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सिविल कानून

फारूक बनाम संध्या एंथ्रेपर कुरिसिंगल एवं अन्य (2017)

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 06-Jan-2025

परिचय

  • यह भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।
  • यह निर्णय न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन एवं न्यायमूर्ति मोहन एम. शांतनगौदर की डबल बेंच द्वारा दिया गया।

तथ्य  

  • वर्ष 2003 में दो भागीदारों ने एक अपंजीकृत भागीदारी फर्म के तीसरे भागीदार के विरुद्ध वाद संस्थित किया।
  • संस्थित वाद का उद्देश्य भागीदारी विलेख के अंतर्गत सभी भागीदारों की सहमति के बिना तीसरे भागीदार द्वारा की गई संपत्ति की बिक्री को रद्द करना था।
  • प्रतिवादी ने आपत्ति की गई, यह तर्क देते हुए कि संस्थित वाद भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 के अंतर्गत अविधिक था। जो अपंजीकृत फर्मों एवं उनके भागीदारों को न्यायालय के माध्यम से अधिकारों को लागू करने से रोकता है।
  • ट्रायल कोर्ट ने माना कि धारा 69 के अंतर्गत संस्थित वाद अविधिक है क्योंकि दावा भागीदारी विलेख से उत्पन्न हुआ था न कि स्वतंत्र स्वामित्व से।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलटते हुए कहा कि वादी सह-स्वामी के रूप में कार्य कर रहे थे न कि भागीदार के रूप में, जिससे संस्थित वाद स्वीकार्य हो जाता है।
  • इसलिये, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष रखा गया।

शामिल मुद्दे

  • क्या यह वाद भागीदारी की संविदा या भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 (IPA) में प्रावधानित अधिकार को लागू करता है?
  • क्या भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 के अंतर्गत प्रतिबंध इस मामले पर लागू है?

टिप्पणी

  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित कि वाद-पत्र मुख्य रूप से भागीदारी विलेख पर आधारित था, जिसमें विशेष रूप से सभी भागीदारों की सहमति के बिना संपत्ति अंतरण को प्रतिबंधित करने वाले खंड का उदाहरण दिया गया था।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष दिया कि दावा भागीदारी करार से उत्पन्न हुआ था, न कि स्वतंत्र स्वामित्व के अधिकारों से।
  • न्यायालय ने माना कि धारा 69 लागू होती है, तथा इसलिये वाद वर्जित है।

निष्कर्ष

  • इस मामले में न्यायालय ने भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 में प्रतिपादित सुस्थापित सिद्धांत को दोहराया कि किसी फर्म द्वारा कोई वाद दायर नहीं किया जा सकता जो न्यायालय में पंजीकृत नहीं है।