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आपराधिक कानून

राजेंद्र राजोरिया बनाम जगत नारायण ठाकर एवं अन्य (2018)

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 30-Sep-2024

परिचय:

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने न्यायालयों की पुनरीक्षण की अधिकारिता और मजिस्ट्रेट की संज्ञान लेने की शक्ति का दायरा निर्धारित किया। 

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति एन.वी. रमण और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नज़ीर ने दिया।

तथ्य:

  • अपीलकर्त्ता ने पुलिस थाने में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420, 467, 468, 471, 120B, 506 तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 के तहत शिकायत दर्ज कराई।
  • अपीलकर्त्ता का मामला यह है कि श्रीमती विद्याबाई और अन्य ने विवादित भूमि प्रतिवादी संख्या 1 को बेच दी एवं धोखाधड़ी व जालसाज़ी से अपीलकर्त्ता की संपत्ति का दाखिल खारिज करवा लिया।
  • इसके अतिरिक्त्त, यह आरोप लगाया गया कि प्रतिवादियों ने अपीलकर्त्ता को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी थी तथा उसकी जाति/जनजाति को नीचा दिखाने के आशय से गंदी भाषा का प्रयोग किया।
  • पुलिस स्टेशन ने शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की, इसलिये अपीलकर्त्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 200 के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट से संपर्क किया।

निचले न्यायालयों के निष्कर्ष:

  • प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट ने पर्याप्त साक्ष्य न होने के आधार पर आपराधिक शिकायत को खारिज कर दिया।
  • उपरोक्त से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने आपराधिक पुनरीक्षण के माध्यम से अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश से संपर्क किया।
  • सत्र न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि निचले न्यायालय ने तथ्यों के साथ-साथ कानून का भी मूल्यांकन नहीं किया तथा 07.12.2012 को मामले को पुनः न्यायिक मजिस्ट्रेट की न्यायालय में भेज दिया।
  • रिमांड पर न्यायिक मजिस्ट्रेट ने दिनांक 23.01.2013 के आदेश द्वारा उल्लिखित अपराधों का संज्ञान लिया।
  • रिमांड आदेश दिनांक 07.12.2012 और मजिस्ट्रेट के दिनांक 23.01.2013 के आदेश से व्यथित होकर प्रतिवादी ने उच्च न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण दायर किया।
  • उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण को स्वीकार किया तथा इस आधार पर शिकायत को रद्द कर दिया कि पुनरीक्षण न्यायालय 23.01.2013 को संज्ञान नहीं ले सकता था, क्योंकि यह CrPC की धारा 398 का ​​उल्लंघन था।

शामिल मुद्दा:

  • CrPC के तहत पुनरीक्षण की अधिकारिता का दायरा क्या है और मजिस्ट्रेट द्वारा पारित रिमांड आदेश वैध है या नहीं?
  • क्या संज्ञान लेने वाले संबंधित मजिस्ट्रेट का आदेश वैध है या नहीं?

टिप्पणी:

मुद्दे (i) के संबंध में:

  • पुनरीक्षण की अधिकारिता का दायरा:
    • पुनरीक्षण की अधिकारिता उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय द्वारा प्रयोग की जाती है तथा CrPC की धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज करने पर CrPC की धारा 397 के तहत आपराधिक पुनरीक्षण में आपत्ति की जा सकती है।
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 उच्च न्यायालय या कोई सेशन न्यायाधीश अपनी स्थानीय अधिकारिता के अंदर स्थित किसी अवर दण्ड न्यायालय के समक्ष की किसी कार्यवाही के अभिलेख को, किसी अभिलिखित या पारित किये गए निष्कर्ष, दण्डादेश या आदेश की शुद्धता, वैधता या औचित्य के बारे में और ऐसे अवर न्यायालय की किन्हीं कार्यवाहियों की नियमितता के बारे में अपना समाधान करने के प्रयोजन से, मंगा सकता है एवं उसकी परीक्षा कर सकता है तथा ऐसा अभिलेख मंगाते समय निदेश दे सकता है कि अभिलेख की परीक्षा लंबित रहने तक किसी दण्डादेश का निष्पादन निलंबित किया जाए और यदि अभियुक्त परिरोध में है तो उसे ज़मानत पर या उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया जाए।
    • पुनरीक्षण शक्ति की सीमा CrPC की धारा 401 के साथ धारा 399 के तहत प्रदान की गई है।
    • धारा 398 केवल आगे की जाँच का निर्देश देने की विशिष्ट शक्ति से संबंधित है, जबकि धारा 399 और धारा 401 के साथ पठित धारा 397 पुनरीक्षण प्राधिकारी को किसी भी निष्कर्ष, दण्ड या आदेश की शुद्धता, वैधता या औचित्य की जाँच करने की शक्ति प्रदान करती है।
    • पुनरीक्षण न्यायालय की शक्तियों को CrPC की धारा 398, 399 और 401 के अनुरूप समझा जाना चाहिये।
  • उपरोक्त तथ्यों का वर्तमान तथ्यों पर अनुप्रयोग: 
    • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय इस गलत निष्कर्ष पर पहुँचा कि सत्र न्यायालय ने स्वयं मामले का संज्ञान लिया।
    • सत्र न्यायालय के निर्णय के अवलोकन से यह देखा जा सकता है कि सत्र न्यायालय ने संज्ञान लेने का कोई आदेश पारित नहीं किया।
    • बल्कि, सत्र न्यायालय के आदेश को केवल आगे की पूछताछ के लिये रिमांड आदेश के रूप में समझा जाना चाहिये।
    • सत्र न्यायालय की टिप्पणियाँ केवल रिमांड के लिये औचित्यपूर्ण थीं तथा संज्ञान लेने के लिये पर्याप्त नहीं थीं।
    • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने विधि की गलत व्याख्या के आधार पर स्वयं ही शिकायत को रद्द कर दिया, इसलिये उच्च न्यायालय का आदेश विधि की नज़र में कायम नहीं रह सकता।

मुद्दे (ii) के संबंध में:

  • संज्ञान लेते समय न्यायालय द्वारा अपेक्षित मानक:
    • न्यायालय ने सुब्रमण्यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह एवं अन्य (2012) के मामले में माना है कि विधिक भाषा में 'संज्ञान' शब्द का अर्थ न्यायालय द्वारा उसके समक्ष प्रस्तुत किसी कारण या मामले पर न्यायिक संज्ञान लेना है ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि कार्यवाही शुरू करने का कोई आधार है या नहीं।
    • संज्ञान लेने के चरण में इस बात पर विचार नहीं किया जाना चाहिये कि दोषसिद्धि के लिये पर्याप्त आधार है या नहीं।
    • संज्ञान लेने के चरण में मजिस्ट्रेट को भी विस्तृत कारण बताने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन आदेश में मजिस्ट्रेट द्वारा उसके समक्ष प्रस्तुत सामग्री के संबंध में स्वतंत्र विचार प्रतिबिंबित होना चाहिये।
  • मामले के तथ्यों पर उपरोक्त सिद्धांतों का अनुप्रयोग: 
    • न्यायालय ने कहा कि संज्ञान लेने वाले मजिस्ट्रेट के आदेश से यह स्पष्ट है कि संबंधित मजिस्ट्रेट ने टिप्पणी की थी कि सत्र न्यायालय ने पहले ही प्रथम दृष्टया मामला बना लिया है।
    • न्यायालय ने कहा कि उपरोक्त निष्कर्ष को कायम रखना कठिन होगा, क्योंकि पुनरीक्षण न्यायालय ने मामले को पुनः आगे बढ़ाने के लिये केवल कुछ पहलुओं पर ही विचार किया था।
    • हालाँकि मजिस्ट्रेट से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह संज्ञान लेते समय अपने स्वतंत्र विचार का प्रयोग करेगा।
  • इसलिये, इस मामले में न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली तथा विवादित निर्णय को रद्द कर दिया।
  • तद्नुसार, न्यायालय ने माना कि शिकायत पर ट्रायल कोर्ट द्वारा पुनःविचार किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

  • इस मामले में न्यायालय ने पुनरीक्षण न्यायालयों की शक्ति पर विस्तार से चर्चा की। 
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने इस सुस्थापित सिद्धांत को भी दोहराया कि संज्ञान लेते समय मजिस्ट्रेट को अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिये और संज्ञान के आदेश में मजिस्ट्रेट द्वारा स्वतंत्र विवेक का प्रयोग प्रतिबिंबित होना चाहिये।