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नवीनतम निर्णय

जून 2024

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 25-Jul-2024

दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम तेजपाल एवं अन्य

Delhi Development Authority v. Tejpal & Ors.

निर्णय की तिथि/आदेश– 17.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 3 न्यायाधीश

पीठ की संरचना- न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ

मामला संक्षेप में:

  • यह मामला भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के अंतर्गत दिल्ली सरकार द्वारा प्रारंभ की गई भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया से संबंधित है।
  • वर्ष 1957 से वर्ष 2006 के दौरान भूमि अधिग्रहण के लिये विभिन्न अधिसूचनाएँ निर्गत की गईं तथा क्षतिपूर्ति निर्धारित करने के लिये पंचाट पारित किये गए।
  • कुछ मामलों में क्षतिपूर्ति की राशि राजकोष में जमा कर दी गई तथा कुछ मामलों में सरकारी संस्थाओं द्वारा कब्ज़ा नहीं लिया जा सका क्योंकि भूस्वामियों ने कार्यवाही को चुनौती दी तथा स्थगन का आदेश प्राप्त किया।
  • बाद में 1894 के अधिनियम को 2013 के अधिनियम द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया, इस अधिनियम में धारा 24 को शामिल किया गया, जिसमें प्रावधान था कि पूर्ववर्ती व्यवस्था के अंतर्गत प्रारंभ की गई भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही कुछ मामलों में समाप्त मानी जाएगी, जिसमें क्षतिपूर्ति न दिये जाने या कब्ज़ा न लिये जाने की स्थिति भी शामिल है।
  • धारा 24 की व्याख्या कई निर्णयों में की गई, जैसे पुणे नगर निगम बनाम हरक चंद मिस्त्रीमल सोलंकी (2014), श्री बालाजी नगर आवासीय संघ बनाम तमिलनाडु राज्य (2015), इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम शैलेंद्र (2018) और इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम मनोहरलाल (2020)।
  • इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम मनोहरलाल (2020) के मामले में 5 न्यायाधीशों की पीठ ने पुणे नगर निगम बनाम हरक चंद मिस्त्रीमल सोलंकी (2014) के मामले को अपास्त कर दिया।
  • इस निर्णय के परिणामस्वरूप, दिल्ली सरकार की संस्थाओं (DDC एवं DMRC) ने दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेशों के विरुद्ध अपील की, जिसमें पुणे नगर निगम एवं श्री बालाजी नगर आवासीय संघ के आधार पर अधिग्रहण की कार्यवाही को समाप्त घोषित कर दिया गया था।
  • चूँकि अधिकांश मामले परिसीमा समाप्त होने के बाद संस्थित किये गए थे, इसलिये न्यायालय के समक्ष वाद यह था कि क्या विधि में बाद में हुए परिवर्तन के आधार पर विलंब को क्षमा किया जा सकता है।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने सबसे पहले यह टिप्पणी की कि परिसीमा अवधि की विधि इस विधिक सूत्र पर आधारित है कि विजिलेंटिबस एट नॉन डॉरमेंटिबस ज्यूरा सबवेनियंट, अर्थात् विधि उन लोगों की सहायता करता है जो अपने अधिकारों से वंचित रहते हैं।
  • परिसीमा अवधि अधिनियम, 1963 (LA) की धारा 5 न्यायालय को परिसीमा अवधि बढ़ाने का विवेकाधिकार प्रदान करती है, यदि आवेदक यह दिखा सके कि उसके पास निर्धारित अवधि के अंदर अपील या आवेदन प्रस्तुत न करने के लिये पर्याप्त कारण थे।
  • धारा 5 में दो तत्त्वों का विश्लेषण आवश्यक है: (a) क्या पर्याप्त कारण दिये गए हैं; (b) क्या अपील/आवेदन “निर्धारित अवधि के अंदर” दायर न करने के लिये ऐसा कारण दर्शाया गया है।
  • न्यायालय ने निम्नलिखित आधारों पर विलंब हेतु क्षमा की अनुमति नहीं दी:
    • सबसे पहले, न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता को यह सिद्ध करना होगा कि वे निर्धारित अवधि के दौरान सतर्क थे तथा निर्धारित अवधि के दौरान उत्पन्न हुए “पर्याप्त कारण” की वजह से वे अपील दायर नहीं कर सके।
      • परिसीमा अवधि के अंदर उत्पन्न होने वाले पर्याप्त कारण को दर्शाने की जगह, वे विलंब को उचित ठहराने के लिये ऐसी अवधि की समाप्ति के बाद की घटना का उपयोग कर रहे हैं।
    • दूसरा, न्यायालय ने कहा कि किसी पक्ष को परिसीमा अवधि के दौरान जानबूझकर की गई निष्क्रियता का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
    • तीसरा, न्यायालय ने कहा कि यदि बाद में विधि में परिवर्तन को विलंब हेतु क्षमा करने के वैध आधार के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो यह अत्यधिक समस्याओं को उत्पन्न कर सकता है।
      • ऐसा इसलिये है क्योंकि इसका परिणाम यह होगा कि याचिकाकर्त्ता उन सभी मामलों में न्यायालय में अपील करेंगे, जहाँ पर जिस निर्णय पर विश्वास किया गया था, उसे बाद में अपास्त कर दिया गया था।
      • याचिकाकर्त्ता न्यायालय में अपील करेंगे तथा विधि की नई व्याख्या के आधार पर राहत की मांग करेंगे।
      • साथ ही, कार्यवाही का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं होगा तथा मामलों का पुनः विचारण किया जा सकता है।
    • चौथा, न्यायालय ने कहा कि जब किसी मामले को खारिज कर दिया जाता है तो पूर्वनिर्णय की बाध्यकारी प्रकृति समाप्त हो जाती है तथा पक्षों के मध्य विवाद को खारिज करने के कारण इसे विवाद विहीन माना जाता है।
  • हालाँकि, न्यायालय ने अंततः जनहित के आधार पर परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत विलंब को क्षमा कर दिया, लेकिन अन्य तर्कों को स्वीकार नहीं किया।

प्रासंगिक प्रावधान:

परिसीमा अधिनियम (LA) की धारा 5- विलंब हेतु क्षमा:

  • कुछ मामलों में निर्धारित अवधि का विस्तार:
    • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश XXI के किसी भी प्रावधान के अंतर्गत आवेदन के अतिरिक्त कोई अपील या कोई आवेदन, निर्धारित अवधि के बाद स्वीकार किया जा सकता है, यदि अपीलकर्त्ता या आवेदक न्यायालय को संतुष्ट करता है कि उसके पास ऐसी अवधि के अंदर अपील या आवेदन न करने के लिये पर्याप्त कारण था।
    • स्पष्टीकरण- यह तथ्य कि अपीलार्थी या आवेदक को विहित अवधि का पता लगाने या उसकी गणना करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, पद्धति या निर्णय द्वारा पथभ्रमित किया गया था, इस धारा के अर्थ में पर्याप्त कारण हो सकता है।

[मूल  निर्णय]


अंकुर चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य

Ankur Chaudhary v. State of Madhya Pradesh

निर्णय की तिथि/आदेश– 08.06.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन

मामला संक्षेप में:

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता स्वापक औषधि एवं मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम , 1985 (NDPS) की धारा 8 के साथ शमनीय धारा 22 एवं 29 के अधीन दर्ज FIR के विषय में पिछले दो वर्षों से अभिरक्षा में था।
  • ज़मानत के लिये न्यायालय में याचिका दायर की गई थी।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उचित समय के अंदर वाद पूर्ण न होने के कारण लंबे समय तक कारावास में रहना संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मौलिक अधिकार का हनन है।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि पंच साक्षियों ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन नहीं किया है तथा तथ्यों के आधार पर न्यायालय विवेचना अधिकारी को पंच साक्षी मानने के लिये इच्छुक नहीं है।
  • इसलिये इस मामले में ज़मानत स्वीकृत की गई।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 21– जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार:
    • किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।

[मूल निर्णय]


NCT दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP एवं अन्य

Government of NCT of Delhi & Anr v. M/s BSK Realtors LLP & Anr

निर्णय की तिथि/आदेश– 17.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 3 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ

मामला संक्षेप में:

  • यह मामला दिल्ली के नियोजित विकास के लिये भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के अंतर्गत दिल्ली सरकार द्वारा प्रारंभ की गई भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया से संबंधित था।
  • इसके बाद, 1894 के अधिनियम को 2013 के अधिनियम द्वारा प्रतिस्थापित किया गया, जिसमें सुधार लाए गए तथा धारा 24 में संशोधन किया गया।
  • धारा 24 का निर्वचन उच्चतम न्यायालय के कई निर्णयों में किया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुछ प्रभावित भूमि स्वामियों की रिट याचिकाओं को स्वीकार किया तथा उनसे संबंधित भूमि अधिग्रहण कार्यवाही को समाप्त घोषित कर दिया।
  • उच्च न्यायालय के पूर्व निर्णयों को उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील द्वारा प्रस्तुत किया गया। मुकदमेबाज़ी के इस "प्रथम चरण" के परिणामस्वरूप अलग-अलग परिणाम सामने आए, जिसमें कुछ सिविल अपीलों को खारिज करना भी शामिल है।
  • चार वर्ष बाद 2020 में न्यायालय ने पूर्व न्यायिक निर्णयों में दिये गए निर्णय को पलट दिया तथा इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम मनोहरलाल (2020) में निर्णयज विधि का प्रतिमान स्थापित किया।
    • यह माना गया कि अधिग्रहण की कार्यवाही तभी समाप्त घोषित की जा सकती है जब दोनों शर्तें, अर्थात् भूमि स्वामियों को क्षतिपूर्ति का भुगतान न किया जाना तथा अधिग्रहित भूमि पर राज्य का भौतिक कब्ज़ा लेने में विफल होना, पूर्ण हो जाएँ।
  • परिणामस्वरूप दिल्ली सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय के उन निर्णयों पर पुनर्विचार करने की मांग की, जिसमें अधिग्रहण की कार्यवाही को समाप्त घोषित किया गया था।
  • इस चरण में दायर एस. एल. पी./अपील/एम. ए. मुकदमेबाज़ी के “द्वितीय चरण” का गठन करते हैं।
  • इस मामले में न्यायालय ने दो महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत एवं विलय के सिद्धांत की प्रयोज्यता पर चर्चा की।

निर्णय:

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रेस ज्यूडिकाटा एक तकनीकी सिद्धांत है जो समान पक्षों को पहले से निर्धारित मुद्दों पर पुनः वाद संस्थित करने से रोकता है।
    • तथापि, न्यायालय ने कहा कि रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत उन स्थितियों में सख्ती से लागू नहीं होता जहाँ व्यापक सार्वजनिक हित दाँव पर लगा हो।
  • न्यायालय ने विलय के सिद्धांत की अवधारणा पर भी विचार किया।
    • यह माना गया कि विलय का सिद्धांत सार्वभौमिक या असीमित अनुप्रयोग का नहीं है।
    • उच्च मंच द्वारा प्रयोग किये जाने वाले अधिकार क्षेत्र की प्रकृति एवं चुनौती की विषय-वस्तु या विषय-वस्तु को ध्यान में रखना होगा या जो रखी जा सकती थी।
    • यदि विलय भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत इस न्यायालय में निहित असाधारण संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग है, तो सिद्धांत के संबंध में अपवाद बनाया गया है।
  • जनहित की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने माना कि यदि विलय के सिद्धांत को यंत्रवत रूप से लागू किया जाता है तो इसके परिणाम अपरिवर्तनीय होंगे।
  • न्यायालय ने इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 142 का हवाला देकर विलय के सिद्धांत को लागू नहीं किया।

प्रासंगिक प्रावधान:

CPC की धारा 11– रेस ज्यूडिकाटा:

  • कोई भी न्यायालय ऐसे किसी वाद या विवाद्यक तथ्य का विचारण नहीं करेगा जिसमें प्रत्यक्षतः एवं सारतः विवाद्यक विषय उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले उन्हीं पक्षकारों के मध्य के जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हैं, किसी पूर्ववर्ती वाद में भी ऐसे न्यायालय में प्रत्यक्षतः एवं सारतः विवाद्य रहा है, जो ऐसे पश्चात्वर्तीवाद का या उस वाद का, जिसमें ऐसा विवाद्यक वाद में उठाया गया है, विचारण करने के लिये सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सूना जा चुका है तथा अंतिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका है।
  • स्पष्टीकरण I- पूर्व वाद से तात्पर्य ऐसे वाद से होगा जिसका निर्णय प्रश्नगत वाद से पूर्व में हो चुका है, चाहे वह उससे पहले संस्थित किया गया हो या नहीं।
  • स्पष्टीकरण II- ​​इस धारा के प्रयोजनों के लिये, किसी न्यायालय की सक्षमता का निर्धारण ऐसे न्यायालय के निर्णय से अपील के अधिकार के विषय में किसी उपबंध पर ध्यान दिये बिना किया जाएगा।
  • स्पष्टीकरण III- ​​उपर्युक्त उल्लिखित विषय पूर्ववर्ती वाद में एक पक्षकार द्वारा आरोपित किया गया होगा तथा दूसरे पक्षकार द्वारा स्पष्टतः या अंतर्निहित रूप से अस्वीकार किया गया होगा या स्वीकार किया गया होगा।
  • स्पष्टीकरण IV- कोई भी विषय जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में बचाव या प्रतिवाद का आधार बनाया जा सकता था और बनाया जाना चाहिये था, ऐसे वाद में प्रत्यक्षतः तथा सारतः विवाद्यक विषय माना जाएगा।
  • स्पष्टीकरण V- वादपत्र में दावा किया गया कोई अनुतोष, जो डिक्री द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया है, इस धारा के प्रयोजनों के लिये अस्वीकार किया गया समझा जाएगा।
  • स्पष्टीकरण VI- जहाँ व्यक्ति किसी सार्वजनिक अधिकार या अपने तथा अन्य लोगों के लिये सामूहिक रूप से दावा किये गए निजी अधिकार के संबंध में सद्भावपूर्वक वाद संस्थित करते हैं, वहाँ ऐसे अधिकार में हितबद्ध सभी व्यक्ति, इस धारा के प्रयोजनों के लिये, ऐसे वाद संस्थित करने वाले व्यक्तियों के अधीन दावा करते समझे जाएंगे।
  • व्याख्या VII-इस धारा के उपबंध किसी डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही को लागू होंगे तथा इस धारा में किसी वाद, विवाद्यक या पूर्व वाद के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे क्रमशः डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही, ऐसी कार्यवाही में उठने वाले प्रश्न एवं उस डिक्री के निष्पादन के लिये पूर्व कार्यवाही के प्रति निर्देश हैं।
  • स्पष्टीकरण VIII- ​​कोई मुद्दा, जो सीमित अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा, जो ऐसे मुद्दे पर निर्णय करने के लिये सक्षम है, सुना गया है तथा अंतिम रूप से निर्णय दिया गया है, किसी पश्चातवर्ती वाद में रेस ज्यूडिकाटा के रूप में कार्य करेगा, भले ही सीमित अधिकारिता वाला ऐसा न्यायालय ऐसे पश्चातवर्ती वाद या उस वाद पर विचारण करने के लिये सक्षम न हो, जिसमें ऐसा मुद्दा पश्चातवर्ती उठाया गया हो।

[मूल निर्णय]


XYZ बनाम कर्नाटक राज्य

XYZ v. State of Karnataka

निर्णय की तिथि/आदेश– 10.06.2023

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार एवं ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

मामला संक्षेप में:

  • प्रतिवादी संख्या 2 पर अप्राप्तवय (पीड़िता) का यौन उत्पीड़न करने का आरोप है।
  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने पहले प्रतिवादी संख्या 2 को चिकित्सकीय परीक्षण से गुज़रने की आवश्यकता वाले नोटिस पर रोक लगा दी थी,
  • यौन संभोग का संकेत देने वाली चिकित्सकीय रिपोर्ट एवं दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 164 के अधीन पीड़िता का बयान, आरोपी को फँसाता है,
  • न्यायालय ने आदेश दिया कि कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया स्थगन निरस्त किया जाता है,
  • प्रतिवादी संख्या 2 को चल रही विवेचना के संबंध में चिकित्सकीय जाँच कराने के लिये विवेचना अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश दिया जाता है।
  • विवेचना अधिकारी को निर्देश दिया जाता है कि वह स्थापित प्रक्रियाओं के अनुसार तथा अभियुक्त के अधिकारों का उचित ध्यान रखते हुए उक्त जाँच करें।
  • यह आदेश इस मामले में अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा जारी किसी भी पूर्व विरोधाभासी निर्देश को निरस्त करता है।

निर्णय:

  • पीठ ने कहा कि किसी भी मामले में, उसका यह स्पष्ट बयान कि वह मेडिकल जाँच नहीं करवाना चाहता है, यह दर्शाता है कि वह जाँच में सहयोग करने के लिये तैयार नहीं है।
  • आगे कहा गया कि प्रतिवादी संख्या 2 को CrPC की धारा 41-A के अधीन जारी नोटिस का पालन करना चाहिये तथा जाँच अधिकारी के निर्देशानुसार स्वयं को मेडिकल जाँच के लिये प्रस्तुत करना चाहिये। वह बिना किसी ठोस आधार के उस मेडिकल सुविधा के विषय में आशंका व्यक्त नहीं कर सकता है, जिसके लिये उसे रेफर किया जा रहा है।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 41A- पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने की सूचना:
    (1) पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में, जहाँ धारा 41 की उपधारा (1) के उपबंधों के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, नोटिस जारी करके उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उचित संदेह है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, अपने समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर, जैसा नोटिस में विनिर्दिष्ट किया जाए, उपस्थित होने का निर्देश देगा।
    (2) जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसा नोटिस जारी किया जाता है, वहाँ उस व्यक्ति का यह कर्त्तव्य होगा कि वह नोटिस की शर्तों का पालन करे।
    (3) जहाँ ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है तथा अनुपालन करना जारी रखता है, उसे नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के संबंध में तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, जब तक कि दर्ज किये जाने वाले कारणों से पुलिस अधिकारी की यह राय न हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये।
    (4) जहाँ ऐसा व्यक्ति किसी भी समय नोटिस की शर्तों का पालन करने में असफल रहता है या अपनी पहचान बताने के लिये अनिच्छुक है, वहाँ पुलिस अधिकारी, सक्षम न्यायालय द्वारा इस संबंध में पारित आदेशों के अधीन रहते हुए, नोटिस में उल्लिखित अपराध के लिये उसे गिरफ्तार कर सकेगा।

[मूल  निर्णय]


कस्तूरीपांडियन बनाम RBL बैंक लिमिटेड

Kasthuripandian v. RBL Bank Limited

निर्णय की तिथि/आदेश– 24.06.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं राजेश बिंदल  

मामला संक्षेप में:

  • चेक अनादरण का आरोप लगाते हुए परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत शिकायत दर्ज की गई थी।
  • आरोपी कस्तूरीपांडियन ने इस न्यायालय में उक्त शिकायत को वैकल्पिक न्यायिक मंच पर स्थानांतरित करने के लिये याचिका दायर की।
  • यह न्यायालय चेक अनादरण मामले में आरोपी के ऐसे स्थानांतरण की मांग करने के अधिकार को मान्यता देता है।
  • अब न्यायालय को कस्तूरीपांडियन की याचिका की वैधता निर्धारित करने के लिये उसके गुण-दोष की जाँच करनी होगी तथा यह भी तय करना होगा कि अनुरोधित स्थानांतरण को स्वीकृति दी जानी चाहिये या नहीं।

निर्णय:

  • आरोपी द्वारा दायर स्थानांतरण याचिका खारिज की जाती है।
  • न्यायालय ने पाया कि चेक अनादरण मामले में आरोपी के पास शिकायत को वैकल्पिक फोरम में स्थानांतरित करने का अधिकार नहीं है।
  • न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों को स्थानांतरित करने की शक्ति अभियुक्त द्वारा किये गए अनुरोध तक विस्तारित नहीं होती है, क्योंकि चेक अनादरण के मामलों में फोरम का चयन मुख्य रूप से शिकायतकर्त्ता के पास निहित होता है।
    • अभियुक्त को व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट मांगने का अधिकार है।
  • ऐसी छूट के लिये कोई भी आवेदन उस मूल अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय में किया जाएगा तथा वहाँ उसका निर्णय किया जाएगा जहाँ शिकायत दर्ज की गई है।

प्रासंगिक प्रावधान:

धारा 138: खाते में धनराशि की कमी आदि के कारण चेक का अनादर:

  • जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी बैंक में अपने खाते से किसी अन्य व्यक्ति को किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णतः या भागतः उन्मोचन के लिये किसी धनराशि का भुगतान करने के लिये निकाला गया कोई चेक बैंक द्वारा बिना भुगतान किये वापस कर दिया जाता है, या तो इसलिये कि उस खाते में जमा धनराशि चेक का सम्मान करने के लिये अपर्याप्त है या यह उस बैंक के साथ किये गए करार द्वारा उस खाते से भुगतान की जाने वाली धनराशि से अधिक है, तो ऐसे व्यक्ति के विषय में यह समझा जाएगा कि उसने अपराध किया है तथा उसे इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, दो वर्ष तक की अवधि के कारावास या चेक की धनराशि के दोगुने तक के अर्थदण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा: परंतु इस धारा का कोई प्रावधान तब तक लागू नहीं होगा जब तक कि—
    (a) चेक बैंक में उसके आहरण की तिथि से छह माह की अवधि के अंदर या उसकी वैधता की अवधि के अंदर, जो भी पहले हो, प्रस्तुत कर दिया गया हो;
    (b) चेक के प्राप्तकर्त्ता या धारक, जैसा भी मामला हो, चेक के निष्पादनकर्त्ता को बैंक से चेक के अदत्त रूप में वापस आने के संबंध में सूचना प्राप्त होने के तीस दिन के अंदर लिखित रूप में सूचना देकर उक्त धनराशि के भुगतान की मांग करता है; तथा
    (c) ऐसे चेक का लेखक उक्त सूचना की प्राप्ति के पंद्रह दिनों के अंदर, चेक के प्राप्तकर्त्ता को या, जैसा भी मामला हो, धारक को उक्त धनराशि का भुगतान करने में विफल रहता है।
  • स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिये, "ऋण या अन्य देयता" का अर्थ विधिक रूप से लागू करने योग्य ऋण या अन्य देयता है।

[मूल निर्णय]


रविकुमार धनसुखलाल मेहता एवं अन्य बनाम गुजरात उच्च न्यायालय एवं अन्य

Ravikumar Dhansukhlal Maheta & Anr. v. High Court of Gujarat & Ors.

निर्णय की तिथि/आदेश: 17.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या: 3 न्यायाधीश

पीठ की संरचना: मुख्य न्यायमूर्ति धनंजय वाई. चंद्रचूड, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

मामला संक्षेप में:

  • अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ बनाम भारत संघ (2002) ने उच्च न्यायिक सेवा में पदोन्नति के लिये योग्यता-आधारित मानदंडों पर ज़ोर दिया, ज़िला न्यायाधीश के पद पर नियुक्तियों में 'योग्यता-सह-वरिष्ठता' की वकालत की।
  • गुजरात उच्च न्यायालय ने 65% कोटे के अंतर्गत सिविल न्यायाधीशों (वरिष्ठ प्रभाग) से जिला न्यायाधीशों के लिये 68 रिक्तियों की घोषणा की। पदोन्नति प्रक्रिया में 2005 के नियमों के नियम 5(1)(I) के अनुसार उपयुक्तता परीक्षण शामिल था।
  • पदोन्नति के लिये 'विचार का क्षेत्र' 205 वरिष्ठतम सिविल न्यायाधीशों (वरिष्ठ डिवीज़न) की सूची के आधार पर बनाया गया था, जो रिक्तियों की संख्या से तीन गुना अधिक नहीं थी।
  • इस क्षेत्र में उम्मीदवारों की उपयुक्तता का मूल्यांकन लिखित परीक्षा (वस्तुनिष्ठ प्रकार - MCQ), पिछले पाँच वर्षों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ACR), पिछले पाँच वर्षों में औसत निपटान दर एवं पिछले वर्ष दिये गए निर्णयों के मूल्यांकन के माध्यम से किया गया था।
  • पदोन्नति के लिये अर्हता प्राप्त करने के लिये उम्मीदवारों को प्रत्येक घटक में कम-से-कम 40% अंक एवं सभी चार में न्यूनतम कुल 50% अंक प्राप्त करने की आवश्यकता थी।
  • लिखित परीक्षा के बाद, 175 उम्मीदवारों ने प्रारंभिक चरण पास कर लिया। इसके बाद, ACR, निर्णय एवं निपटान दरों के मूल्यांकन के परिणामस्वरूप 149 उम्मीदवार पात्रता मानदंड को पूरा करने वाले योग्य पाए गए।
  • उच्च न्यायालय ने चयन सूची को अंतिम रूप दिया, जिसमें 149 उम्मीदवारों में से वरिष्ठतम 68 योग्य उम्मीदवारों को ज़िला न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत किया गया।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में अपील किया।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों को पदोन्नति की मांग करने का कोई अंतर्निहित अधिकार नहीं है; न्यायिक समीक्षा अनुच्छेद 16 के समानता प्रावधान के अनुपालन को सुनिश्चित करने तक सीमित है।
  • उच्चतम न्यायालय ने योग्यता-सह-वरिष्ठता सिद्धांतों पर जोर देते हुए 65% कोटा के अंतर्गत वरिष्ठ सिविल न्यायाधीशों से ज़िला न्यायाधीशों के लिये गुजरात उच्च न्यायालय की 2023 की पदोन्नति अनुशंसा की वैधता को यथावत् रखा।
  • संविधान में पदोन्नति के मानदंड परिभाषित नहीं किये गए हैं, निर्णय विधायिका या कार्यपालिका पर छोड़ दिये गए हैं, न्यायालय केवल अनुच्छेद 16 के उल्लंघन के आधार पर हस्तक्षेप कर सकते हैं।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने अनुच्छेद 14 के उल्लंघन एवं गुजरात राज्य न्यायिक सेवा नियम, 2005, नियम 5 के साथ विसंगतियों का हवाला देते हुए ज़िला न्यायाधीश पदोन्नति के लिये गुजरात उच्च न्यायालय की चयन सूची को चुनौती दी।

प्रासंगिक प्रावधान:

भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 16: सार्वजनिक रोज़गार के मामलों में अवसर की समानता।

  • (1) राज्य के अधीन किसी पद पर नियुक्ति या नियोजन से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता होगी।
  • (2) किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के लिये अपात्र नहीं ठहराया जाएगा या उसके साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।
  • (3) इस अनुच्छेद का कोई उपबंध संसद को कोई ऐसी विधि निर्माण करने से नहीं रोकेगी जो किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र की सरकार या उसमें किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन किसी वर्ग या वर्गों के नियोजन या नियुक्ति के संबंध में ऐसे नियोजन या नियुक्ति से पहले उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र में निवास के संबंध में कोई अपेक्षा विहित करती हो।
  • (4) इस अनुच्छेद का कोई उपबंध राज्य को नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये कोई प्रावधान करने से नहीं रोकेगी, जिसका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है।
  • (4A) इस अनुच्छेद का कोई उपबंध राज्य को अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, राज्य के अधीन सेवाओं में किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर पारिणामिक ज्येष्ठता सहित पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिये कोई प्रावधान करने से नहीं रोकेगी।
  • (4B) इस अनुच्छेद का कोई प्रावधान राज्य को किसी वर्ष की किन्हीं न भरी गई रिक्तियों को, जो खंड (4) या खंड (4क) के अधीन किये गए आरक्षण के किसी उपबंध के अनुसार उस वर्ष में भरी जाने के लिये आरक्षित हैं, किसी उत्तरवर्ती वर्ष या वर्षों में भरी जाने वाली रिक्तियों के पृथक वर्ग के रूप में विचार करने से नहीं रोकेगी तथा ऐसी वर्ग की रिक्तियों पर उस वर्ष की रिक्तियों के साथ विचार नहीं किया जाएगा जिसमें वे भरी जा रही हैं, ताकि उस वर्ष की कुल रिक्तियों की संख्या पर पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा अवधारित की जा सके।
  • (5) इस अनुच्छेद का कोई उपबंध किसी ऐसे विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी जो यह उपबंध करती है कि किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था के कार्यकलापों से संबंधित किसी पद पर आसीन व्यक्ति या उसके शासी निकाय का कोई सदस्य किसी विशेष धर्म को मानने वाला या किसी विशेष संप्रदाय से संबंधित व्यक्ति होगा।
  • (6) इस अनुच्छेद का कोई प्रावधान राज्य को, विद्यमान आरक्षण के अतिरिक्त एवं प्रत्येक श्रेणी में पदों के अधिकतम दस प्रतिशत के अधीन रहते हुए, खंड (4) में उल्लिखित वर्गों के अतिरिक्त नागरिकों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये कोई प्रावधान करने से नहीं रोकेगी।

[मूल निर्णय]