राज्य (दिल्ली प्रशासन) बनाम संजय गाँधी, (1978) 2 SCC 411
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आपराधिक कानून

राज्य (दिल्ली प्रशासन) बनाम संजय गाँधी, (1978) 2 SCC 411

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 22-Aug-2024

परिचय:

वर्तमान मामला अभियोजन पक्ष द्वारा दायर एक आवेदन से संबंधित है, जिसमें प्रतिवादी संजय गांधी को दी गई ज़मानत को रद्द करने की मांग की गई है, इस आधार पर कि उन्होंने अभियोजन पक्ष के साक्षियों के साथ छेड़छाड़ करने का प्रयास किया है, जिससे न्याय की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न हुई है।

तथ्य:

  • प्रतिवादी, संजय गांधी, दिल्ली के मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के न्यायालय में केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो (CBI ) द्वारा प्रारंभ किये गए अभियोजन में आरोपी नंबर 2 हैं।
  • इस मामले में "किस्सा कुर्सी का" नामक फिल्म को अपने कब्ज़े में लेने तथा उसके सार्वजनिक प्रदर्शन को रोकने के उद्देश्य से उसे नष्ट करने का कथित षड्यंत्र शामिल है।
  • इस फिल्म का निर्माण श्री अमृत नाहटा ने किया था तथा इसमें प्रतिवादी एवं उनकी माँ, भारत की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की राजनीतिक गतिविधियों को दर्शाया गया था।
  • सेंसर बोर्ड ने फिल्म के प्रदर्शन के लिये प्रमाण-पत्र देने से मना कर दिया तथा श्री नाहटा ने उच्चतम न्यायालय में परमादेश के लिये रिट याचिका दायर की।
  • फिल्म को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित होने से रोकने के लिये, प्रतिवादी एवं उनके सह-आरोपी श्री विद्या चरण शुक्ला, जो सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे, ने फिल्म को अपने कब्ज़े में लेने और इसे नष्ट करने का षड्यंत्र रचा।
  • आपातकाल हटने एवं जनता सरकार के सत्ता में आने के बाद, मारुति लिमिटेड के परिसर में छापेमारी की गई, प्रतिवादी, जिस कंपनी का प्रबंध निदेशक था। छापेमारी में पता चला कि फैक्ट्री परिसर में फिल्म स्पूल जला दिये गए और नष्ट कर दिये गए।
  • CBI ने 138 साक्षियों का हवाला देते हुए प्रतिवादी एवं अन्य के विरुद्ध आरोप-पत्र दायर किया।
  • दिल्ली प्रशासन ने प्रतिवादी की ज़मानत रद्द करने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर किया।
  • विवेचना के दौरान, यह पता चला कि प्रतिवादी ने अभियोजन पक्ष के साक्षियों के साथ छेड़छाड़ करने का प्रयास किया।
  • उच्च न्यायालय ने 11 अप्रैल 1978 को ज़मानत रद्द करने के लिये आवेदन को खारिज कर दिया।
  • इसके बाद दिल्ली प्रशासन ने उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति द्वारा अपील दायर की।

शामिल मुद्दे:

  • क्या अभियोजन पक्ष द्वारा साक्षियों से छेड़छाड़ के आरोपों के आधार पर प्रतिवादी की ज़मानत रद्द की जानी चाहिये?
  • ज़मानत रद्द करने के लिये आवेदन में अभियोजन पक्ष पर साक्ष्य का भार की प्रकृति क्या है, तथा सबूत का उचित मानक क्या है?

टिप्पणी:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब ज़मानत के लिये आवेदन किया जाता है तो ज़मानत को अस्वीकार करना पहले से दी गई ज़मानत को रद्द करने से भिन्न है तथा बाद की अनुमति केवल तभी दी जा सकती है, जब परिस्थितियों के कारण, अभियुक्त को अभियोजन के दौरान अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने की अनुमति देना निष्पक्ष विचारण के लिये अनुकूल नहीं होगा।
  • न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष ज़मानत रद्द करने के आवेदन में अपना मामला इस संभावना के आधार पर स्थापित कर सकता है कि अभियुक्त ने अपने साक्षियों के साथ छेड़छाड़ की है या करने का प्रयास किया है।
  • न्यायालय ने पाया कि वादी द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य, जिसमें अनुमोदकों की शिकायतें, साक्षियों के शपथ-पत्र एवं अन्य साक्षियों की शिकायतें शामिल हैं, ने संतोषजनक साक्ष्य प्रस्तुत किये कि प्रतिवादी ने अभियोजन पक्ष के साक्षियों को बहकाने का प्रयास किया था।
  • हालाँकि न्यायालय ने अनावश्यक कठिनाई या उत्पीड़न से बचने की आवश्यकता पर गौर किया तथा प्रतिवादी की ज़मानत रद्द करने की अवधि को एक महीने तक सीमित करने का निर्णय किया, जिसके दौरान अभियोजन पक्ष मारुति लिमिटेड के द्वारा प्रस्तुत साक्षियों की जाँच करेगा।
  • न्यायालय ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया, उच्च न्यायालय के निर्णय को खारिज कर दिया तथा प्रतिवादी को एक महीने की अवधि के लिये अभिरक्षा में लेने का निर्देश दिया, जिसके बाद वह नई ज़मानत पर रिहा होने का अधिकारी होगा।

निष्कर्ष:

उच्चतम न्यायालय ने प्रतिवादी की ज़मानत  रद्द कर दी तथा उन्हें अभिरक्षा में लेने का निर्देश दिया।