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सांविधानिक विधि

सेल्वी इन. कर्नाटक राज्य (2010)

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 04-Feb-2025

परिचय

यह वैज्ञानिक तकनीकों, विशेष रूप से नार्कोएनालिसिस, पॉलीग्राफ परीक्षा और ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल (BEAP) परीक्षणों के अनैच्छिक कार्यान्वयन की वैधता से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसका उपयोग आपराधिक जाँच में किया जाता है। 

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति जे..एम पंचाल, न्यायमूर्ति आर.वी. रवींद्रन एवं न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन की 3 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया।

तथ्य 

  • इस मामले में आपराधिक अपील वैज्ञानिक तकनीकों, विशेष रूप से नार्कोएनालिसिस, पॉलीग्राफ परीक्षा और ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल (BEAP) परीक्षणों के अनैच्छिक कार्यान्वयन की वैधता से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसका उपयोग आपराधिक जाँच में किया जाता है।
  • यह मामला कुशल आपराधिक जाँच की आवश्यकता और सांविधानिक विधि के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के बीच मतभेद स्थापित करता है।
  • आपराधिक जाँच में आरोपी, संदिग्ध या साक्षी व्यक्तियों की सहमति के बिना इन तकनीकों के उपयोग के बारे में आपत्तियाँ दर्ज की गई हैं।
  • यह तर्क दिया गया है कि नार्कोएनालिसिस के दौरान दिये गए मौखिक अभिकथन अनुच्छेद 20(3) द्वारा संरक्षित नहीं हैं क्योंकि परीक्षण के समय उनकी अपराध प्रकृति अज्ञात होती है। 
  • इस प्रकार, न्यायालय को इन परीक्षणों की वैधता के मुद्दे का निर्वचन करना पड़ा।

शामिल मुद्दे  

  • क्या आरोपित तकनीकों का अनैच्छिक प्रशासन COI के अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत आत्म-दोष सिद्धि के विरुद्ध अधिकार का अतिलंघन करता है? 
  • क्या आरोपित तकनीकों का अनैच्छिक प्रशासन संविधान के अनुच्छेद 21 के संदर्भ में समझे गए 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' पर एक उचित प्रतिबंध है?

टिप्पणी  

  • आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध अधिकार का अतिलंघन: नार्कोएनालिसिस, पॉलीग्राफ टेस्ट और ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल जैसी तकनीकों का अनिवार्य कार्यान्वयन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध अधिकार का अतिलंघन करता है। 
  • स्वैच्छिकता एवं विश्वसनीयता सुनिश्चित करना: अनुच्छेद 20(3) के पीछे तर्क साक्ष्य के रूप में स्वीकार किये गए अभिकथनों की विश्वसनीयता एवं स्वैच्छिकता सुनिश्चित करना है, ताकि जाँच के दौरान व्यक्तियों की सुरक्षा की जा सके।
  • विवेचना के चरण में संरक्षण: यह अधिकार जाँच के चरण के दौरान आरोपी व्यक्तियों, संदिग्धों और साक्षियों तक विस्तारित होता है, जैसा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 161 (2) द्वारा प्रबलित किया गया है।
  • बाध्यकारी साक्ष्य की अस्वीकार्यता: विवशता के माध्यम से प्राप्त परीक्षण के परिणाम साक्ष्य के रूप में अस्वीकार्य हैं, क्योंकि अनुच्छेद 20 (3) गवाही की प्रकृति की परवाह किये बिना किसी व्यक्ति के बोलने या चुप रहने के विकल्प की रक्षा करता है।
  • साक्ष्य की साक्ष्य प्रकृति: ऐसी तकनीकों से प्राप्त परिणामों को साक्ष्य माना जाता है न कि भौतिक साक्ष्य, क्योंकि उनमें मामले से संबंधित व्यक्तिगत ज्ञान शामिल होता है।
  • मूल प्रक्रिया का अतिलंघन: व्यक्तियों को इन तकनीकों से गुजरने के लिए विवश करना मूल प्रक्रिया का अतिलंघन है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिलंघन करता है, चाहे जिस भी संदर्भ में उन्हें लागू किया जाए।
  • अनुचित मानसिक घुसपैठ: इन तकनीकों का अनिवार्य उपयोग मानसिक गोपनीयता में एक अनुचित घुसपैठ है तथा इसे अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानदंडों के अंतर्गत क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक उपचार माना जा सकता है।
  • निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के साथ संघर्ष: इन तकनीकों के परिणामों पर विश्वास करना निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के साथ संघर्ष करता है, और सार्वजनिक हित आत्म-दोष के विरुद्ध अधिकार जैसे संवैधानिक अधिकारों के क्षरण को उचित नहीं ठहरा सकता है।
  • बलात प्रशासन का निषेध: किसी भी व्यक्ति को किसी भी संदर्भ में इन तकनीकों के अधीन बल का उपयोग नहीं किया जाना चाहिये, क्योंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अनुचित हस्तक्षेप है। 
  • सुरक्षा उपायों के साथ स्वैच्छिक प्रशासन: आपराधिक न्याय प्रणाली के अंदर स्वैच्छिक प्रशासन की अनुमति है, बशर्ते विशिष्ट सुरक्षा उपायों का पालन किया जाए। 
  • सीमित साक्ष्य मूल्य: सहमति के साथ भी, अकेले परीक्षण के परिणामों को साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि विषय में उनकी प्रतिक्रियाओं पर सचेत नियंत्रण का अभाव होता है।
  • नए साक्ष्य की खोज: स्वैच्छिक रूप से किये गए परीक्षणों के परिणामस्वरूप खोजी गई जानकारी या सामग्री को साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
  • NHRC दिशानिर्देशों का पालन: पॉलीग्राफ परीक्षणों के संचालन के लिये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के 2000 के दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये, नार्कोएनालिसिस और ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल परीक्षणों पर भी इसी तरह के सुरक्षा उपाय लागू किये जाने चाहिये।
  • NHRC के प्रमुख दिशानिर्देशों में शामिल हैं:
    • अभियुक्त की सहमति के बिना कोई परीक्षण नहीं।
    • विधिक परामर्श तक पहुँच एवं परीक्षण के निहितार्थों का निर्वचन। 
    • न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष सहमति दर्ज की जानी चाहिये।
    • मजिस्ट्रेट की सुनवाई के दौरान विधिक प्रतिनिधित्व।
    • स्पष्टीकरण कि अभिकथन संस्वीकृति नहीं हैं, बल्कि पुलिस अभिकथनों के रूप में माने जाते हैं।
    • मजिस्ट्रेट द्वारा अभिरक्षा कारकों पर विचार।
    • स्वतंत्र एजेंसियों को अधिवक्ता की उपस्थिति में परीक्षण कराना चाहिये। 
    • प्रक्रिया का पूरा मेडिकल एवं तथ्यात्मक दस्तावेजीकरण।

निष्कर्ष

  • यह ऐतिहासिक निर्णय है जो यह निर्धारित करता है कि नार्कोएनालिसिस, पॉलीग्राफ टेस्ट और ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल जैसी तकनीकों का अनिवार्य प्रशासन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत आत्म-दोषसिद्धि दिये जाने के विरुद्ध अधिकार का अतिलंघन करता है। 
  • इस प्रकार यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ संतुलन एवं कुशल विवेचना की आवश्यकता के विषय में चर्चा करता है।

[मूल निर्णय]