होम / भागीदारी अधिनियम

आपराधिक कानून

हल्दीराम भुजियावाला एवं अन्य बनाम आनंद कुमार दीपक कुमार और अन्य AIR 2000 SC 1287

   »
 04-Oct-2023

परिचय

यह मामला भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 (2) की चर्चा करता है, जो अपंजीकृत फर्म द्वारा दायर मुकदमे से संबंधित है।

तथ्य

  • इस मामले में दिवंगत श्री गंगा बिशन के वंशजों के बीच मतभेद शामिल है।
  • श्री गंगा बिशन, जिन्हें व्यापक रूप से हल्दीराम के नाम से जाना जाता है, ने शुरुआत में व्यापार नाम और ट्रेडमार्क "हल्दीराम भुजियावाला" के तहत नमकीन, पापड़ और भुजिया जैसे स्नैक्स बेचने का व्यवसाय शुरू किया।
  • समय के साथ, उनके बेटे भी व्यवसाय में शामिल हो गए और यह एक भागीदारी फर्म बन गई।
  • नवंबर 1997 में गंगा बिशन के एक बेटे ने "हल्दीराम भुजियावाला" को ट्रेडमार्क करने का प्रयास किया, जो पहले से ही पंजीकृत था।
  • विवाद तब पैदा हुआ जब गंगा बिशन के पोते ने दिल्ली के आर्य समाज रोड पर मैसर्स हल्दीराम भुजियावाला के नाम से एक दुकान खोलने का प्रयास किया।
  • गंगा बिशन के अन्य बेटों की भागीदारी फर्म मेसर्स आनंद कुमार दीपक कुमार ने एक मुकदमा दायर कर न्यायालय से अपीलकर्ताओं के विरुद्ध व्यादेश माँगा।
  • ट्रायल कोर्ट ने मेसर्स आनंद कुमार दीपक कुमार के पक्ष में फैसला सुनाया।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपीलकर्ताओं की अपील को खारिज कर दिया।
  • यह अपील दो प्रतिवादियों, मैसर्स हल्दीराम भुजियावाला और श्री अशोक कुमार द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी।
  • अपीलकर्ताओं ने दो वादी, आनंद कुमार तथा दीपक कुमार, जो हल्दीराम भुजियावाला और शिव किशन अग्रवाल के रूप में व्यापार करते हैं, द्वारा दायर वाद को इस आधार पर खारिज करने के लिये एक आवेदन दायर किया कि पहला वादी एक भागीदारी था जो मुकदमे की तिथि पर फर्म रजिस्ट्रार के साथ पंजीकृत नहीं था।

शामिल मुद्दे

  • क्या भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69(2) किसी फर्म द्वारा मुकदमे को रोकती है जो मुकदमे की तिथि पर पंजीकृत नहीं होती है, जहाँ वैधानिक अधिकार के रूप में ट्रेडमार्क के संबंध में स्थायी व्यादेश और क्षति का दावा किया जाता है?
  • क्या भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69(2) में 'अनुबंध से उत्पन्न' शब्द केवल उस स्थिति को संदर्भित करते हैं जहाँ एक अपंजीकृत फर्म अपने व्यापार कार्यकाल के दौरान प्रतिवादी के साथ फर्म द्वारा किये गए अनुबंध से उत्पन्न होने वाले अधिकार को लागू करती है?

टिप्पणी

  • न्यायालय ने कहा कि भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69(2) किसी वैधानिक अधिकार या सामान्य कानून अधिकार के संबंध में किसी अपंजीकृत फर्म द्वारा मुकदमे के माध्यम से प्रवर्तन पर रोक नहीं लगा सकती है।
  • उन्होंने आगे कहा कि यदि किसी पंजीकृत ट्रेडमार्क और उसके उल्लंघन के आधार पर स्थायी व्यादेश या क्षति की राहत का दावा किया जा रहा है, तो मुकदमे को ट्रेडमार्क अधिनियम, 1999 के तहत वैधानिक अधिकार के आधार पर माना जाना चाहिये और इसे भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69(2) द्वारा वर्जित नहीं किया जाता है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69(2) के पीछे का उद्देश्य वादी फर्म द्वारा किसी तीसरे पक्ष-प्रतिवादी के साथ किये गए फर्म के व्यापारिक लेनदेन के क्रम में अनुबंधों से उत्पन्न होने वाले अधिकारों को लागू करने के लिये अपंजीकृत फर्म या उसके भागीदारों पर निर्योग्यता लागू करना था। ।

निष्कर्ष

  • न्यायालय ने अंततः माना कि मुकदमा भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 (2) द्वारा वर्जित नहीं है, भले ही लागू करने का अधिकार अनुबंध से उत्पन्न न हो।

नोट

भागीदारी  अधिनियम, 1999 की धारा 69(2): पंजीकरण न कराने का प्रभाव -

(2) किसी अनुबंध से उत्पन्न होने वाले अधिकार को लागू करने के लिये किसी फर्म द्वारा या उसकी ओर से किसी तीसरे पक्ष के खिलाफ किसी भी न्यायालय में कोई मुकदमा तब तक दायर नहीं किया जाएगा जब तक कि फर्म पंजीकृत न हो और मुकदमा करने वाले व्यक्ति फर्मों के रजिस्टर में फर्म में भागीदार हों या दिखाए गए हों।