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नवीनतम निर्णय

अगस्त 2024

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 10-Oct-2024

  प्रेम लाल आनंद एवं अन्य बनाम नरेंद्र कुमार एवं अन्य  

निर्णय/आदेश की तिथि – 07.08.2024

न्यायपीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति संजय करोल

संक्षेप में मामला:

  • दावेदार-अपीलार्थी क्रमांक 1 अपनी पत्नी के साथ मोटरसाइकिल से यात्रा कर रहे थे और जब वे महरौली गाँव को पार कर रहे थे तो वे सामने से तीव्र गति में आ रहे दो ट्रैक्टरों से टकरा जाते हैं।
  • इस दुर्घटना में दावेदार का जबड़ा टूट गया और पैर में फ्रैक्चर सहित गंभीर चोटें आईं।
  • दुर्घटना के अपीलार्थी की पत्नी की मौके पर ही मृत्यु हो गई।
  • दावेदार और उसकी मृतक पत्नी को उनके व्यवसाय जिसका नाम मेसर्स सोनाली फैब्रिक्स था, से संयुक्त रूप से 5,000 रुपए अर्जित होते थे।
  • यह दलील दी गई कि पूरा व्यवसाय, जिससे वर्ष 1994 में 60,000 और वर्ष 1993 में 50,000 रुपए का लाभ अर्जित होता था, उनकी पत्नी की मृत्यु के कारण, नष्ट हो गया।
  • दावेदार ने संबंधित मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण के समक्ष 12,00,000 रुपए के प्रतिकर दावा किया।
  • दावेदार-अपीलार्थी(यों) ने मुआवज़े/प्रतिकर की राशि में वृद्धि करने हेतु उच्च न्यायालय का रुख किया।
  • दावेदार-अपीलार्थी(यों) ने उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अनुरोध किया।

अधिमत:

  • न्यायालय ने सम्मिश्र एवं अभिदायी मुआवज़े की संकल्पना पर चर्चा की।
  • इस मामले में रिकॉर्ड से सिद्ध हुआ कि ट्रैक्टर की गति धीमी थी, जिसके कारण अपीलार्थी नंबर 1 ने तत्परता से ओवरटेक करने का प्रयास किया।
  • अन्य (दूसरे) ट्रैक्टर के चालक ने जल्दबाज़ी और लापरवाही का कार्य करते हुए न केवल ओवरस्पीडिंग की बल्कि उसका वाहन भी गलत दिशा में था जिसके कारण वाहन टकरा गए।
  • केवल इसलिये कि कोई व्यक्ति किसी वाहन को ओवरटेक करने का प्रयास कर रहा था, इसे जल्दबाज़ी या लापरवाही का कार्य नहीं अभिनिर्धारित किया जा सकता।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्रदत्त तथ्यों के दृष्टिगत यह सिद्ध होता है कि उल्लंघनकर्त्ता ने लापरवाही से वाहन चलाया किंतु केवल इसलिये कि उसने ओवरटेक किया, वह योगदायी उपेक्षा (Contributory Negligence) के लिये दायी नहीं होगा।
  • अतः उच्चतम न्यायालय ने परिस्थिति के दृष्टिगत अपील को अनुज्ञात किया।

सुसंगत उपबंध:

  • अपकृत्य विधि - उपेक्षा का अपकृत्य - उपेक्षा का आशय किसी कर्तव्य के लोप से है, जो या तो ऐसा कुछ करने से उत्पन्न होती है जिसे कोई विवेकशील या युक्तिमान मनुष्य नहीं करेगा अथवा ऐसा कुछ करने में विफल रहने से उत्पन्न होती है जिसे कोई युक्तिमान मनुष्य, ऐसे कारकों के कारण, सामान्य रूप से करता या मानवीय मामलों के संचालन के कारण करने के लिये बाध्य होता है।

[Original Judgement]


  राजस्थान राज्य एवं अन्य बनाम भूपेंद्र सिंह  

निर्णय/आदेश की तिथि – 08.08.2024

न्यायपीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह

संक्षेप में मामला:

  • प्रत्यर्थी इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत था और बाद में उसे सहायक रजिस्ट्रार के रूप में नियुक्त किया गया था एवं उप रजिस्ट्रार के पद पर उसे पदोन्नत करने के लिये विचार किया जाना था।
  • उस पर तकनीकी राय प्राप्त किये बिना गोदाम के निर्माण की अनुमति देने का आरोप लगाया गया था।
  • इसके परिणामस्वरूप, उसे पुनः इंस्पेक्टर के पद पर प्रतिवर्तित कर दिया गया।
  • वर्ष 1979 में उसके खिलाफ विभागीय जाँच शुरू की गई और पदोन्नति की मांग करने वाली उसकी अपील खारिज़ कर दी गई।
  • उसके द्ववारा की गई विभिन्न अनियमितताओं पर की गई विभागीय जाँच को ध्यान में रखते हुए उसे निलंबित कर दिया गया।
  • निलंबन आदेश को एकल न्यायाधीश के समक्ष चुनौती दी गई, जिस पर भविष्यलक्षी रूप से रोक लगा दी गई।
  • वर्ष 1985 में पुनः जाँच की गई और उसे पदच्युत कर दिया गया।
  • वर्ष 1993 में उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने पदच्युत किये जाने के आदेश को रद्द कर दिया और उसे परिणामिक लाभों के साथ पदोन्नति के लिये उपयुक्त पाया।
  • इसकी पुष्टि एक खंड न्यायपीठ ने की और इसी आदेश को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई।

अधिमत:

  • न्यायालय ने आंध्र प्रदेश राज्य बनाम एस. श्री राम राव (1963) के मामले को उद्धृत किया, जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया था कि भारतीय संविधान, 1950 (सी.ओ.आई.) के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय की भूमिका अपीलीय न्यायालय की भाँति नहीं होती है।
  • इसके अतिरिक्त न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि वे दशाएँ जिसमें साक्ष्यों के आधार पर अपचारी अधिकारी का दोषी होना सिद्ध होगा, उच्च न्यायालय का कार्य साक्ष्य की समीक्षा करना और स्वयं से किसी निष्कर्ष पर पहुँचना नहीं है।
  • सी.ओ.आई. के अनुच्छेद 226 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते समय न्यायालय को तथ्यों का पुनर्मूल्यांकन करने की अनुमति नहीं है।
  • हालाँकि, हस्तक्षेप को उचित ठहराने के लिये अधिकरण के आदेश में - जो कि उच्च न्यायालय के समक्ष न्यायिक समीक्षा के अधीन है - औसत से अधिक स्तर की अशुद्धता होनी चाहिये।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये।

सुसंगत उपबंध:

  • भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 226: रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति:
    • अनुच्छेद 32 में किसी बात के होते हुए भी प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिये और किसी अन्य प्रयोजन के लिये उन राज्यक्षेत्रों के भीतर किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को या समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निदेश, आदेश या रिट जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, या उनमें से कोई निकालने की शक्ति होगी।
    • किसी सरकार, प्राधिकारी या व्यक्ति को निदेश, आदेश या रिट निकालने की खंड (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन राज्यक्षेत्रों के संबंध में, जिनके भीतर ऐसी शक्ति के प्रयोग के लिये वादहेतुक पूर्णत: या भागत: उत्पन्न होता है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाले किसी उच्च न्यायालय द्वारा भी, इस बात के होते हुए भी किया जा सकेगा कि ऐसी सरकार या प्राधिकारी का स्थान या ऐसे व्यक्ति का निवास-स्थान उन राज्यक्षेत्रों के भीतर नहीं है।
    • जहाँ कोई पक्षकार, जिसके विरुंद्ध खंड (1) के अधीन किसी याचिका पर या उससे संबंधित किसी कार्यवाही में व्यादेश के रूप में या रोक के रूप में या किसी अन्य रीति से कोई अंतरिम आदेश-
      (क) ऐसे पक्षकार को ऐसी याचिका की और ऐसे अंतरिम आदेश के लिये अभिवाक के समर्थन में सभी दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ, और
      (ख) ऐसे पक्षकार को सुनवाई का अवसर,
      दिये बिना किया गया है, ऐसे आदेश को रद्द कराने के लिये उच्च न्यायालय को आवेदन करता है और ऐसे आवेदन की एक प्रतिलिपि उस पक्षकार को, जिसके पक्ष में ऐसा आदेश किया गया है या उसके काउंसेल को देता है, वहाँ उच्च न्यायालय उसकी प्राप्ति को तारीख से या ऐसे आवेदन की प्रतिलिपि इस प्रकार दिये जाने की तारीख से दो सप्ताह की अवधि के भीतर, इनमें से जो भी पश्चातवर्ती हो, या जहाँ उच्च न्यायालय उस अवधि के अंतिम दिन बंद है, वहाँ उसके ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति से पहले जिस दिन उच्च न्यायालय खुला है, आवेदन को निपटाएगा और यदि आवेदन इस प्रकार नहीं निपटाया जाता है तो अंतरिम आदेश, यथास्थिति, उक्त अवधि की या उक्त ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति पर रद्द हो जाएगा।
    • इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को प्रदत्त शक्ति से, अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अल्पीकरण नहीं होगा।

[Original Judgement]


  दौलत सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य  

निर्णय/आदेश की तिथि – 30.07.2024

न्यायपीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा

संक्षेप में मामला:

  • उक्त मामले में, याचिकाकर्त्ता की धारा 7(i) और (iii) के तहत और परिणामतः, खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1954 (PFA) की धारा 16(1)(a)(i) के निबंधनों के अनुसार दोषसिद्धि की गई।
  • अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के समक्ष अपील किये जाने पर अपील खारिज़ कर दी गई।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष अपील की और वहाँ भी इसे खारिज़ कर दिया गया।
  • याचिकाकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन कर उसे दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अनुसार हेपेटाइटिस से ग्रसित होने के कारण आत्मसमर्पण करने से छूट प्रदान करने की मांग की।
  • उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय नियम, 2008 के अध्याय 10 के नियम 48 को उद्धृत करते हुए आवेदन को खारिज़ कर दिया।
  • याचिकाकर्त्ता ने आवेदन खारिज़ होने के बाद उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक विशेष इज़ाज़त याचिका दायर की, जिसमें उल्लिखित था
    • यह विधि का एक सुस्थापित सिद्धांत है कि उच्च न्यायालय, अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए, किसी विशेष मामले की प्रकृति और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आत्मसमर्पण की छूट प्रदान करना उचित समझ सकेगा।

अधिमत:

  • उच्चतम न्यायालय ने विवेक राय एवं अन्य बनाम झारखंड उच्च न्यायालय (2015) मामले का हवाला दिया, जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया था कि:
    • यदि CrPC की धारा 482 को इस तरह से पढ़ा जाए कि दोषी को पुनर्विचार याचिका पर विचार करने से पहले आत्मसमर्पण से छूट देने के लिये उच्च न्यायालय से अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करने का आग्रह करने की स्वतंत्रता प्रदान की जाए तो यह न्याय का उपहास हो सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि आत्मसमर्पण से छूट के लिये हेपेटाइटिस का आधार स्वीकार्य नहीं है क्योंकि आवेदन के साथ कोई लैबोरेटरी रिपोर्ट संलग्न नहीं थी।
  • अतः उच्चतम न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिका खारिज़ कर दी।

सुसंगत उपबंध:

  • धारा 482: उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की व्यावृत्ति
    • इस संहिता की कोई बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अन्तर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली न समझी जाएगी जैसे इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करने के लिये या किसी अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक हो।
  • 2008 नियमों का नियम 48 इस प्रकार है:
    • दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील या पुनरीक्षण याचिका के ज्ञापन में, उन मामलों के अतिरिक्त जिसमें दंड को अवर न्यायालय द्वारा निलंबित कर दिया गया हो, इस आशय की घोषणा शामिल होगी कि दोषी व्यक्ति अभिरक्षा में है या उसने दोषसिद्धि के बाद आत्मसमर्पण कर दिया है। 
    • ऐसी दशा जिसमें दंडादेश निलंबित कर दिया गया है, वहाँ ऐसे निलंबन का तथ्य और उसकी अवधि अपील या पुनरीक्षण याचिका के ज्ञापन में तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389 के अधीन आवेदन में भी विवरणित की जाएगी।
    • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389 के तहत आवेदन, यथासंभव, प्रारूप संख्या 11 में होगा और उसके साथ अपीलकर्त्ता/आवेदक या मामले के तथ्यों से परिचित किसी अन्य व्यक्ति का हलफनामा संलग्न होना चाहिये।”

[Original Judgement]


  जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ  

निर्णय/आदेश की तिथि – 13.08.2024

न्यायपीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायमूर्ति अभय एस ओका, न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

संक्षेप में मामला:

  • उक्त मामले में, अपीलकर्त्ता पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 121, 121ए और 122 तथा विधि-विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 (UAPA) की धारा 13, 18, 18A और 20 के तहत अभियोजन किया गया था।
  • आरोपपत्र में अपीलकर्त्ता को प्रत्यर्थी संख्या 2 के रूप में निर्दिष्ट किया गया था।
  • आरोपपत्र में विवरणित किया गया कि गवाहों ने बयान दिया कि: 
    • अपीलकर्त्ता की पत्नी के पास अहमद पैलेस नामक भवन का स्वामित्व था और अपीलकर्त्ता ने छुपे तौर पर दिखाया था कि उक्त भवन की पहली मंज़िल पर स्थित परिसर को अभियुक्त संख्या 1 अतहर परवेज़ को किराए पर दिया गया था।
    • परिसर का उपयोग पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) नामक संगठन की आपत्तिजनक क्रियाकलापों के संचालन हेतु किया जाता था।
    • चर्चा में कथित तौर पर PFI के विस्तार, इसके सदस्यों के प्रशिक्षण, मुस्लिम सशक्तीकरण और इस्लाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने वाले व्यक्तियों को निशाना बनाने की योजना शामिल थी।
    • सह-अभियुक्त द्वारा अपीलकर्त्ता के बेटे के खाते में 25,000 रुपए की राशि का अंतरण किया गया था।
    • पुलिस की छापेमारी से ठीक पहले अपीलकर्त्ता को परिसर से कुछ सामान हटाते हुए पाया गया।
  • सह-अभियुक्त के साथ अपीलकर्त्ता ने विशेष न्यायालय में ज़मानत के लिये आवेदन किया जिसे खारिज़ कर दिया गया।
  • अपीलकर्त्ता और सह-अभियुक्त द्वारा पटना उच्च न्यायालय में अपील दायर करने पर उच्च न्यायालय ने अन्य सह-अभियुक्त को ज़मानत दे दी लेकिन अपीलकर्त्ता की ज़मानत खारिज़ कर दी।

अधिमत:

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पाया कि आरोप पत्र में दर्ज तथा मजिस्ट्रेट के समक्ष साक्षी द्वारा दिये गए बयान में भिन्नता है तथा उनमें कई विसंगतियाँ हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि गवाह द्वारा दिये गए बयान में अभिकथित अपराध में अपीलकर्त्ता की संलिप्तता के बारे में उसका नाम नहीं लिया गया था।
  • इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेख किया गया कि ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं था जिससे यह सिद्ध हो कि आरोपपत्र में उल्लिखित हमलों को लेकर अपीलकर्त्ता ने किसी प्रकार के निर्देश दिये थे।
  • यह भी उल्लेख किया गया कि अपीलकर्त्ता के बेटे के बैंक खाते में अंतरित की गई राशि भवन में आवास के किराए के अग्रिम भुगतान के लिये थी।
  • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पुलिस के छापे से पहले भवन से हटाए गए सामान का हमलों से कोई संबंध नहीं था क्योंकि आरोपपत्र में सामान की प्रकृति निर्दिष्ट नहीं की गई थी।
  • उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि ऐसा किसी प्रकार का साक्ष्य नहीं है जिससे अभिकथित अपराध में अपीलकर्त्ता की संलिप्तता सिद्ध होती हो।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ज़मानत नियम तथा कारावास अपवाद  एक सुस्थापित विधि है।
  • इसके साथ वे मामले भी जिनमें ज़मानत दिये जाने हेतु संबंधित संविधि में कठोर शर्तों का प्रावधान किया गया है, उनपर भी उपयुक्त नियम कार्यान्वित होगा।
  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि उचित मामलों में ज़मानत देने से इनकार करना भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकारों का उल्लंघन होगा।
  • अतः उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को ज़मानत प्रदान की।

सुसंगत उपबंध:

  • अनुच्छेद 21: प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण
    • किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

[Original Judgement]


  किशोरचंद्र छंगनलाल राठौड़ बनाम भारत संघ एवं अन्य  

निर्णय/आदेश की तिथि – 23.07.2024

न्यायपीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान 

संक्षेप में मामला:

  • अपीलकर्त्ता ने परिसीमन आयोग द्वारा किये गए परिसीमन कार्य को चुनौती देते हुए गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की।
  • इस परिसीमन के परिणामस्वरूप गुजरात का बारडोली विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र अनुसूचित जाति समुदाय के लिये आरक्षित हुआ।
  • परिसीमन आयोग ने परिसीमन अधिनियम, 2002 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए उक्त निर्वाचन क्षेत्र को आरक्षित किया।
  • परिसीमन आयोग ने 12 दिसंबर 2006 को आदेश संख्या 33 जारी किया, जिसे भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई।
  • अपीलकर्त्ता की रिट याचिका में परिसीमन आयोग के आदेश की विधिमान्यता को लेकर आक्षेप किया गया था।
  • गुजरात उच्च न्यायालय ने भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 329 (a) को उद्धृत करते हुए रिट याचिका को खारिज़ कर दिया।
  • संविधान के अनुच्छेद 329 (a) के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन या ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में सीटों के आवंटन से संबंधित किसी भी विधि की विधिमान्यता को किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जाएगा।
  • उक्त विचाराधीन परिसीमन कार्य वर्ष 2006 में संपन्न हुआ था। 
  • अपीलकर्त्ता ने गुजरात उच्च न्यायालय के दिनांक 21 सितंबर 2012 के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई उक्त अपील का संबंध अनुच्छेद 329(a) की व्याख्या और परिसीमन अभ्यास से संबंधित मामलों में न्यायिक समीक्षा के कार्य क्षेत्र से है।

अधिमत:

  • उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि सांविधानिक न्यायालय संविधान की कसौटी पर परिसीमन आयोग द्वारा जारी आदेशों की विधिमान्यता की जाँच करने से प्रवारित नहीं है।
  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यदि आदेश स्पष्ट रूप से मनमाना और सांविधानिक मूल्यों के साथ असंगत पाया जाता है तो न्यायालय स्थिति को सुधारने के लिये उचित उपाय कर सकता है।
  • यह स्पष्ट किया गया कि हालाँकि न्यायालयों का परिसीमन मामलों में न्यायिक समीक्षा का कार्य सुस्थापित सिद्धांतों द्वारा मार्गदर्शित होनी चाहिये किंतु उनके पास ऐसे आदेशों की विधिमान्यता की जाँच करने की शक्ति है।
  • न्यायालय ने तर्क दिया कि न्यायिक हस्तक्षेप को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित करने से नागरिकों के पास परिसीमन अभ्यासों के बारे में अपनी शिकायतों को रखने के लिये कोई मंच नहीं होगा।
  • न्यायपीठ ने उच्च न्यायालय के इस दृष्टिकोण को खारिज़ कर दिया कि परिसीमन अधिनियम के तहत जारी किये गए परिसीमन आदेश अनुच्छेद 226 के तहत न्यायिक समीक्षा से पूर्ण रूप से मुक्त हैं।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 329 निर्विवाद रूप से निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन या ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों को सीटों के आवंटन से संबंधित किसी भी विधि की विधिमान्यता के संबंध में न्यायिक जाँच के दायरे को सीमित करता है किंतु इसे परिसीमन अभ्यास की हर कार्रवाई के लिये कार्यान्वित नहीं माना जा सकता है।
  • न्यायालय ने डी.एम.के. बनाम तमिलनाडु राज्य मामले (2020) का संदर्भ दिया, जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया था कि सांविधानिक न्यायालय निर्वाचन संबंधी प्रक्रियाओं को सुविधाजनक बनाने अथवा दुर्भावनापूर्ण अथवा मनमाना ढंग से सत्ता के प्रयोग के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती हैं।
  • न्यायालय ने वर्तमान मामले को मेघराज कोठारी बनाम परिसीमन आयोग के निर्णय से सुभिन्न करते हुए स्पष्ट किया कि मेघराज कोठारी के निर्णय में मुख्यतः निर्वाचन प्रक्रिया में अनावश्यक देरी से बचने के लिये न्यायिक हस्तक्षेप को प्रतिबंधित किया गया था।
  • यह अभिनिर्धारित किया गया कि न्यायालय परिसीमन प्रक्रिया के उचित चरण में सीमित दायरे में न्यायिक समीक्षा कर सकते हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस विचार को खारिज़ कर दिया कि परिसीमन आदेशों को चुनौती देने पर पूर्ण प्रतिबंध है और इसके साथ ही संबंधित मामलों में न्यायिक समीक्षा किये जाने की पुष्टि की।

सुसंगत उपबंध:

अनुच्छेद 329 निर्वाचन संबंधी मामलों में न्यायालयों के हस्तक्षेप के वर्जन से संबंधित है

  • इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी
  • अनुच्छेद (a): अनुच्छेद 327 या अनुच्छेद 328 के अधीन बनाई गई या बनाई जाने के लिये तात्पर्यित किसी ऐसी विधि की विधिमान्यता, जो निर्वाचन-क्षेत्रों के परिसीमन या ऐसे निर्वाचन-क्षेत्रों को स्थानों के आबंटन से संबंधित है, किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं की जाएगी;
  • अनुच्छेद (b): संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिये कोई निर्वाचन ऐसी निर्वाचन अर्जी पर ही प्रश्नगत किया जाएगा, जो ऐसे प्राधिकारी को और ऐसी रीति से प्रस्तुत की गई है जिसका समुचित विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन उपबंध किया जाए, अन्यथा नहीं।

[Original Judgement]