।
- याचिकाकर्त्ता ने काबुल में 440 छात्रों के लिये फरवरी से अप्रैल 2017 तक प्रशिक्षण आयोजित किया।
- याचिकाकर्त्ता ने फरवरी से अप्रैल 2017 तक काबुल में 440 छात्रों के लिये प्रशिक्षण आयोजित किया।
- याचिकाकर्त्ता ने दावा किया है कि प्रतिवादी को ICCR से कटौती के बाद प्राप्त भुगतान का 90% हिस्सा उसका है।
- प्रतिवादी ने गुणवत्ता एवं TDS के लिये ICCR द्वारा कटौती का दावा किया है, साथ ही आकस्मिक व्यय एवं 15% रॉयल्टी का दावा किया है।
- याचिकाकर्त्ता ने अगस्त 2021 में विधिक नोटिस जारी कर ब्याज सहित 73,53,000 रुपये के भुगतान की मांग की, बाद में जुलाई 2022 में मध्यस्थता का आह्वान किया।
- मध्यस्थता विफल होने के बाद, याचिकाकर्त्ता ने नवंबर 2022 में ब्याज सहित 1,48,31,067 रुपये का दावा करते हुए मध्यस्थता प्रारंभ की।
- प्रतिवादी ने भुगतान कटौती, रॉयल्टी एवं करार के अनुपालन के विषय में मुद्दे उठाते हुए याचिकाकर्त्ता के दावों को अस्वीकृत कर दिया।
- यह याचिका माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 11 (6) के अंतर्गत मध्यस्थ की नियुक्ति और मार्च 2013 में किये गए संविदा से उत्पन्न विवादों के न्यायनिर्णयन के लिये दायर की गई थी।
शामिल मुद्दे
- क्या माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11(6) के अंतर्गत मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये आवेदन पर परिसीमा अधिनियम, 1963 (LA) लागू होता है? यदि हाँ, तो क्या वर्तमान याचिका परिसीमा द्वारा वर्जित है?
- क्या न्यायालय अधिनियम, 1996 की धारा 11 के अंतर्गत संदर्भ देने से मना कर सकता है, जहाँ दावे पूर्व-दृष्टया एवं निराशाजनक रूप से समय-बाधित करने वाले हैं?
टिप्पणी
- पहले मुद्दे के विषय में:
- इस विषय में न्यायालय ने पाया कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 43 में प्रावधान है कि परिसीमा अधिनियम, 1963 मध्यस्थता पर उसी तरह लागू होगा, जैसे वह न्यायालय में कार्यवाही पर लागू होता है।
- चूंकि A & C अधिनियम की धारा 11 (6) के अंतर्गत आवेदन दाखिल करने के लिये किसी भी अनुच्छेद में परिसीमा निर्धारित नहीं की गई है, इसलिये यह LA के अनुच्छेद 137 के अंतर्गत आएगा, जो एक अवशिष्ट प्रावधान है (आवेदन करने का अधिकार प्राप्त होने की तिथि से 3 वर्ष)।
- इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि LA सामान्य रूप से मध्यस्थता कार्यवाही पर लागू होता है और LA का अनुच्छेद 137 विशेष रूप से अधिनियम की धारा 11 (6) के अंतर्गत याचिका पर लागू होता है।
- यह निर्धारित करने के लिये कि परिसीमा अवधि कहाँ से प्रारंभ होगी, यह देखना होगा कि आवेदन करने का अधिकार कब प्राप्त होता है।
- न्यायालय ने देखा कि होफेल्ड की न्यायिक संबंधों की योजना के अनुसार एक इकाई को अधिकार प्रदान करने से दूसरे में एक समान कर्त्तव्य निहित होना चाहिये।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 11 (6) के अंतर्गत याचिका दायर करने की परिसीमा अवधि केवल तभी प्रारंभ हो सकती है जब आवेदक द्वारा दूसरे पक्ष को मध्यस्थता का आह्वान करने वाला वैध नोटिस भेजा गया हो, तथा उस दूसरे पक्ष की ओर से ऐसे नोटिस में उल्लिखित आवश्यकताओं का पालन करने में विफल हुआ हो या मना किया गया हो।
- न्यायालय ने वर्तमान मामले के तथ्यों पर ऊपर बताए गए विधि को लागू किया।
- वर्तमान मामले के तथ्यों के अनुसार, मध्यस्थता के आह्वान के लिये याचिकाकर्त्ता द्वारा 24 नवंबर 2022 को नोटिस जारी किया गया था (जो प्रतिवादी को 29 नवंबर 2022 को प्राप्त हुआ था) जिसमें दो मध्यस्थों के नाम प्रस्तावित किये गए थे तथा प्रतिवादी से कहा गया था कि वे या तो कथित रूप से रोके गए भुगतान को जारी करें या नोटिस प्राप्त होने की तिथि से 30 दिनों की अवधि के अंदर अपनी ओर से एक मध्यस्थ को नामित करें।
- यहाँ 30 दिनों की अवधि 28 दिसंबर 2022 को समाप्त होगी तथा इस दिन से ही वर्तमान याचिका दायर करने की परिसीमा प्रारंभ होगी।
- वर्तमान याचिका 19 अप्रैल 2023 को दायर की गई थी, जो कि LA के अनुच्छेद 137 में प्रावधानित की गई 3 वर्ष की समय अवधि के अंदर होगी।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि धारा 11 (6) के अंतर्गत वर्तमान याचिका परिसीमा से वर्जित नहीं है।
- दूसरे मुद्दे के विषय में:
- न्यायालय ने कहा कि परिसीमा एक स्वीकार्यता का मुद्दा है, फिर भी न्यायालयों का यह कर्त्तव्य है कि वे प्रथम दृष्टया गैर-मध्यस्थता या मृत दावों की जाँच करें तथा उन्हें खारिज कर दें, ताकि दूसरे पक्ष को समय लेने वाली एवं महंगी मध्यस्थता प्रक्रिया में फंसने से बचाया जा सके।
- विद्या द्रोलिया बनाम दुर्गा ट्रेडिंग कंपनी (2021) के मामले में न्यायालय ने माना कि रेफरल चरण में न्यायालय केवल तभी हस्तक्षेप कर सकता है जब यह स्पष्ट हो कि दावे पूर्व दृष्टया परिसीमा पार कर चुके हैं तथा समाप्त हो चुके हैं, या कोई विवाद व्याप्त नहीं है। अन्य सभी मामलों को गुण-दोष के आधार पर निर्णय के लिये मध्यस्थ अधिकरण को भेजा जाना चाहिये।
- NTPC लिमिटेड बनाम SPML इंफ्रा लिमिटेड (2023) में, न्यायालय ने बहुत बारीक परीक्षण किया जो यह प्रावधानित करता है कि: "एक सामान्य नियम एवं सिद्धांत के रूप में, मध्यस्थ अधिकरण गैर-मध्यस्थता के सभी प्रश्नों को निर्धारित करने और तय करने के लिये पसंदीदा पहला प्राधिकारी है। नियम के अपवाद के रूप में, तथा शायद ही कभी एक आपत्ति के रूप में, रेफरल कोर्ट उन दावों को अस्वीकार कर सकता है जो स्पष्ट रूप से एवं पूर्व-दृष्टया गैर-मध्यस्थता योग्य हैं।"
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जब भी धारा 11(6) के अंतर्गत कोई याचिका दायर की जाती है तो न्यायालय को दो पहलुओं पर स्वयं को संतुष्ट करना चाहिये:
- क्या धारा 11 (6) के अंतर्गत याचिका परिसीमा अवधि द्वारा वर्जित है
- क्या मध्यस्थता के लिये मांगे गए दावे प्रत्यक्ष रूप से मृत दावे हैं तथा इस प्रकार परिसीमा अवधि द्वारा वर्जित हैं।
- यदि दोनों में से किसी का भी उत्तर विवादों को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने वाले पक्ष के विरुद्ध है, तो न्यायालय मध्यस्थ अधिकरण नियुक्त करने से मना कर सकता है।
निष्कर्ष
- यह उच्चतम न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय है, जो यह उपबंध करता है कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (6) के अंतर्गत दायर आवेदन परिसीमा अधिनियम, 1963 द्वारा शासित होगा।
- इस मामले में न्यायालय ने यह भी पाया कि धारा 11 (6) के अंतर्गत आवेदन दायर करने के लिये तीन वर्ष की अवधि अनुचित रूप से लंबी अवधि है तथा इसलिये यह मध्यस्थता अधिनियम की भावना के विरुद्ध है, जिसका उद्देश्य विवादों का शीघ्र निपटान करना है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने इस कमी को पूरा करने के लिये अधिनियम में संशोधन की अनुशंसा की।