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सांविधानिक विधि
न्यायमूर्ति के. एस. पुत्तास्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ 2019 (1) SCC 1
« »14-May-2024
परिचय:
इस महत्त्वपूर्ण निर्णय में उच्चतम न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि निजता का अधिकार, अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के आंतरिक भाग के रूप में और संविधान के भाग III द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रता के एक भाग के रूप में संरक्षित है।
तथ्य:
- 'आधार' को एक ऐसे कार्ड के रूप में प्रस्तुत किया गया था, जिसके द्वारा किसी व्यक्ति की पहचान की जा सकती है। इसे एक 'विशिष्ट पहचान' के रूप में निर्गत किया गया था और जो प्राधिकारी, कार्ड निर्गत करता है तथा किसी व्यक्ति का नामांकन करता है, उसे भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) के रूप में जाना जाता है।
- UIDAI की स्थापना वर्ष 2009 में की गई थी। विशिष्ट पहचान योजना (UIS) के कार्यान्वयन का मुख्य उद्देश्य एक विशिष्ट पहचान संख्या प्रदान करना था, जो प्रकृति में अद्वितीय हो तथा सभी के पास केवल एक ही पहचान होगी, जिसमें प्रतिलिपिकरण की कोई संभावना नहीं होगी।
- UIDAI ने इस देश में लगभग1 बिलियन व्यक्तियों का नामांकन सुरक्षित कर लिया है।
- आधार योजना को याचिकाकर्त्ताओं ने चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति के.एस. पुत्तास्वामी (सेवानिवृत्त) एवं श्री प्रवेश खन्ना ने एक रिट याचिका दायर की, जब आधार योजना विधायी छत्रछाया में नहीं थी।
- इसे इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह भारत के असंख्य नागरिकों के मौलिक अधिकारों, अर्थात् भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आने वाले निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
- वर्ष 2016 में, जब आधार अधिनियम पारित किया गया, तो कई अन्य याचिकाकर्त्ताओं ने रिट याचिका दायर करके आधार अधिनियम को चुनौती दी। एक ही उद्देश्य वाली सभी रिट याचिकाओं को एक साथ संयोजित कर दिया गया।
शामिल मुद्दे:
- क्या आधार अधिनियम, निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है तथा इस आधार पर यह असंवैधानिक है?
- बायोमेट्रिक डेटा के संग्रहण, भंडारण एवं उपयोग के लिये किस प्रकार की सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता है?
- क्या आधार योजना निगरानी के अंतर्गत एक राज्य का निर्माण करती है या बनाने की प्रवृत्ति रखती है तथा इस आधार पर असंवैधानिक है?
टिप्पणी:
- उच्चतम न्यायालय (SC) की नौ न्यायाधीशों की पीठ के सर्वसम्मत निर्णय में स्वतंत्रता, गरिमा एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक पहलू के रूप में 'निजता' को संवैधानिक रूप से संरक्षित घोषित किया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निजता का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। यह एक अधिकार है, जो व्यक्ति के आतंरिक जीवन को राज्य एवं गैर-राज्य के कार्यकारी द्वारा दोनों के हस्तक्षेप से संरक्षित करता है तथा व्यक्तियों को स्वतंत्र जीवन के विकल्प चुनने की अनुमति देता है।
- निजता का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा है, जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 में ढूँढा जा सकता है।
- निजता का मौलिक अधिकार कम-से-कम तीन पहलुओं को शामिल करेगा:
- किसी व्यक्ति के भौतिक शरीर में हस्तक्षेप,
- सूचनात्मक निजता, और
- पसंद की निजता।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निजता व्यक्ति के अपने व्यक्तित्व पर नियंत्रण रखने के अधिकार का सहवर्ती है।
- न्यायालय ने बिना किसी अनिश्चित शब्दों के माना है कि निजता हमेशा एक प्राकृतिक अधिकार रहा है, जो किसी व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व पर नियंत्रण रखने की स्वतंत्रता देता है।
- निजता को एक प्राकृतिक अधिकार के रूप में भी मान्यता दी गई है, जो व्यक्तियों में निहित है तथा इस प्रकार, अविभाज्य है।
- निर्णय में आगे कहा गया है कि अनुच्छेद 21 के संदर्भ में, किसी विशेष प्रावधान की जाँच करते समय लागू किया जाने वाला परीक्षण 'न्यायसंगत, निष्पक्ष एवं उचित परीक्षण' है जिससे आनुपातिकता (आनुपातिकता परीक्षण) की धारणा आती है।
- आधार अधिनियम सभी भारतीय में रहने वाले एवं नागरिकों का उनकी मुख्य बायोमेट्रिक सूचना, जनसांख्यिकीय सूचनाऔर मेटा डेटा के साथ एक डेटाबेस बनाता है। ऐसी जानकारी किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत, व्यावसायिक, धार्मिक एवं सामाजिक जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर सकती है, ऐसी शक्ति व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये खतरा है।
- एम. पी. शर्मा बनाम सतीश चंद्र, ज़िला मजिस्ट्रेट, दिल्ली (1954) मामला और खड़क सिंह बनाम UP राज्य एवं अन्य (1963) मामले को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
इससे संबंधित प्रमुख मामलों में क्या निर्णय हुआ?
- एम. पी. शर्मा बनाम सतीश चंद्र, ज़िला मजिस्ट्रेट, दिल्ली (1954):
- इस मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 406, 408, 409, 418, 420, 465, 467, 468, 471 एवं 477 (A) के अधीन अपराध किया गया था।
- अपराध दर्ज किये गए तथा तलाशी वारंट जारी किये गए, जिसके दौरान रिकॉर्ड ज़ब्त किये गए।
- इस तरह की तलाशी एवं ज़ब्ती को याचिकाकर्त्ताओं ने इस आधार पर चुनौती दी थी कि यह भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 19(1)(f) एवं अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि तलाशी एवं ज़ब्ती की शक्ति, न्यायशास्त्र की किसी भी प्रणाली में, सामाजिक सुरक्षा के लिये राज्य की एक प्रमुख शक्ति है तथा यह शक्ति आवश्यक रूप से विधि द्वारा विनियमित होती है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब संविधान निर्माताओं ने चौथे संशोधन के अनुरूप निजता के मौलिक अधिकार को मान्यता देकर इस तरह के विनियमन को संवैधानिक सीमाओं के अधीन नहीं करना उचित समझा है, तो हमारे पास कुछ लोगों द्वारा इसे पूरी तरह से अलग मौलिक अधिकार में आयात करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यह एक तनावपूर्ण प्रक्रिया है।
- खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (1963):
- याचिकाकर्त्ता खड़क सिंह को 1941 में डकैती के एक मामले में चुनौती दी गई थी लेकिन उनके विरुद्ध कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं होने के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया था।
- उसके बाद याचिकाकर्त्ता के लिये हिस्ट्रीशीट खोली गई तथा इसलिये वह "निगरानी में" है।
- अक्सर गाँव के चौकीदार और कभी-कभी पुलिस कांस्टेबल उसके घर में घुस जाते हैं, उसके दरवाज़े पर दस्तक देते हैं तथा चिल्लाते हैं, रात में उसे जगाते हैं और इस तरह उसकी नींद में विघ्न डालते हैं।
- याचिकाकर्त्ता ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत याचिका दायर की तथा इन कृत्यों के विरुद्ध चुनौती दी, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(d) एवं 21 द्वारा नागरिकों को दिये गए अधिकार का उल्लंघन है।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(d) द्वारा गारंटीकृत भारत के पूरे क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से घूमने की स्वतंत्रता का याचिकाकर्त्ता के दरवाज़े पर आधी रात को दस्तक देने से उल्लंघन नहीं हुआ क्योंकि "उन कृत्यों में किसी भी तरीके से कोई बाधा या पूर्वाग्रह नहीं है”।
आनुपातिकता का सिद्धांत क्या है?
- इस मामले में SC ने आनुपातिकता का सिद्धांत लागू किया।
- जब भी राज्य की किसी कार्यवाही को इस आधार पर चुनौती दी जाती है कि वह निजता के अधिकार का उल्लंघन करती है, तो राज्य की कार्रवाई को निम्नलिखित मापदण्डों पर परखा जाना चाहिये:
- कार्यवाही को विधि द्वारा स्वीकृति दी जानी चाहिये।
- एक लोकतांत्रिक समाज में विधिक उद्देश्य के लिये प्रस्तावित कार्यवाही आवश्यक होनी चाहिये।
- ऐसे हस्तक्षेप की सीमा ऐसे हस्तक्षेप की आवश्यकता के अनुरूप होनी चाहिये।
- इस प्रकार के हस्तक्षेप के दुरुपयोग के विरुद्ध प्रक्रियात्मक गारंटी होनी चाहिये।