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 13-Sep-2024

परिचय:

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें न्यायालय ने मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत आवेदन दायर करने के चरण में अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने पर चर्चा की।

  • यह निर्णय दो न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति एम.आर. शाह और न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार ने दिया।

तथ्य:

  • 12 मार्च 1998 को मध्यस्थों द्वारा एकपक्षीय निर्णय (जिसमें प्रतिवादियों द्वारा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया) पारित किया गया।
  • प्रतिवादियों द्वारा निर्णय को रद्द करने के लिये मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत आवेदन दायर किया गया था।
  • प्रतिवादियों ने अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिये धारा 34 के अंतर्गत अंतरिम आवेदन दायर किया।
  • अपीलकर्त्ताओं ने अंतरिम आवेदन पर इस आधार पर आपत्ति दर्ज की कि यह A&C अधिनियम के अंतर्गत स्वीकार्य नहीं है।
  • उच्च न्यायालय ने प्रतिवादियों का आवेदन स्वीकार कर लिया।
  • अंततः मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया। 

शामिल मुद्दे: 

  • क्या आवेदक को A&C अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत दायर आवेदन में सार्वजनिक नीति से संबंधित आधार का समर्थन करने के लिये साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी जा सकती है?  

टिप्पणियाँ:

  • न्यायालय ने प्रारंभ में कहा कि 2019 के अधिनियम द्वारा धारा 34 (2) (a) के संशोधन से पहले आरंभ एवं समाप्त हुई मध्यस्थता कार्यवाही के मामले में, अधिनियम की धारा 34 (2) (a) का पूर्व-संशोधन लागू होगा।
  • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि संशोधन से पूर्व धारा 34 (2) (a) में प्रयुक्त शब्द “मध्यस्थ अधिकरण के रिकॉर्ड के आधार पर स्थापित करता है” (2019 के संशोधन द्वारा प्रस्तुत) के बजाय “साक्ष्य प्रस्तुत करें” थे।
  • न्यायालय ने कहा कि वर्ष 1996 के अधिनियम को लागू करने का कारण विवादों का शीघ्र समाधान था।
  • यदि मध्यस्थ निर्णय को रद्द करने के लिये आवेदन में मध्यस्थ के समक्ष मौजूद रिकॉर्ड से परे किसी अन्य चीज़ की आवश्यकता होगी तो उक्त उद्देश्य विफल हो जाएगा।
  • हालाँकि किसी असाधारण मामले में और यदि न्यायालय में यह बात लाई जाती है कि मध्यस्थ के रिकॉर्ड में शामिल न होने वाले मामलों में कुछ बातें अधिनियम की धारा 32 (2) (a) के अंतर्गत उत्पन्न होने वाले मुद्दों के निर्धारण के लिये प्रासंगिक हैं, तो पक्षकार को साक्ष्य के रूप में शपथ-पत्र दायर करने की अनुमति दी जा सकती है।
  • न्यायालय ने कहा कि किसी मामले में यह सिद्ध करने के लिये कि दिया गया निर्णय भारत की सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है, साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता हो सकती है। हालाँकि यदि मध्यस्थ के समक्ष रिकॉर्ड से यह सिद्ध हो जाता है तो व्यक्ति को साक्ष्य/अतिरिक्त साक्ष्य के रूप में शपथ-पत्र दाखिल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। 
  • न्यायालय ने माना कि यहाँ प्रस्तुत किये जाने वाले साक्ष्य मध्यस्थ अधिकरण के रिकॉर्ड का भाग नहीं थे। इसलिये, उच्च न्यायालय ने प्रतिवादियों को अतिरिक्त साक्ष्य दाखिल करने की अनुमति देकर कोई त्रुटि नहीं की है।
  • इसलिये, न्यायालय ने माना कि प्रतिवादियों द्वारा विधिक रूप से सुदृढ़ एक असाधारण मामला बनाया जा रहा है, जिसके अंतर्गत उन्हें शपथपत्र दायर करने/अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी जानी चाहिये।

निष्कर्ष:

  • इस मामले में न्यायालय ने माना कि चूँकि 1996 के अधिनियम का उद्देश्य विवाद समाधान की प्रक्रिया में तेज़ी लाना है, इसलिये यदि धारा 34 के आवेदन के स्तर पर मध्यस्थ अधिकरण के रिकॉर्ड के अतिरिक्त कुछ भी प्रस्तुत किया जाता है तो अधिनियम का उद्देश्य विफल हो जाएगा।
  • हालाँकि कुछ असाधारण परिस्थितियों में, जब अत्यंत आवश्यक हो, तब इसकी अनुमति दी जा सकती है।