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सिविल कानून
चंद्रकांत मणिलाल शाह एवं अन्य बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे 1992 AIR 66
« »21-Aug-2024
परिचय:
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह मानना तर्कसंगत है कि परिवार का कोई अभिन्न सदस्य धन प्रस्तावित करके पारिवारिक व्यवसाय में लाभ में अंश प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है, लेकिन तब नहीं जब वह पारिवारिक व्यवसाय को और अधिक समृद्ध बनाने के लिये श्रम एवं सेवाएँ या कहीं अधिक मूल्यवान विशेषज्ञता, कौशल एवं ज्ञान का योगदान देकर कार्यकारी भागीदार बनने का प्रस्ताव देता है।
तथ्य:
- इस मामले में चंद्रकांत मणिलाल शाह (याचिकाकर्त्ता) एक हिंदू संयुक्त परिवार (HUF) का सदस्य था तथा परिवार कपड़े का व्यवसाय कर रहा था।
- याचिकाकर्त्ता के बेटे नरेश चंद्रकांत मासिक वेतन पर व्यवसाय में शामिल हो गए तथा यह कहा गया कि व्यवसाय याचिकाकर्त्ता एवं बेटे के मध्य भागीदारी फर्म में परिवर्तित हो गया था।
- फर्म पंजीकरण के लिये एक आवेदन किया गया था जिसे आयकर अधिकारी ने खारिज कर दिया क्योंकि कोई वैध साझेदारी नहीं थी।
- आयकर अधिकारी द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण को अपीलीय सहायक आयुक्त द्वारा अपील में यथावत रखा गया।
- आगे की अपील पर, आयकर अपीलीय अधिकरण भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि कोई वैध भागीदारी नहीं थी तथा इसलिये व्यवसाय को संयुक्त परिवार के स्वामित्त्व में ही बनाए रखना चाहिये।
- इसके बाद बॉम्बे उच्च न्यायालय में अपील की गई जिसने अपील को खारिज कर दिया तथा आयकर अपीलीय अधिकरण के आदेशों की पुष्टि की।
- इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि बेटा न तो HUF से अलग हुआ है तथा न ही उसने भागीदारी में पूंजी योगदान के रूप में कोई नकद संपत्ति निवेश की है, बल्कि वह केवल अपने कौशल एवं श्रम का योगदान दे रहा है तथा विधि के अनुसार वैध भागीदारी के निर्माण में बाधा नहीं डाल सकता।
- प्रतिवादी ने तर्क दिया कि हिंदू विधि दो मामलों को छोड़कर सहदायिकों के मध्य किसी भी संविदा को मान्यता नहीं देता है।
- जहाँ आंशिक विभाजन हुआ था तथा जहाँ सहदायिक के पास अलग संपत्ति थी।
- तथा भागीदार बनने के लिये पूंजी के रूप में ऐसी अलग संपत्ति को विचार के रूप में लाया गया था और कौशल एवं श्रम को संपत्ति के रूप में नहीं माना जा सकता था।
शामिल मुद्दे:
क्या HUF के कर्त्ता के रूप में याचिकाकर्त्ता एवं परिवार के सदस्य श्री नरेश चंद्रकांत के मध्य वैध भागीदारी थी?
टिप्पणी:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य लाभ अर्जित करना है।
- जब कोई व्यक्ति किसी भागीदारी फर्म का भागीदार बनने के लिये फर्म के लाभ में भागीदारी के बदले में नकद संपत्ति का योगदान देता है।
- वही उद्देश्य, निस्संदेह, तब भी प्राप्त होता है जब कोई व्यक्ति, नकद संपत्ति के स्थान पर, फर्म के लाभार्जन में भागीदारी के बदले में अपने कौशल एवं श्रम का योगदान देता है।
- समाज की बदलती आवश्यकताओं के साथ, कौशल एवं श्रम निश्चित रूप से उस व्यक्ति की संपत्ति हैं तथा कोई कारण नहीं है कि उन्हें भागीदारी के व्यवसाय में लाभ अर्जित करने के लिये विचार के रूप में योगदान नहीं दिया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि वर्तमान मामला कर-देयता से बचने का नहीं है तथा इसलिये यह राजस्व मामला नहीं है और इसलिये उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए तर्क को यथावत नहीं रखा जा सकता।
निष्कर्ष:
उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय एवं आयकर अधिकरणों के निर्णय को पलट दिया तथा कहा कि याचिकाकर्त्ताओं के मध्य भागीदारी वैध है।