होम / लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO)

आपराधिक कानून

किशोरों की निजता का अधिकार

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 20-Mar-2025

परिचय

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें न्यायालय ने बाल पीड़ितों के पुनर्वास को सुनिश्चित करने के लिये POCSO अधिनियम की धारा 19 (6) एवं JJ अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के निर्देश दिये हैं।

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ की दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने दिया।

तथ्य   

  • 18 अक्टूबर 2023 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक निर्णय के विरुद्ध पश्चिम बंगाल राज्य द्वारा आपराधिक अपील दायर की गई थी। 
  • आरोपी को मूल रूप से लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) के अंतर्गत एक विशेष न्यायाधीश द्वारा POCSO अधिनियम की धारा 6 और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 363 एवं 366 के अधीन अपराधों के लिये दोषी माना गया था। 
  • 20 मई, 2018 को हुई घटना के समय पीड़िता चौदह वर्ष की लड़की थी। 
  • पीड़िता की मां ने 29 मई 2018 को एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि आरोपी ने उसकी अप्राप्तवय बेटी को घर छोड़ने के लिये बहला-फुसलाया। 
  • पीड़िता को एक लड़की उत्पन्न हुई तथा आरोपी इस बच्चे का जैविक पिता है।
  • विवेचना में काफी विलंब हुआ तथा आरोपी को 19 दिसंबर 2021 को गिरफ्तार किया गया। 
  • उच्च न्यायालय ने आरोपी को IPC की धारा 363 एवं 366 के अधीन अपराधों से दोषमुक्त कर दिया तथा POCSO अधिनियम की धारा 6 के तहत उसकी सजा को भी रद्द कर दिया। 
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि पीड़िता की मां ने उसे त्याग दिया था तथा पीड़िता लगातार अपने अप्राप्तवय बच्चे के साथ आरोपी के साथ रह रही थी। 
  • उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश के निर्देशों के आधार पर एक स्वप्रेरणा रिट याचिका शुरू की गई। 
  • राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय के दोषमुक्त करने के आदेश को चुनौती देते हुए एक आपराधिक अपील दायर की। 

शामिल मुद्दे  

  • क्या उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय निरस्त किया जा सकता है? 
  • क्या किसी ऐसे कृत्य को, जो अपराध है, 'प्रेमपूर्ण संबंध' कहा जा सकता है? 
  • POCSO अधिनियम के अंतर्गत दोषसिद्धि को रद्द करने के लिये पूर्ण शक्तियों के प्रयोग का दायरा क्या है? 
  • क्या राज्य POCSO अधिनियम के अधीन अपराध के पीड़ित की देखभाल करने के लिये बाध्य है, जो चौदह वर्ष का था? 
  • इस संबंध में उच्चतम न्यायालय द्वारा क्या निर्देश जारी किये गए हैं?

टिप्पणी 

  • पहले मुद्दे के संबंध में:
    • न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों में यह निर्विवाद है कि गंभीर लैंगिक उत्पीड़न का अपराध कारित किया गया है।
    • हालाँकि, न्यायालय ने माना कि यह नहीं कहा जा सकता कि IPC की धारा 363, 366 के अधीन अपराध कारित किया गया है। ऐसा इसलिये है क्योंकि यह दिखाने के लिये कोई साक्ष्य नहीं है कि आरोपी ने पीड़िता को वैध अभिभावक की देखरेख से बाहर निकाला या पीड़िता को बहकाया।
    • इसलिये, वर्तमान तथ्यों में न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष अपहरण के अपराध को सिद्ध करने में विफल रहा। हालाँकि, न्यायालय ने IPC की धारा 376 (2) (n) एवं (3) और POCSO अधिनियम की धारा 6 के अधीन दोषसिद्धि को यथावत बनाए रखा।
  • दूसरे मुद्दे के संबंध में:
    • न्यायालय ने माना कि POCSO अधिनियम की धारा 6 और IPC की धारा 376 के अधीन अपराधों के तत्त्वावधान में 18 वर्ष से कम उम्र की महिला के साथ सहमति से या बिना सहमति के संभोग बलात्संग के तुल्य है। 
    • न्यायालय ने कहा कि POCSO अधिनियम के अधीन दण्डनीय अपराध को "रोमांटिक संबंध" नहीं माना जा सकता। 
    • न्यायालयों को विधि का पालन और क्रियान्वयन करना चाहिये तथा विधि के विरुद्ध हिंसा कारित नहीं करनी चाहिये।
  • तीसरे मुद्दे के संबंध में:
    • हालाँकि उच्च न्यायालय कुछ मामलों में समझौते या सहमति के आधार पर अभियोजन को रद्द करने के लिये CrPC की धारा 482 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग कर सकता है, लेकिन यह गंभीर अपराधों पर लागू नहीं होता है। 
    • हत्या, बलात्संग, डकैती जैसे गंभीर अपराधों और IPC के अधीन मानसिक विकृति या विशेष विधानों के अधीन नैतिक पतन के अन्य अपराधों के लिये, अपराधियों एवं पीड़ितों के बीच समझौते की कोई विधिक वैधता नहीं है। 
    • भले ही अभियुक्त और पीड़ित (अब वयस्क) किसी समझौते पर पहुँच गए हों, लेकिन उच्च न्यायालय स्थापित विधिक स्थिति को देखते हुए अभियोजन को रद्द नहीं कर सकता था।
  • चौथे मुद्दे के संबंध में:
    • POCSO अधिनियम की धारा 19(6) के अधीन पुलिस को अपराध की सूचना मिलने के 24 घंटे के अंतर्गत मामले की सूचना बाल कल्याण समिति (CWC) और विशेष न्यायालय को देनी होती है। 
    • किशोर न्याय अधिनियम, 2000 (JJA) की धारा 27 बाल कल्याण समिति की स्थापना करती है, जिसके पास जरूरतमंद बालकों की देखभाल, सुरक्षा, उपचार, विकास और पुनर्वास से जुड़े मामलों को संबोधित करने का अधिकार है। 
    • यहाँ तक ​​कि माता-पिता या अभिभावकों वाले बालक भी JJA की धारा 2(14) की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं, यदि उन माता-पिता या अभिभावकों को देखभाल प्रदान करने के लिये अयोग्य माना जाता है। 
    • धारा 46 के अधीन राज्य सरकारों को 18 वर्ष की आयु होने पर देखभाल संस्थानों में रहने वाले बालकों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये नियम बनाने की आवश्यकता होती है। 
    • मुख्यधारा के समाज में पुनः एकीकरण की सुविधा के लिये वित्तीय सहायता व्यापक होनी चाहिये। 
    • इस मामले में, इन सांविधिक प्रावधानों को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया, जिससे ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई जिसने पीड़िता को अपने भविष्य के विषय में सूचित विकल्प अपनाने से रोक दिया। 
    • वयस्क होने के बाद भी पीड़िता को यह अवसर नहीं दिया गया। 
  • POCSO अधिनियम की धारा 19(6) के अनुपालन एवं कार्यान्वयन के संबंध में:
    • असहाय पीड़ितों की देखभाल करना राज्य की जिम्मेदारी है।
    • गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटीकृत मौलिक अधिकार का अभिन्न अंग है।
    • अनुच्छेद 21 में स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार शामिल है।
    • POCSO अधिनियम के अंतर्गत अपराध के अप्राप्तवय पीड़ितों को सम्मानजनक और स्वस्थ जीवन जीने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित किया जाता है।
    • अपराध के परिणामस्वरूप पीड़ितों से उत्पन्न हुए बालकों पर भी यही अधिकार लागू होता है।
    • ऐसे बालकों की देखभाल और पुनर्वास के संबंध में किशोर न्याय अधिनियम के सभी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुरूप हैं।
    • राज्य और उसकी एजेंसियों को जघन्य POCSO अपराधों के बाल पीड़ितों को त्वरित हर संभव सहायता प्रदान करनी चाहिये ताकि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। 
    • ऐसी सहायता प्रदान न करना अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। 
    • पुलिस को POCSO अधिनियम की धारा 19(6) का सख्ती से क्रियान्वयन करना चाहिये। 
    • धारा 19(6) का क्रियान्वयन न करने पर पीड़ित JJ अधिनियम में कल्याणकारी उपायों के अंतर्गत मिलने वाले लाभों से वंचित हो जाते हैं। 
    • धारा 19(6) का अनुपालन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 
    • धारा 19(6) का अनुपालन न करने पर अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है।
  • पाँचवे मुद्दे के संबंध में:
    • न्यायालय ने राज्य को एक विशेषज्ञ समिति गठित करने के निर्देश जारी किये।
    • राज्य सरकार को पीड़िता को दिये जाने वाले लाभों के विषय में सभी भौतिक विवरण प्रदान करने होंगे।
    • समिति को पीड़िता से उसकी पसंद के स्थान पर मिलकर यह सूचित करना होगा कि राज्य सरकार क्या पेशकश कर रही है।
    • समिति को पीड़िता को भारत सरकार की योजना के अंतर्गत उपलब्ध लाभों के विषय में सूचित करना होगा।
    • समिति का कर्त्तव्य पीड़िता को अभियुक्त एवं उसके परिवार के साथ रहने या राज्य सरकार द्वारा दिये जाने वाले लाभों का लाभ उठाने के बीच एक सूचित विकल्प बनाने में सहायता करना है।
    • समिति समन्वयक को सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को सौंपनी होगी।
    • उच्चतम न्यायालय रजिस्ट्री को निर्देश दिया जाता है कि वह इस निर्णय की प्रतियाँ सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के विधि और/या न्याय विभाग के सचिवों को भेजे।
    • इन सचिवों को संबंधित विभागों के सचिवों और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठकें आयोजित करनी होंगी।
    • इन बैठकों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि POCSO अधिनियम की धारा 19(6) और JJ अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधानों के सख्त कार्यान्वयन के लिये उचित निर्देश जारी किये जाएँ।

निष्कर्ष 

इस निर्णय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत राज्य के संवैधानिक दायित्व को प्रकटित करके एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसमें POCSO अधिनियम की धारा 19(6) और किशोर न्याय अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधानों के अनिवार्य कार्यान्वयन के माध्यम से POCSO पीड़ितों को पुनर्वास एवं सहायता प्रदान करना शामिल है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि पीड़ित अपने भविष्य के विषय में सूचित विकल्प चुन सकें।