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सांविधानिक विधि

रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019)

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 25-Dec-2024

परिचय

  • यह भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20 (3) के तहत आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध अधिकार पर चर्चा करने वाला एक ऐतिहासिक निर्णय है।
  • यह निर्णय न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने दिया।

तथ्य

  • 7 दिसंबर, 2009 को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के सदर बाज़ार पुलिस स्टेशन में इलेक्ट्रॉनिक्स सेल के प्रभारी ने एक FIR दर्ज की।
  • FIR में आरोप लगाया गया कि धूम सिंह ने अपीलकर्त्ता रितेश सिन्हा के साथ मिलकर पुलिस बल में नौकरी दिलाने का झूठा वचन कर लोगों से धन एकत्र किया।
  • धूम सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उसके पास से मोबाइल फोन ज़ब्त कर लिया गया।
  • जाँच में यह पता लगाने का प्रयास किया गया कि ज़ब्त मोबाइल फोन पर रिकॉर्ड की गई बातचीत धूम सिंह और रितेश सिन्हा के बीच थी या नहीं।
  • जाँच अधिकारी ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM), सहारनपुर के समक्ष रितेश सिन्हा को उनकी वॉयस सैंपल दर्ज करने के लिये बुलाने हेतु एक आवेदन दायर किया।
  • 8 जनवरी, 2010 को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अपीलकर्त्ता को अपनी वॉयस सैंपल देने का निर्देश देते हुए सम्मन जारी किया।
  • रितेश सिन्हा ने इस आदेश को दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी, लेकिन उच्च न्यायालय ने 9 जुलाई, 2010 को उनकी याचिका खारिज कर दी।
  • इस निर्णय से व्यथित होकर रितेश सिन्हा ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
  • उच्चतम न्यायालय की दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने विभाजित निर्णय सुनाया, जिसके कारण मामले को बड़ी पीठ को भेजने की आवश्यकता पड़ी।

शामिल मुद्दे

  • क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 20(3), जो किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाह बनने के लिये बाध्य किये जाने से संरक्षण प्रदान करता है, ऐसे अभियुक्त को अपराध की जाँच के दौरान अपना वॉयस सैंपल देने के लिये बाध्य किये जाने से संरक्षण प्रदान करता है?
  • यह मानते हुए कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है, क्या संहिता में किसी प्रावधान के अभाव में, कोई मजिस्ट्रेट जाँच एजेंसी को किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति का वॉयस सैंपल रिकॉर्ड करने के लिये अधिकृत कर सकता है?

टिप्पणी

  • मुद्दा (i) के संबंध में:
    • न्यायालय ने पाया कि बॉम्बे राज्य बनाम काठी कालू ओघड़ (1961) के निर्णय के अनुसार दोनों संबंधित न्यायाधीशों ने इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर दिया।
    • न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 20(3) में निहित संवैधानिक प्रावधान द्वारा प्रतिबन्ध केवल उन मामलों में लागू होगा, जहाँ अभियुक्त की गवाही स्वयं को दोषी ठहराने वाली हो या ऐसी प्रकृति की हो, जिसमें अभियुक्त को स्वयं दोषी ठहराने की प्रवृत्ति हो।
    • हालाँकि, उन मामलों में जहाँ न्यायालय केवल तुलना के प्रयोजनों के लिये सामग्री माँग रहा है, वह भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 20 (3) के प्रतिषेध के अंतर्गत नहीं आएगा।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि COI के अनुच्छेद 20 (3) का प्रतिषेध उन मामलों में लागू नहीं होता है जहाँ किसी व्यक्ति को वॉयस सैंपल देने के लिये मजबूर किया जाता है।
  • मुद्दा (ii) के संबंध में:
    • न्यायालय ने पाया कि वर्ष 2005 में संशोधन के माध्यम से पेश की गई दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 53, 53A और 311A स्पष्ट रूप से हस्तलेख और हस्ताक्षर जैसे भौतिक साक्ष्य एकत्र करने की अनुमति देती है। हालाँकि, वे इस अधिकार को वॉयस सैंपल एकत्र करने तक नहीं बढ़ाते हैं।
    • कुछ लोगों ने इस चूक को जानबूझकर की गई विधायी निष्क्रियता के रूप में व्याख्यायित किया है, जिससे यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या न्यायालयों को इस वैधानिक कमी को पूरा करने के लिये हस्तक्षेप करना चाहिये।
    • न्यायिक हस्तक्षेप तब आवश्यक हो जाता है जब वैधानिक मौन सामाजिक हितों और न्याय के समुचित संचालन को प्रभावित करती है।
    • न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि यह निर्णय दिया गया है कि उंगलियों के निशान या हस्तलिपि जैसे भौतिक साक्ष्य प्रस्तुत करना आत्म-दोषी नहीं माना जाएगा, क्योंकि ऐसे साक्ष्य स्वाभाविक रूप से साक्ष्यपरक नहीं होते हैं।
    • बॉम्बे राज्य बनाम काठी कालू ओघद (1961) में, न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी अभियुक्त को भौतिक साक्ष्य (जैसे, हस्तलेख, उंगलियों के निशान) प्रदान करने के लिये मजबूर करना अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं करता है क्योंकि ऐसा साक्ष्य गवाही देने की बाध्यता नहीं करता है।
    • विस्तार से कहें तो वॉयस सैंपल उपलब्ध कराना भी साक्ष्य की इसी श्रेणी में आता है।

निष्कर्ष

  • यह उच्चतम न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय है जो यह प्रावधान करता है कि-
    • अनुच्छेद 20(3) अपराध की जाँच के दौरान अभियुक्त को अपना वॉयस सैंपल देने के लिये बाध्य किये जाने से संरक्षण प्रदान नहीं करता है।
    • मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि वह जाँच के दौरान किसी व्यक्ति को अनिवार्य रूप से वॉयस सैंपल देने का निर्देश दे सकता है।

[मूल निर्णय]