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आपराधिक कानून

त्रिवेणीबेन एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य (1989)

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 09-Jan-2025

परिचय

  • यह मृत्युदंड के निष्पादन में देरी के आधार पर मृत्युदंड को कम करने से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।
  • निर्णय सुनाने वाली पीठ में न्यायमूर्ति जी.एल. ओझा, न्यायमूर्ति मुरारी मोहन दत्त, न्यायमूर्ति के.एन. सिंह, न्यायमूर्ति के. जगन्नाथ शेट्टी और न्यायमूर्ति एल.एम. शर्मा शामिल थे।

तथ्य

  • अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी ठहराया गया और ट्रायल कोर्ट ने उन्हें मृत्युदंड की सज़ा दी।
  • उच्च न्यायालय ने उनकी दोषसिद्धि और मृत्युदंड की पुष्टि की।
  • जब उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई तो उसे उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया।
  • इसके बाद राष्ट्रपति और/या राज्यपाल के समक्ष दया याचिकाएँ प्रस्तुत की गईं और उन्हें खारिज कर दिया गया।
  • अभियुक्त ने उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर कर मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदलने की मांग की।
  • उसका कहना था कि फाँसी में देरी के कारण कारावास के दौरान उसे मानसिक यातनाएँ दी गईं।
  • उसका दावा था कि फाँसी में देरी के कारण यह फाँसी अमानवीय और असंवैधानिक हो गई।

 

शामिल मुद्दे

  • क्या मृत्युदण्ड के निष्पादन में लम्बे समय तक विलंब के कारण यह निष्पादन योग्य नहीं रह गया है और क्या अभियुक्त को आजीवन कारावास की वैकल्पिक सज़ा की मांग करने का अधिकार है?
  • इस विलंब की गणना के लिये प्रारंभिक बिंदु क्या होगा?
  • वे कौन-सी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिन पर सज़ा के क्रियान्वयन से पहले लगे समय के साथ विचार किया जाना चाहिये?

 टिप्पणी

  • न्यायालय ने विलंब के संबंध में निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • दया याचिका और समीक्षा याचिका दायर करना, यहाँ तक ​​कि बार-बार भी, दोषी व्यक्ति के लिये उपलब्ध एक वैध कानूनी उपाय है।
    • ऐसी फाइलिंग के कारण होने वाला लम्बा विलंब स्वतः ही हस्तक्षेप को उचित नहीं ठहराता, जब तक कि विलंब अनुचित और अत्यधिक न हो।
    • फाँसी के मुद्दे की जाँच करने का उच्चतम न्यायालय का अधिकार क्षेत्र तभी उत्पन्न होता है जब अंतिम निर्णय के बाद अनुचित और लंबी देरी हुई हो।
    • दोषी व्यक्ति द्वारा समीक्षा याचिका या बार-बार दया याचिका दायर करने में लगाया गया समय, अनुचित विलंब का आकलन करते समय ध्यान में नहीं रखा जाएगा।
    • केवल दया याचिकाओं के निपटान के कारण होने वाली देरी या कार्यपालिका की कार्रवाई या निष्क्रियता के कारण होने वाली देरी ही विचारणीय है।
  • न्यायालय ने विलम्ब के प्रकार पर निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • यह देखा गया कि अभियुक्त द्वारा जिस विलंब का हवाला दिया गया है, उसके दो भाग हैं:
    • पहला भाग न्यायिक कार्यवाही में लगने वाले समय को कवर करता है। यह वह समय है जो पक्षकारों ने सुनवाई, अपील, आगे की अपील और समीक्षा में बिताया है।
    • दूसरे भाग में कार्यपालिका द्वारा अपने विशेषाधिकार के प्रयोग में उपयोग किये गए समय को शामिल किया गया है।
    • यह पाया गया कि न्यायालय अंतिम निर्णय तक न्यायिक कार्यवाही पर खर्च किये गए समय को ध्यान में नहीं रख सकता।
    • इसके अलावा, अंतिम निर्णय के बाद संविधान के अनुच्छेद 226 या अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं पर लगने वाले समय पर विचार नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय केवल निम्नलिखित की जाँच कर सकता है:
    • क्या दया याचिकाओं के निपटारे में अनुचित और लंबी देरी हुई।
    • क्या राज्य ने विलम्बकारी आचरण प्रदर्शित किया।
    • क्या देरी वैध कारणों के बिना हुई।
    • आगे यह भी कहा गया कि देरी का आकलन अलग से नहीं किया जा सकता तथा इसे किये गए अपराध की जघन्य और गंभीर प्रकृति के साथ ही विचार किया जाना चाहिये।
    • विलंब की गणना के लिये प्रारंभिक बिंदु के संबंध में न्यायालय ने कहा कि प्रारंभिक बिंदु उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णय सुनाए जाने की तिथि से होना चाहिये।

निष्कर्ष

  • यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो मृत्युदंड की सज़ा के क्रियान्वयन में देरी के कारण मृत्युदंड पाए व्यक्ति को होने वाले मानसिक आघात पर प्रकाश डालता है।
  • न्यायालय ने कहा कि उपरोक्त तथ्य वास्तव में एक ऐसा आधार हो सकता है जिसके आधार पर मृत्युदंड को रूपांतरित किया जा सकता है।