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सिविल कानून

फारूक बनाम संध्या एंथ्रेपर कुरिसिंगल एवं अन्य (2017)

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 04-Dec-2024

परिचय

यह भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है।

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति मोहन एम. शांतनगौदर की दो न्यायाधीश पीठ द्वारा सुनाया गया।

तथ्य

  • वर्ष 2003 में दो भागीदारों ने एक भागीदारी भागीदारी फर्म के तीसरे भागीदार के विरुद्ध वाद दायर किया।
  • इस वाद का उद्देश्य भागीदारी विलेख के तहत सभी भागीदारों की सहमति के बिना तीसरे भागीदार द्वारा की गई संपत्ति की बिक्री को रद्द करना था।
  • प्रतिवादी ने आपत्ति उठाते हुए तर्क दिया कि यह वाद भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 के अंतर्गत वर्जित है, जो अपंजीकृत फर्मों और उनके भागीदारों को न्यायालय के माध्यम से अधिकारों को लागू करने से रोकता है।
  • ट्रायल कोर्ट ने माना कि धारा 69 के तहत वाद वर्जित है, क्योंकि दावा भागीदारी विलेख से उत्पन्न हुआ था, न कि स्वतंत्र स्वामित्व से।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलटते हुए कहा कि वादी भागीदार के रूप में नहीं बल्कि सह-मालिक के रूप में कार्य कर रहे थे, जिससे यह वाद स्वीकार्य है।
  • इसलिये, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष था।

शामिल मुद्दा

  • क्या यह समझौता भागीदारी संविदा या भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 (IPA) के तहत उत्पन्न अधिकारों को लागू करता है?
  • क्या भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 के अंतर्गत यह मामला लागू होता है?

टिप्पणियाँ

  • न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि शिकायत का आधार मुख्यतः भागीदारी विलेख था, जिसमें एक विशेष खंड का उल्लेख किया गया था, जो सभी साझेदारों की सहमति के बिना संपत्ति के हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाता है।
  • अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि यह दावा भागीदारी समझौते से उत्पन्न हुआ, न कि स्वतंत्र स्वामित्व अधिकारों से।
  • न्यायालय ने माना कि धारा 69 लागू होती है और इसलिये वाद निरस्त किया जाता है।

निष्कर्ष

  • इस संदर्भ में न्यायालय ने भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 में वर्णित स्थापित सिद्धांत को पुनः प्रस्तुत किया कि कोई फर्म न्यायालय में पंजीकृत न होने पर कोई वाद दायर नहीं कर सकती।

[मूल निर्णय]