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सिविल कानून

अपकृत्य विधि के प्रमुख सिद्धांत

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 17-Sep-2024

परिचय:

  • भारत में अपकृत्य विधि मुख्य रूप से ब्रिटिश कॉमन लॉ से लिया गया है, जिसे भारतीय संदर्भ में विशेष रूप से ग्रहण किया गया है।
  • "अपकृत्य" शब्द की उत्पत्ति फ्रांसीसी शब्द "दोष" और लैटिन शब्द "टाॅर्टम" से हुई है, जिसका अर्थ है "विकृत" या "दोषपूर्ण"। अपकृत्य की दो प्रमुख परिभाषाएँ दी गई हैं: एक सर जॉन सैल्मंड द्वारा, जो अपकृत्य को एक सिविल दोष के रूप में वर्णित करता है, जिसे अनिर्धारित क्षति के लिये कॉमन लॉ प्रक्रिया द्वारा सुधारा जाता है तथा दूसरी प्रो. पी.एच. विनफील्ड द्वारा, जो विधि द्वारा निर्धारित कर्त्तव्य के उल्लंघन से उत्पन्न अपकृत्य-दायित्व पर ज़ोर देता है।

अपकृत्य विधि के प्रमुख सिद्धांत:

डैमनम साइन इंजुरिया:

  • यह एक विधिक सूत्र है जिसका सामान्य अर्थ होता है कि बिना नुकसान के क्षति।
  • इस सूत्र के अंतर्गत विधिक अधिकारों के किसी उल्लंघन के बिना वास्तविक क्षति कारित किया गया है।
  • इस सिद्धांत के अनुसार अगर किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों को कोई क्षति कारित नहीं होती है तो कोई दायित्व आरोपित नहीं किया जा सकता है।
  • ग्लूसेस्टर ग्रामर स्कूल (1410) के मामले में, एक स्कूलमास्टर ने एक प्रतिस्पर्द्धी स्कूल खोला, जिससे वादी को अपनी फीस कम करने के लिये विवश होना पड़ा। वादी ने अपने प्रति कारित क्षति के लिये क्षतिपूर्ति मांगा, लेकिन न्यायालय ने निर्णय दिया कि उनके पास कोई उपचार उपलब्ध नहीं है क्योंकि नैतिक रूप से दोषपूर्ण होने के बावजूद, प्रतिवादी के कृत्यों ने वादी के किसी भी विधिक अधिकार का उल्लंघन नहीं किया था।

इंजुरिया साइन डैमनम:

  • यह एक विधिक सूत्र है, जिससे तात्पर्य है कि कोई क्षति कारित नहीं हुआ है, बल्कि नुकसान पहुँचाया गया है।
  • यह सूत्र डैमनम साइन इंजुरिया का विपरीतार्थक है, इसमें व्यक्ति को कोई वास्तविक क्षति कारित नहीं हुआ है, बल्कि उसके विधिक अधिकारों को क्षति कारित की गई है।
  • यह वह सूत्र है जो "जब अधिकार है तो उपाय भी है" की अवधारणा को जन्म देती है।
  • ओमप्रकाश साहनी बनाम जय शंकर चौधरी (2023):
    • न्यायालय ने "इंजुरिया साइन डैमनम" के सिद्धांत को भी स्थापित किया, जिसके अनुसार क्षति का दावा इस बात पर ध्यान दिये बिना किया जा सकता है कि चोट लगी है या नहीं।
    • लॉर्ड होल्ट ने स्वीकार किया कि ऐसे मामलों में अधिक प्रतिपूरक क्षति उचित थी, ताकि भविष्य में लोक सेवकों द्वारा किये जाने वाले कदाचार के विरुद्ध दण्ड एवं निवारक के रूप में कृत्य किया जा सके तथा अनुकरणीय क्षति की अवधारणा को लागू किया जा सके।

प्रतिनिधिक दायित्व का सिद्धांत:

  • प्रतिनिधिक दायित्व’ स्वामी एवं सेवक के संबंधों से संबंधित है। इससे तात्पर्य है कि यह दो लैटिन सूत्रों पर आधारित है।
  • आमतौर पर, एक व्यक्ति अपने दोषपूर्ण कृत्यों के लिये स्वयं उत्तरदायी होता है तथा दूसरों द्वारा किये गए कृत्यों के लिये कोई दायित्व नहीं होता है।
  • हालाँकि कुछ मामलों में प्रतिनिधिक दायित्व, अर्थात् किसी दूसरे व्यक्ति के कृत्य के लिये एक व्यक्ति का दायित्व, उत्पन्न हो सकता है।
  • प्रतिनिधिक दायित्व के आवश्यक तत्त्व इस प्रकार हैं:
    • एक निश्चित प्रकार का संबंध होना चाहिये।
    • दोषपूर्ण कृत्य किसी निश्चित संबंध द्वारा स्थापित होना चाहिये।
    • दोषपूर्ण कृत्य कर्त्तव्य पालन के दौरान किया जाना चाहिये।

पुष्पाबाई पुरषोत्तम उदेशी एवं अन्य बनाम रंजीत जिनिंग एंड प्रेसिंग कंपनी (1977):

  • उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में उच्च न्यायालय के निर्णय को खारिज कर दिया और कहा कि मामले के तथ्यों से यह स्पष्ट है कि दुर्घटना प्रबंधक की लापरवाही के कारण हुई थी, जो अपने कर्त्तव्य पालन के दौरान वाहन चला रहा था तथा इसलिये, प्रतिवादी कंपनी उसकी उपेक्षा के लिये उत्तरदायी थी।

वॉलेन्टी नॉन-फिट इंजुरिया:

  • यह एक विधिक सूत्र है जिसका सामान्य अर्थ है स्वैच्छिक कृत्य के माध्यम से कारित हुई चोट।
  • जब किसी व्यक्ति को पता हो कि उसके कृत्य के कारण क्षति हो सकता है, और फिर भी वह ऐसा कृत्य करता है, तो उसकी चोट के लिये किसी को भी उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा।
  • वॉलेन्टी नॉन फिट इंजुरिया के लिये आवश्यक तत्त्व इस प्रकार हैं:
    • स्वैच्छिक
    • करार (स्पष्ट या निहित)
    • जोखिम का ज्ञान

ओमप्रकाश साहनी बनाम जय शंकर चौधरी (2023):

  • इस मामले ने इंजुरिया साइन डैमनम के सिद्धांत को अच्छी तरह से स्थापित किया। यह मामला इस अवधारणा को स्थापित करता है कि जहाँ कोई अधिकार होता है, तो एक उपचार भी होता है।

कठोर दायित्व एवं पूर्ण दायित्व:

कठोर दायित्व:

  • दायित्व तभी उत्पन्न होता है जब प्रतिवादी द्वारा क्षति को रोकने के लिये सभी सावधानियाँ बरती गई हों लेकिन फिर भी क्षति कारित होती है।

कठोर दायित्व का आवश्यक तत्त्व:

  • खतरनाक वस्तु को प्रतिवादी द्वारा अपनी भूमि पर खरीदा जाना चाहिये।
  • खतरनाक वस्तु को प्रतिवादी की भूमि से बाहर ले जाना चाहिये।
  • भूमि का उपयोग अप्राकृतिक होना चाहिये।

कठोर दायित्व के अपवाद:

  • वादी ने सहमति दे दी है।
  • ईश्वर का कृत्य
  • अजनबी का कृत्य
  • किसी सांविधिक प्राधिकरण द्वारा किया गया कृत्य
  • वादी की चूक

राइलैंड्स बनाम फ्लेचर (1868):

  • इस मामले ने कठोर दायित्व के सिद्धांत को किसी व्यक्ति की कठोर उत्तरदायित्व के रूप में स्थापित किया, भले ही कोई उपेक्षा कारित न की गई हो।
  • इस मामले में स्थापित कठोर दायित्व के सिद्धांत को अपकृत्य विधि में सामान्य उपेक्षा मानक से विचलन के रूप में देखा गया, जिससे संभावित खतरनाक गतिविधियों के लिये देखभाल का एक उच्च मानक बना।

पूर्ण दायित्व:

  • जब कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति पर कोई खतरनाक वस्तु रखता है तथा वह खतरनाक वस्तु ज़मीन से बाहर निकल जाता है तो ऐसे व्यक्ति को ऐसे कृत्य के लिये पूरी तरह उत्तरदायी माना जाएगा।
  • इसके तहत दोषपूर्ण कृत्य कारित करने वाला व्यक्ति प्राकृतिक आपदा का बचाव नहीं कर सकता।

एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (1986):

  • इस मामले को ओलियम गैस रिसाव मामले के नाम से भी जाना जाता है।
  • एम.सी. मेहता ने दिल्ली में श्रीराम खाद्य एवं उर्वरक उद्योग से ओलियम गैस के रिसाव के संबंध में उच्चतम न्यायालय में मामला दाखिल किया।
  • इस मामले ने पर्यावरण विधि में "पूर्ण दायित्व" की अवधारणा को जन्म दिया, जिसके अंतर्गत उद्योगों को उनके संचालन से होने वाले किसी भी क्षति के लिये उत्तरदायी बनाया गया, चाहे उपेक्षा किसी भी तरह की क्यों न हो।

निष्कर्ष:

अपकृत्य विधि के अधिकांश सिद्धांत ब्रिटिश लॉ से उत्पन्न हुए हैं, लेकिन भारतीय न्यायालयों ने भारतीय समाज के अनुसार आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये उन्हें अपनाया है। अपकृत्य आम तौर पर कर्त्तव्य का उल्लंघन है। कोई भी व्यक्ति जो विधिक क्षति से पीड़ित है, वह अपकृत्य विधि के अंतर्गत उपचार का अधिकारी होगा।