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सांविधानिक विधि
कॉक्स & किंग्स लिमिटेड बनाम SAP इंडिया प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य (2023)
« »10-Sep-2024
परिचय:
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसने भारत में कंपनियों के सिद्धांत की प्रयोज्यता को यथावत रखा गया है।
- यह निर्णय 5 न्यायाधीशों - भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा द्वारा दिया गया।
तथ्य:
- तीन न्यायाधीशों की पीठ माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 11 (6) के अंतर्गत आवेदन पर विचार कर रही थी।
- मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना की तीन न्यायाधीशों की इस पीठ ने भारतीय संदर्भ में कंपनियों के समूह के सिद्धांत की प्रयोज्यता की शुद्धता पर संदेह जताया।
- मुख्य न्यायाधीश रमन्ना ने क्लोरो कंट्रोल्स इंडिया (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम सेवर्न ट्रेंट वाटर प्यूरिफिकेशन इंक (2012) के मामले में अपनाए गए दृष्टिकोण की आलोचना की, जिसमें न्यायालय ने A&C अधिनियम की धारा 45 में “के माध्यम से या उसके अंतर्गत दावा करना” वाक्यांश पर विश्वास करके इस सिद्धांत को अपनाया था।
- इसलिये, न्यायालय द्वारा कंपनियों के समूह के सिद्धांत की प्रयोज्यता के प्रश्न पर विचार किया गया।
- तथ्यात्मक मैट्रिक्स का उल्लेख यहाँ नहीं किया गया क्योंकि यह मुद्दा इस संदर्भ में विधि का एक सीमित प्रश्न था।
शामिल मुद्दे:
- क्या कंपनी समूह का सिद्धांत भारत में लागू है?
टिप्पणी:
- इस मामले में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले गए:
- अधिनियम की धारा 7 के साथ धारा 2(1)(h) के अंतर्गत "पक्षों" की परिभाषा में हस्ताक्षरकर्त्ता एवं गैर-हस्ताक्षरकर्त्ता दोनों पक्ष शामिल हैं।
- गैर-हस्ताक्षरकर्त्ता पक्षों का आचरण मध्यस्थता करार से बाध्य होने के लिये उनकी सहमति का संकेतक मात्र हो सकता है।
- धारा 7 के अंतर्गत लिखित मध्यस्थता करार की आवश्यकता गैर-हस्ताक्षरकर्त्ता पक्षों को बाध्य करने की संभावना को बाहर नहीं करती है।
- माध्यस्थम अधिनियम के अंतर्गत, "पक्ष" की अवधारणा मध्यस्थता करार के लिये एक पक्ष के माध्यम से या उसके अधीन दावा करने वाले व्यक्तियों की अवधारणा से अलग एवं भिन्न है।
- कंपनियों के समूह के सिद्धांत के आवेदन का अंतर्निहित आधार मध्यस्थता करार के लिये गैर-हस्ताक्षरकर्त्ता पक्ष को बाध्य करने के लिये पक्षों के सामान्य आशय का निर्धारण करते समय समूह कंपनियों की कॉर्पोरेट पृथक्करण को बनाए रखने पर आधारित है।
- अल्टर ईगो या कॉर्पोरेट मुखौटे के अनावरण का सिद्धांत कंपनी समूह सिद्धांत के आवेदन का आधार नहीं हो सकता।
- कंपनी समूह सिद्धांत की विधि के रूप में एक स्वतंत्र अस्तित्व है जो माध्यस्थम अधिनियम की धारा 7 के साथ धारा 2(1)(h) के सामंजस्यपूर्ण निर्वचन से उत्पन्न हुआ है।
- कंपनियों के समूह के सिद्धांत को लागू करने के लिये, न्यायालयों या अधिकरणों को, जैसा भी मामला हो, ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम डिस्कवरी एंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड (2022) में निर्धारित सभी संचयी कारकों पर विचार करना होगा। परिणामस्वरूप, एकल आर्थिक इकाई का सिद्धांत कंपनियों के समूह के सिद्धांत को लागू करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है।
- "के माध्यम से या के अंतर्गत दावा करने वाले" व्यक्ति केवल व्युत्पन्न क्षमता द्वारा प्राप्त अधिकार का दावा कर सकते हैं।
- क्लोरो कंट्रोल प्राइवेट लिमिटेड बनाम सेवन ट्रेंट वाटर प्यूरिफिकेशन इंक (2012) में इस न्यायालय का दृष्टिकोण इस हद तक कि इसने कंपनियों के समूह के सिद्धांत को "के माध्यम से या के अंतर्गत दावा करने" वाक्यांश से जोड़ा, दोषपूर्ण है तथा संविदा विधि एवं कॉर्पोरेट विधि के सुस्थापित सिद्धांतों के विरुद्ध है।
- भारतीय मध्यस्थता न्यायशास्त्र में कंपनियों के समूह के सिद्धांत को बनाए रखा जाना चाहिये, क्योंकि कई पक्षों एवं कई समझौतों से जुड़े जटिल लेन-देन के संदर्भ में पक्षों के आशय को निर्धारित करने में इसकी उपयोगिता है।
- रेफरल चरण में, रेफरल कोर्ट को यह तय करना मध्यस्थ अधिकरण पर छोड़ देना चाहिये कि गैर-हस्ताक्षरकर्त्ता मध्यस्थता करार से बंधा हुआ है या नहीं।
- इस निर्णय के दौरान, कंपनियों के समूह सिद्धांत से संबंधित इस न्यायालय द्वारा दिये गए किसी भी आधिकारिक निर्धारण का निर्वचन मध्यस्थता करार के लिये गैर-हस्ताक्षरकर्त्ताओं को बाध्य करने के लिये अन्य सिद्धांतों एवं सिद्धांतों के आवेदन को अस्वीकार करने के लिये नहीं की जानी चाहिये।
निष्कर्ष:
इस मामले में न्यायालय ने उपरोक्त संदर्भ का उत्तर दिया तथा माना कि मध्यस्थता करार "कंपनियों के समूह" सिद्धांत के अनुसार गैर-हस्ताक्षरकर्त्ताओं को भी बाध्य कर सकता है।