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 30-Aug-2024

परिचय:

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसमें मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 की मध्यस्थता कार्यवाही और न्यायालयीय कार्यवाही में प्रयोज्यता पर चर्चा की गई है।

  • न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की दो सदस्यीय पीठ ने यह निर्णय दिया।

तथ्य:

  • अपीलकर्त्ता एवं प्रतिवादी के बीच एक विशेष विक्रय अधिकार (फ्रेंचाइज़) समझौता था जिसमें मध्यस्थता खंड भी शामिल था।
  • प्रतिवादी द्वारा फ्रेंचाइज़ समझौते के अंतर्गत मध्यस्थता का आह्वान करते हुए एक नोटिस भेजा गया था।
  • एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया गया तथा प्रतिवादियों के पक्ष में दो मध्यस्थता निर्णय सुनाए गए।
  • 16 सितंबर 2015 को अपीलकर्त्ताओं ने मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर किया।
  • प्रतिवादियों ने ऐसे पंचाटों के प्रवर्तन हेतु उच्च न्यायालय में दो निष्पादन आवेदन दायर किये।
  • अपीलकर्त्ताओं ने इसका विरोध करते हुए निष्पादन आवेदनों को अस्वीकार करने की प्रार्थना की और कहा कि पुरानी धारा 36 लागू होगी और इसलिये धारा 34 की कार्यवाही तय होने तक पंचाटों पर स्वतः रोक लग जाएगी।
  • चार अन्य अपीलें थीं जिनमें धारा 34 के आवेदन संशोधन अधिनियम के लागू होने के उपरांत दायर किये गए थे।

शामिल मुद्दे: 

  • क्या धारा 36, जिसे संशोधन अधिनियम द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था, अपने संशोधित रूप में या अपने मूल रूप में प्रश्नगत अपीलों पर लागू होगी?

टिप्पणियाँ:

  • इस मामले में मुख्य विवाद मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 की धारा 26 की व्याख्या के इर्द-गिर्द घूमता था।
    • धारा 26 में प्रावधान है कि "इस अधिनियम में निहित कोई भी बात इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले मूल अधिनियम की धारा 21 के प्रावधानों के अनुसार आरंभ की गई मध्यस्थता कार्यवाही पर लागू नहीं होगी, जब तक कि पक्षकार अन्यथा सहमत न हों, परंतु यह अधिनियम इस अधिनियम के प्रारंभ की तिथि को या उसके उपरांत आरंभ की गई मध्यस्थता कार्यवाही के संबंध में लागू होगा।"
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 26 की व्याख्या पहले शाब्दिक रूप से तथा फिर उद्देश्यपूर्ण एवं व्यावहारिक रूप से की जानी चाहिये।
  • न्यायालय ने धारा 26 के प्रथम और द्वितीय भाग के बीच अंतर किया:
    • धारा 26 का दूसरा भाग A&C अधिनियम की धारा 21 का कोई संदर्भ प्रदान नहीं करता है।
    • जबकि पहला भाग केवल मध्यस्थ अधिकरण के समक्ष मध्यस्थता कार्यवाही को संदर्भित करता है, दूसरा भाग मध्यस्थता कार्यवाही के संबंध में न्यायालय की कार्यवाही को संदर्भित करता है।
    • इसलिये धारा 26 कार्यवाही को दो भागों में विभाजित करती है: मध्यस्थता कार्यवाही और उससे संबंधित न्यायालय द्वारा की गई कार्यवाही।
  • इस प्रकार, यह माना गया कि धारा 26 की कार्य योजना स्पष्ट थी:
    • संशोधन अधिनियम की प्रकृति भावी (भविष्य में होने वाले मामलों के लिये) है।
    • यह उन मध्यस्थता कार्यवाहियों पर लागू होगा जो मूल अधिनियम की धारा 21 के अनुसार संशोधन अधिनियम के दिन या उसके उपरांत आरंभ की गई हों।
    • यह उन न्यायालयीय कार्यवाहियों पर भी लागू होगा जो संशोधन अधिनियम के लागू होने के उपरांत या उसके बाद आरंभ हुई हैं।
  • इसके अतिरिक्त, संशोधन अधिनियम की धारा 26 के दूसरे भाग में 1996 अधिनियम की धारा 21 के संदर्भ का अभाव भी एक अच्छा कारण है कि दूसरे भाग में मध्यस्थ अधिकरण के समक्ष मध्यस्थता कार्यवाही पर विचार नहीं किया गया है।
  • इस प्रकार, यह स्पष्ट था कि उन सभी मामलों में जहाँ धारा 34 के अंतर्गत याचिका संशोधन अधिनियम के लागू होने के उपरांत दायर की गई थी और उसमें धारा 36 के तहत स्थगन के लिये आवेदन किया गया है, वह संशोधित धारा 34 और प्रतिस्थापित धारा 36 द्वारा शासित होगी।

निष्कर्ष:

  • जिस मुद्दे पर दोनों पक्षों में टकराव हुआ वह संशोधन अधिनियम, 2015 की प्रयोज्यता से संबंधित था।
  • न्यायालय ने अधिनियम की धारा 26 का विश्लेषण करने के उपरांत, जो संशोधन अधिनियम की प्रयोज्यता को नियंत्रित करती है, निष्कर्ष निकाला कि यह संशोधन अधिनियम के लागू होने की तिथि को या उसके उपरांत आरंभ की गई न्यायालयीय कार्यवाहियों (मध्यस्थता कार्यवाही से संबंधित कार्यवाहियों) पर लागू होगा।