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नवीनतम निर्णय
जनवरी 2025
«19-Feb-2025
अलीशा बेरी बनाम नीलम बेरी
Alisha Berry v. Neelam Berry
निर्णय/आदेश की तिथि– 03.01.2025 पीठ में न्यायमूर्ति की संख्या– 1 न्यायमूर्ति पीठ की संख्या– न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
मामला संक्षेप में:
- यह मामला अलीशा बेरी (बहू) और नीलम बेरी (सास) के बीच घरेलू विवाद से संबंधित है।
- नीलम बेरी (प्रतिवादी) ने अलीशा बेरी के विरुद्ध घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV) के अंतर्गत मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के न्यायालय में मामला दर्ज कराया था।
- अलीशा बेरी (याचिकाकर्त्ता) का एक दिव्यांग अप्राप्तवय बेटा है जो सुनने में अक्षम है।
- याचिकाकर्त्ता फिलहाल बेरोजगार है और जीवनयापन के लिये आर्थिक रूप से अपने पिता पर निर्भर है।
- अलीशा बेरी और उनके पति के बीच विवाह-विच्छेद की प्रक्रिया चल रही है, जिसे पहले कुटुंब न्यायालय, वेस्ट, तीस हजारी, नई दिल्ली से कुटुंब न्यायालय, लुधियाना जिला न्यायालय, पंजाब में ट्रांसफर याचिका के माध्यम से स्थानांतरित किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने 6 फरवरी 2024 को अलीशा बेरी (याचिकाकर्त्ता) के विरुद्ध जमानती वारंट जारी किये थे।
- वर्तमान याचिका अलीशा बेरी द्वारा दायर की गई थी, जिसमें घरेलू हिंसा के मामले को दिल्ली से मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लुधियाना, पंजाब की न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग की गई थी।
- नोटिस दिये जाने के बावजूद, प्रतिवादी (नीलम बेरी) इस स्थानांतरण याचिका में उच्चतम न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं हुईं या उनका प्रतिनिधित्व नहीं हुआ।
निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने अवलोकन किया कि:
- उच्चतम न्यायालय ने जमानती वारंट जारी करने के ट्रायल कोर्ट के निर्णय की कड़ी आलोचना की, जिसमें कहा गया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के मामले में ऐसे वारंट जारी करने का "कोई औचित्य नहीं" है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही प्रकृति में अर्ध-आपराधिक है तथा इसमें दण्डात्मक परिणाम नहीं होते हैं, सिवाय उन मामलों के जहाँ सुरक्षा आदेश का उल्लंघन या भंग होता है।
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि विद्वान मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध जमानती वारंट जारी करने का निर्देश देकर "बिल्कुल अनुचित" कार्य किया।
- उच्चतम न्यायालय ने अपना निर्णय देते समय कई कारकों पर विचार किया:
- याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुतियाँ दी गईं।
- रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री।
- तथ्य यह है कि संबंधित विवाह-विच्छेद की कार्यवाही पहले ही लुधियाना स्थानांतरित कर दी गई थी।
प्रासंगिक प्रावधान:
घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 18
- संरक्षण आदेश
मजिस्ट्रेट, व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात् तथा प्रथम दृष्टया यह समाधान हो जाने पर कि घरेलू हिंसा कारित हुई है या होने की संभावना है, व्यथित व्यक्ति के पक्ष में संरक्षण आदेश पारित कर सकता है और प्रत्यर्थी को निम्नलिखित से प्रतिषिद्ध कर सकता है-
(क) घरेलू हिंसा का कोई कृत्य कारित करना;
(ख) घरेलू हिंसा के कृत्यों में सहायता करना या दुष्प्रेरण;
(ग) पीड़ित व्यक्ति के रोजगार के स्थान में प्रवेश करना या यदि पीड़ित व्यक्ति बच्चा है तो उसके स्कूल में या पीड़ित व्यक्ति द्वारा अक्सर आने-जाने वाले किसी अन्य स्थान में प्रवेश करना;
(घ) पीड़ित व्यक्ति के साथ किसी भी रूप में, चाहे वह व्यक्तिगत, मौखिक या लिखित या इलेक्ट्रॉनिक या टेलीफोन संपर्क हो, संवाद करने का प्रयास करना;
(ङ) मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना पीड़ित व्यक्ति और प्रत्यर्थी द्वारा संयुक्त रूप से या प्रत्यर्थी द्वारा अकेले प्रयोग की जाने वाली या रखी जाने वाली या उपभोग की जाने वाली किसी भी संपत्ति को अलग करना, बैंक लॉकर या बैंक खातों का संचालन करना, जिसमें उसका स्त्रीधन या पक्षकारों द्वारा संयुक्त रूप से या अलग-अलग रखी जाने वाली कोई अन्य संपत्ति शामिल है;
(च) आश्रितों, अन्य रिश्तेदारों या किसी ऐसे व्यक्ति को हिंसा कारित करना जो पीड़ित व्यक्ति को घरेलू हिंसा से सहायता प्रदान करता है;
(छ) संरक्षण आदेश में निर्दिष्ट कोई अन्य कार्य करना
घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 31
- प्रतिवादी द्वारा सुरक्षा आदेश के उल्लंघन के लिये अर्थदण्ड
(1) प्रतिवादी द्वारा संरक्षण आदेश या अंतरिम संरक्षण आदेश का उल्लंघन इस अधिनियम के अधीन अपराध होगा तथा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो बीस हजार रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डनीय होगा।
(2) उपधारा (1) के अधीन अपराध का विचारण, जहाँ तक साध्य हो, उस मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा, जिसने वह आदेश पारित किया था, जिसका उल्लंघन अभियुक्त द्वारा किया जाना अभिकथित किया गया है।
(3) उपधारा (1) के अधीन आरोप विरचित करते समय, मजिस्ट्रेट, यथास्थिति, भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 498A या उस संहिता के किसी अन्य प्रावधान या दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 (1961 का 28) के अधीन आरोप विरचित कर सकेगा, यदि तथ्यों से उन प्रावधानों के अधीन अपराध का किया जाना प्रकट होता है।
एच. एन. पांडाकुमार बनाम कर्नाटक राज्य
N. Pandakumar v. The State of Karnataka
निर्णय/आदेश की तिथि– 07.01.2025 पीठ में न्यायमूर्तिों की संख्या– 2 न्यायमूर्ति पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति विक्रम नाथ एवं न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले |
मामला संक्षेप में:
- एच.एन. पांडाकुमार (आरोपी) के.आर. पीट ग्रामीण पुलिस स्टेशन, मांड्या में दर्ज FIR से संबंधित एक आपराधिक मामले में शामिल था।
- मूल शिकायत पुट्टाराजू द्वारा दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि पाँच आरोपियों ने एक विधिविरुद्ध सभा आयोजित की तथा उस पर और उसके परिवार के सदस्यों पर हमला किया, जिससे उन्हें गंभीर चोटें आईं।
- विवेचना के आधार पर, सभी आरोपियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 149 के साथ 143, 341, 504, 323, 324 और 307 सहित कई धाराओं के अधीन आरोप तय किये गए थे।
- ट्रायल कोर्ट ने सत्र न्यायालय में 24 जनवरी 2012 को अपने निर्णय के माध्यम से आरोपी संख्या 3 और 4 को धारा 326 के साथ IPC की धारा 34 के अधीन दोषी पाया।
- उन्हें निम्नलिखित सजा दी गई:
- दो वर्ष का कठोर कारावास
- प्रत्येक पर 2,000/- रुपए का अर्थदण्ड
- शेष आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया गया।
- पांडाकुमार ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के 01 सितंबर, 2023 के निर्णय के विरुद्ध अपील की:
- उसकी सजा घटाकर एक वर्ष कर दी गई।
- अर्थदण्ड बढ़ाकर 2,00,000 रुपये कर दिया गया।
- आरोपी नंबर 4 को दोषमुक्त कर दिया गया।
- 19 जनवरी 2024 को उच्चतम न्यायालय द्वारा उनकी विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी गई।
- पांडाकुमार ने अपराध को न्यून करने के लिये एक विविध आवेदन दायर किया, जिसके आधार पर:
- पक्षों के बीच समझौता हुआ।
- 5,80,000/- रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में देने पर सहमति बनी।
- संपत्ति मामलों सहित सभी विवादों का समाधान हो गया।
- तथ्य यह है कि दोनों पक्ष दूर के रिश्तेदार हैं तथा निकटता में रहते हैं।
- शिकायतकर्त्ता ने समझौते का समर्थन करते हुए तथा मामले को बंद करने की मांग करते हुए एक अंतरिम आवेदन दायर किया।
निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 326 (खतरनाक हथियारों से गंभीर चोट पहुँचाने की सजा) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत समझौता योग्य नहीं है, लेकिन न्यायालय के पास असाधारण परिस्थितियों में समझौता करने की अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
- न्यायालय ने इस मामले में असाधारण परिस्थितियों का गठन करने वाले कई महत्त्वपूर्ण कारकों पर ध्यान दिया:
- पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौते का अस्तित्व
- शिकायतकर्त्ता की स्पष्ट सहमति, जो कि अंतर्वर्ती आवेदन के माध्यम से प्रलेखित है
- पक्षों की आवासीय निकटता (केवल एक सड़क द्वारा अलग)
- पक्षों के बीच दूर का पारिवारिक संबंध
- पड़ोस के सामाजिक ताने-बाने पर निरंतर शत्रुता का संभावित प्रभाव
- आपराधिक और संपत्ति विवादों दोनों को शामिल करने वाले समझौते की व्यापक प्रकृति
- लंबे समय से चले आ रहे अधिकार के मुद्दों का समाधान
- न्यायालय ने माना कि आवेदक/याचिकाकर्त्ता द्वारा सहमत क्षतिपूर्ति (5,80,000/- रुपये) का भुगतान करने की प्रतिबद्धता ने विवाद को हल करने के लिये एक वास्तविक प्रयास को प्रदर्शित किया।
- न्यायालय ने कहा कि औपचारिक अंतरिम आवेदन के माध्यम से समझौते के लिये शिकायतकर्त्ता का समर्थन समझौते की स्वैच्छिक प्रकृति को दर्शाता है।
- इन असाधारण परिस्थितियों के आधार पर, न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि:
- विविध आवेदन की अनुमति देना।
- SLP को खारिज करने वाले 19 जनवरी 2024 के पिछले आदेश को वापस लेना।
- छूट प्रदान करना।
- सजा की अवधि को पहले से भुगती गई अवधि तक कम करते हुए दोषसिद्धि की पुष्टि करना।
- न्यायालय ने इस आदेश के अंतर्गत अभियोग चलाने के लिये अंतरिम आवेदन के साथ-साथ अन्य लंबित आवेदनों का भी निपटान कर दिया।
प्रासंगिक प्रावधान:
CrPC की धारा 320: अपराधों का शमन।
(1) नीचे दी गई तालिका के प्रथम दो स्तंभों में विनिर्दिष्ट भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धाराओं के अधीन दण्डनीय अपराधों का शमन उस तालिका के तृतीय स्तंभ में उल्लिखित व्यक्तियों द्वारा किया जा सकेगा।
(2) नीचे दी गई तालिका के प्रथम दो स्तंभों में विनिर्दिष्ट भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धाराओं के अधीन दण्डनीय अपराधों का शमन उस न्यायालय की अनुमति से किया जा सकेगा जिसके समक्ष ऐसे अपराध के लिये कोई अभियोजन लंबित है।
(3) जब कोई अपराध इस धारा के अधीन शमनीय है, तब ऐसे अपराध का दुष्प्रेरण या ऐसे अपराध को करने का प्रयत्न (जब ऐसा प्रयत्न स्वयं अपराध है) या जहाँ अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 34 या 149 के अधीन दण्डनीय है, वहाँ उसी प्रकार शमनीय किया जा सकेगा।]
(4) (क) जब वह व्यक्ति, जो इस धारा के अधीन अपराध का शमन करने के लिये अन्यथा सक्षम होता, अठारह वर्ष से कम आयु का है या मूर्ख या पागल है, तब उसकी ओर से संविदा करने के लिये सक्षम कोई व्यक्ति न्यायालय की अनुमति से ऐसे अपराध का शमन कर सकता है। (ख) जब वह व्यक्ति, जो इस धारा के अधीन अपराध का शमन करने के लिये अन्यथा सक्षम होता, मर जाता है, तब ऐसे व्यक्ति का सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) में परिभाषित विधिक प्रतिनिधि न्यायालय की सहमति से ऐसे अपराध का शमन कर सकता है।
(5) जब अभियुक्त को विचारण के लिये सुपुर्द कर दिया गया हो या उसे दोषसिद्ध कर दिया गया हो और अपील लंबित हो, तो उस अपराध के लिये कोई भी शमन उस न्यायालय की अनुमति के बिना नहीं किया जाएगा, जिसे वह सुपुर्द किया गया हो, या, जैसा भी मामला हो, जिसके समक्ष अपील सुनी जानी हो।
(6) कोई उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय, धारा 401 के अधीन पुनरीक्षण की अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, किसी व्यक्ति को किसी ऐसे अपराध का शमन करने की अनुमति दे सकता है, जिसका शमन करने के लिये वह व्यक्ति इस धारा के अधीन सक्षम हो।
(7) कोई भी अपराध शमन नहीं किया जाएगा, यदि अभियुक्त किसी पूर्व दोषसिद्धि के कारण, ऐसे अपराध के लिये या तो बढ़ाए गए दण्ड का या किसी भिन्न प्रकार के दण्ड का भागी हो।
(8) इस धारा के अधीन किसी अपराध का शमन उस अभियुक्त को दोषमुक्त करने के समान होगा जिसके साथ अपराध का शमन किया गया है।
(9) इस धारा द्वारा उपबंधित के सिवाय किसी अपराध का शमन नहीं किया जाएगा।
पंजाब नेशनल बैंक बनाम अतीन अरोरा एवं अन्य
Punjab National Bank v. Atin Arora & Anr
निर्णय/आदेश की तिथि – 03.01.2025 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या – 2 न्यायमूर्ति पीठ की संरचना – मुख्य न्यायमूर्ति संजीव खन्ना एवं न्यायमूर्ति संजय कुमार |
मामला संक्षेप में:
- पंजाब नेशनल बैंक (PNB) ने 9 जनवरी, 2019 को मेसर्स जॉर्ज डिस्ट्रीब्यूटर्स प्राइवेट लिमिटेड के विरुद्ध NCLT कोलकाता के समक्ष दिवाला एवं धन शोधन अक्षमता संहिता, 2016 IBC की धारा 7 के अंतर्गत एक याचिका दायर की।
- प्रतिवादी कंपनी ने 16 जनवरी, 2018 को कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के आदेश के माध्यम से अपना पंजीकृत कार्यालय कोलकाता से कटक में बदल लिया था, लेकिन इस परिवर्तन के विषय में PNB को कभी सूचित नहीं किया।
- पता परिवर्तन के बावजूद, NCLT कोलकाता ने स्पीड पोस्ट के माध्यम से नोटिस दिये तथा प्रतिवादियों को कार्यवाही की सूचना थी, यहाँ तक कि उन्होंने याचिका की एक प्रति का निवेदन भी किया।
- NCLT कोलकाता ने IBC याचिका की धारा 7 को सुनवाई के लिये स्वीकार कर लिया, जबकि NCLT कटक पीठ का गठन बाद में 11 मार्च, 2019 को किया गया।
- कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 227 के अंतर्गत शक्तियों का प्रयोग करते हुए NCLT के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें रिकॉल आवेदन को खारिज कर दिया गया था।
निर्णय
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 227 याचिका पर विचार करने में चूक की तथा अधिकारिता संबंधी आपत्तियों के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 21 को अनदेखा कर दिया।
- न्यायालय ने कहा कि वाद दायर करने के स्थान पर आपत्तियों को पहले अवसर पर प्रथम दृष्टया न्यायालय में किया जाना चाहिये।
- याचिका में पते में परिवर्तन के लिये ई-फॉर्म का उल्लेख मात्र यह स्थापित करने के लिये पर्याप्त नहीं था कि PNB को पते में परिवर्तन के विषय में सूचना थी।
- उच्च न्यायालय अनुच्छेद 227 के अंतर्गत अपने सीमित पर्यवेक्षी अधिकारिता पर विचार करने में विफल रहा तथा IBC एडमिशन ऑर्डर को रद्द करने के परिणामों की पूरी तरह से जाँच नहीं की।
- उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द करते हुए तथा IBC कार्यवाही को जारी रखने की अनुमति देते हुए, उच्चतम न्यायालय ने प्रतिवादियों के अन्य विधिक उपायों को आगे बढ़ाने के अधिकारों को संरक्षित किया।
प्रासंगिक प्रावधान
CPC की धारा 21:
CPC, 1908 की धारा 21 अधिकारिता पर आपत्तियों से संबंधित है।
यह प्रावधानित करता है कि
(1) किसी अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा वाद दायर करने के स्थान के संबंध में कोई आपत्ति तब तक स्वीकार नहीं की जाएगी जब तक कि ऐसी आपत्ति प्रथम दृष्टया न्यायालय में यथाशीघ्र संभव अवसर पर न की गई हो तथा उन सभी मामलों में जहाँ मुद्दों का निपटान के समय या उससे पूर्व कर दिया गया हो, और जब तक कि परिणामस्वरूप न्याय में असफलता न हुई हो।
(2) किसी न्यायालय की अधिकारिता की आर्थिक सीमाओं के संदर्भ में उसकी सक्षमता के विषय में कोई भी आक्षेप किसी अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा तब तक स्वीकार नहीं किया जाएगा जब तक कि ऐसा आक्षेप प्रथम दृष्टया न्यायालय में यथाशीघ्र संभव अवसर पर नहीं लिया गया हो, तथा उन सभी मामलों में जहाँ विवाद्यक तथ्य तय हो गए हों, ऐसे निपटान के समय या उससे पूर्व, और जब तक कि परिणामस्वरूप न्याय में असफलता न हुई हो।
(3) किसी अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा निष्पादन न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता की सीमा के संदर्भ में उसकी क्षमता के विषय में कोई आपत्ति तब तक स्वीकार नहीं की जाएगी, जब तक कि ऐसी आपत्ति निष्पादन न्यायालय में यथाशीघ्र संभव अवसर पर नहीं की गई हो, तथा जब तक कि परिणामस्वरूप न्याय में कोई असफलता न हुई हो।
ओमी उर्फ ओंकार राठौड़ एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य
Omi @ Omkar Rathore & Anr. v. State of Madhya Pradesh & Anr.
निर्णय/आदेश की तिथि – 03.01.2025 पीठ में न्यायमूर्तिों की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
मामला संक्षेप में:
- ग्वालियर के पड़ाव पुलिस स्टेशन में सात व्यक्तियों के विरुद्ध IPC की धारा 302, 307, 147, 148 और 149 के अधीन FIR (नंबर 96/18) दर्ज की गई थी।
- यह मामला 2018 में हुई एक हत्या की घटना से संबंधित है, जिसमें पीड़ित अभिषेक तोमर को तानसेन नगर रोड पर LIC कार्यालय के पास गोली मार दी गई थी।
- शुरुआत में, पुलिस ने कथित अपराध से दो याचिकाकर्त्ताओं (ओमी उर्फ ओमकार राठौर एवं एक अन्य) को दोषमुक्त करते हुए क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की।
- अभियोजन के वाद के दौरान, मूल प्रथम सूचक PW संख्या 3 (राघवेंद्र तोमर) ने गवाही दी तथा विशेष रूप से दो याचिकाकर्त्ताओं को फंसाया, उनके ऊपर विशिष्ट प्रत्यक्ष कृत्यों का आरोप लगाया।
- PW संख्या 3 की गवाही के आधार पर, दोनों याचिकाकर्त्ताओं को आरोपी के रूप में बुलाने के लिये CrPC की धारा 319 के अधीन एक आवेदन दायर किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्त्ताओं को अन्य सह-आरोपियों के साथ मुकदमे के विचारण के लिये बुलाया।
- याचिकाकर्त्ताओं ने इस आदेश को आपराधिक पुनरीक्षण आवेदन के माध्यम से उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
- उच्च न्यायालय ने उनके पुनरीक्षण आवेदन को खारिज कर दिया तथा ट्रायल कोर्ट के आदेश को यथावत बनाए रखा।
- इसके बाद याचिकाकर्त्ताओं ने विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में अपील किया।
निर्णय
- पुलिस द्वारा क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करने से CrPC की धारा 319 के अधीन अतिरिक्त आरोपी को बुलाने पर रोक नहीं लगती।
- CrPC की धारा 319 के अधीन ट्रायल कोर्ट की शक्ति इस तथ्य से नियंत्रित नहीं होती कि FIR में किसी व्यक्ति का नाम है या नहीं।
- न्यायालय ट्रायल के दौरान प्रस्तुत किये गए साक्ष्यों के आधार पर अतिरिक्त आरोपी को बुला सकती है, चार्जशीट या केस डायरी में मौजूद सामग्री के आधार पर नहीं।
- जब शिकायतकर्त्ता के साक्ष्य स्वीकार करने योग्य पाए जाते हैं, तो विवेचना अधिकारी की संतुष्टि अप्रासंगिक हो जाती है।
- CrPC की धारा 319 के अधीन शक्ति विवेकाधीन एवं असाधारण है, जिसका प्रयोग संयम से और केवल सशक्त और ठोस साक्ष्यों के साथ किया जाना चाहिये।
- CrPC की धारा 319 के अधीन समन के लिये परीक्षण में केवल संभावना से अधिक मजबूत साक्ष्य की आवश्यकता होती है, लेकिन बिना खंडन के दोषसिद्धि की ओर ले जाने वाले साक्ष्य से कम।
- भले ही किसी व्यक्ति का नाम प्रारंभ में FIR में हो, लेकिन उसके विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल न किया गया हो, लेकिन कार्यवाही के दौरान साक्ष्य सामने आने पर उसे मुकदमे का सामना करने के लिये जोड़ा जा सकता है।
- CrPC की धारा 319 के अधीन आरोपी को समन करने का आदेश पारित होने के बाद न्यायालय द्वारा स्वीकार न की गई क्लोजर रिपोर्ट महत्त्वहीन हो जाती है।
प्रासंगिक प्रावधान
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 358
धारा 358 किसी अपराध के दोषी प्रतीत होने वाले अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करने की शक्ति से संबंधित है।
इसमें यह प्रावधानित किया गया है कि:
(1) जहाँ किसी अपराध की विवेचना या विचारण के दौरान साक्ष्य से यह प्रतीत होता है कि किसी ऐसे व्यक्ति ने, जो अभियुक्त नहीं है, कोई ऐसा अपराध किया है जिसके लिये ऐसे व्यक्ति का अभियुक्त के साथ विचारण किया जा सकता है, वहाँ न्यायालय ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध उस अपराध के लिये कार्यवाही कर सकेगा जो उसने किया प्रतीत होता है।
(2) जहाँ ऐसा व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित नहीं हो रहा है, वहाँ उसे मामले की परिस्थितियों के अनुसार पूर्वोक्त प्रयोजन के लिये गिरफ्तार किया जा सकता है या समन किया जा सकता है।
(3) न्यायालय में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को, यद्यपि वह गिरफ्तार न हो या समन पर न हो, ऐसे न्यायालय द्वारा उस अपराध की विवेचना या विचारण के प्रयोजन के लिये अभिरक्षा में लिया जा सकता है, जो उसने किया प्रतीत होता है।
(4) जहाँ न्यायालय उपधारा (1) के अधीन किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करता है, वहाँ---
(क) ऐसे व्यक्ति के संबंध में कार्यवाही नए सिरे से प्रारंभ की जाएगी, तथा साक्षियों की पुनः परीक्षा की जाएगी;
(ख) खंड (क) के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, मामला इस प्रकार आगे बढ़ सकेगा मानो ऐसा व्यक्ति उस समय अभियुक्त था जब न्यायालय ने उस अपराध का संज्ञान लिया था जिस पर जाँच या परीक्षण प्रारंभ किया गया था।
गोपाल कृष्ण एवं अन्य बनाम दौलत राम एवं अन्य
Gopal Krishan & Ors. v. Daulat Ram & Ors.
निर्णय/आदेश की तिथि – 02.01.2025 पीठ में न्यायमूर्तिों की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार एवं संजय करोल |
मामला संक्षेप में:
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया, जिसमें सांझी राम द्वारा निष्पादित विवादित वसीयत को वैध माना गया।
- यह मामला भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63(c) के निर्वचन करने पर केंद्रित था, विशेष रूप से "वसीयतकर्त्ता के निर्देश से" वाक्यांश से।
- सांझी राम ने 7 नवंबर, 2005 को एक वसीयत निष्पादित की, जिसमें संपत्ति अपने भतीजे गोपाल कृष्ण को अंतरित की गई, तथा अगले दिन उनका निधन हो गया।
- प्रतिवादियों ने वसीयत की वैधता को चुनौती दी, दावा किया कि यह कूटरचित और अप्रासंगिक है।
- सिविल कोर्ट ने प्रारंभ में वसीयत को अमान्य करार दिया था, क्योंकि इसके निष्पादन में संदिग्ध परिस्थितियाँ पाई गई थीं।
- अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय ने इस निर्णय को पलट दिया तथा वसीयत की वैधता को यथ्गावत बनाए रखा।
- उच्च न्यायालय ने फिर से निर्णय को पलट दिया, तथा पाया कि सत्यापन की आवश्यकताएँ ठीक से पूरी नहीं की गई थीं।
- उच्चतम न्यायालय ने अंततः अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय के निर्णय को बहाल कर दिया तथा वसीयत को वैध माना।
निर्णय
- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63(c) में वसीयत को वैध रूप से सत्यापित करने के कई अलग-अलग प्रावधानों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें "या" शब्द से पृथक किया गया है।
- सत्यापन आवश्यकताओं का निर्वचन करते समय उच्च न्यायालय ने विभाजक "या" को संयोजक "और" के रूप में मानकर चूक की।
- जब सत्यापन करने वाले साक्षी ने वसीयतकर्त्ता को वसीयत पर हस्ताक्षर करते या अपना चिह्न लगाते देखा है (जैसा कि इस मामले में है), तो यह धारा 63(c) के अंतर्गत एक आवश्यकता को पूरा करता है।
- "वसीयतकर्त्ता के निर्देश पर" वाक्यांश केवल उन स्थितियों में लागू होता है, जहाँ कोई तीसरा व्यक्ति वसीयतकर्त्ता की ओर से वसीयत पर हस्ताक्षर करता है।
- साक्षी DW-1 (जनक राज) की गवाही कि उसने सांझी राम को अपना अंगूठा लगाते देखा था, वैध सत्यापन के लिये पर्याप्त थी।
- सांविधिक भाषा को उसका सामान्य व्याकरणिक अर्थ दिया जाना चाहिये, जब तक कि यह अस्पष्टता, अनिश्चितता या औचित्यहीन अर्थ उत्पन्न न करे।
- वसीयत को सिद्ध करने के लिये आवश्यक शर्तों में यह दिखाना शामिल है कि इसे वसीयतकर्त्ता ने ही निष्पादित किया था, यह उनकी आखिरी वसीयत थी और धारा 63 के अंतर्गत सभी औपचारिकताएँ पूरी की गई थीं।
- न्यायालय ने पुष्टि की कि संदिग्ध परिस्थितियाँ "वास्तविक, प्रासंगिक एवं वैध" होनी चाहिये न कि केवल "संदेहास्पद कल्पना।"
प्रासंगिक प्रावधान
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63 विशेषाधिकार रहित वसीयत के निष्पादन से संबंधित है।
इसमें यह प्रावधानित किया गया है कि:
प्रत्येक वसीयतकर्त्ता, जो किसी अभियान में नियोजित या वास्तविक युद्ध में लगा हुआ सैनिक नहीं है, या ऐसा नियोजित या लगा हुआ वायुसैनिक नहीं है, या समुद्र में नाविक नहीं है, अपनी वसीयत निम्नलिखित नियमों के अनुसार निष्पादित करेगा:—
(क) वसीयतकर्त्ता वसीयत पर हस्ताक्षर करेगा या अपना चिह्न लगाएगा, या वसीयतकर्त्ता की उपस्थिति में और उसके निर्देश पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उस पर हस्ताक्षर किये जाएंगे।
(ख) वसीयतकर्त्ता का हस्ताक्षर या चिह्न, या उसके लिये हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति का हस्ताक्षर इस प्रकार रखा जाएगा कि ऐसा प्रतीत हो कि ऐसा करके वसीयत के रूप में लिखित रूप को प्रभावी बनाने का आशय था।
(ग) वसीयत को दो या अधिक साक्षियों द्वारा सत्यापित किया जाएगा, जिनमें से प्रत्येक ने वसीयतकर्त्ता को वसीयत पर हस्ताक्षर करते या अपना चिह्न लगाते देखा है या वसीयतकर्त्ता की उपस्थिति में और उसके निर्देश पर किसी अन्य व्यक्ति को वसीयत पर हस्ताक्षर करते देखा है, या वसीयतकर्त्ता से उसके हस्ताक्षर या चिह्न, या ऐसे अन्य व्यक्ति के हस्ताक्षर की व्यक्तिगत पावती प्राप्त की है; तथा प्रत्येक साक्षी वसीयतकर्त्ता की उपस्थिति में वसीयत पर हस्ताक्षर करेगा, लेकिन यह आवश्यक नहीं होगा कि एक से अधिक साक्षी एक ही समय पर उपस्थित हों, तथा सत्यापन का कोई विशेष रूप आवश्यक नहीं होगा।
मोहम्मद एंटरप्राइजेज (तंजानिया) लिमिटेड बनाम फारूक अली खान एवं अन्य
Mohammed Enterprises (Tanzania) Ltd. v. Farooq Ali Khan & Ors
निर्णय/आदेश की तिथि – 03.01.2025 पीठ में न्यायमूर्तिों की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिंहा एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्र |
मामला संक्षेप में:
- 26 अक्टूबर, 2018 को ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के वित्तीय लेनदार के कहने पर कॉर्पोरेट ऋणी के विरुद्ध CIRP को स्वीकार किया गया था।
- 19वीं CoC बैठक के दौरान, समाधान योजनाओं की समीक्षा की गई, अपीलकर्ता को कुछ मदों को शामिल करने के लिये कहा गया, तथा बैठक को 11 फरवरी, 2020 तक के लिये स्थगित कर दिया गया।
- नोटिस के विषय में विवाद था - जबकि समाधान पेशेवर ने दावा किया कि नोटिस जारी किया गया था, श्याम दीवान ने प्रस्तुत किया कि उनके मुवक्किल को यह कभी नहीं मिला।
- संशोधित समाधान योजना को 11 फरवरी, 2020 को ई-वोटिंग के माध्यम से CoC द्वारा सर्वसम्मति से 100% वोटिंग शेयर के साथ अनुमोदित किया गया था।
- स्वामित्व, जिसकी समाधान योजना को अस्वीकार कर दिया गया था, ने अधिकरण से पुनर्विचार की मांग करते हुए एक अंतरिम आवेदन दायर किया।
- निलंबित निदेशक ने भी अपीलकर्ता की समाधान योजना को अस्वीकार करने की मांग करते हुए NCLAT के समक्ष एक अंतरिम आवेदन दायर किया।
- उच्च न्यायालय ने अंततः समाधान योजना को मुख्य रूप से इसलिये खारिज कर दिया क्योंकि 24 घंटे का नोटिस नहीं दिया गया था तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया था।
- कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अपील के माध्यम से मामला उच्चतम न्यायालय पहुँचा।
निर्णय :
- न्यायालय ने CoC की बैठक (11 फरवरी, 2020) और उच्च न्यायालय (4 जनवरी, 2023) में अपील करने के बीच लगभग तीन वर्ष का महत्त्वपूर्ण विलंब का उल्लेख किया।
- विभिन्न मंचों के समक्ष स्वामित्व कंसोर्टियम द्वारा की गई कार्यवाही उच्च न्यायालय में अपील करने में विलंब को उचित नहीं माना जा सकता है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि IBC अपने आप में एक पूर्ण संहिता है जिसमें पर्याप्त जाँच, संतुलन एवं उपचारात्मक प्रावधान हैं।
- उच्च न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिये था कि प्रतिवादी ने पहले ही अंतरिम आवेदन दायर करके IBC के अंतर्गत कार्यवाही प्रारंभ कर दी थी।
- न्यायालय ने विधिक अनुशासन बनाए रखने के लिये प्रोटोकॉल एवं प्रक्रियाओं के पालन के महत्त्व पर बल दिया।
- जबकि उच्च न्यायालयों के पास पर्यवेक्षी शक्तियाँ हैं, उनके प्रयोग के लिये कठोर जाँच एवं विवेकपूर्ण आवेदन की आवश्यकता होती है।
- यह उच्च न्यायालय के लिये IBC के अंतर्गत CIRP कार्यवाही को रोकने के लिये उपयुक्त मामला नहीं था।
- न्यायालय ने अधिकरण को निर्देश दिया कि वे कार्यवाही को वहीं से फिर से प्रारंभ करें जहाँ उन्हें रोका गया था और उन्हें शीघ्रता से पूर्ण करें।
प्रासंगिक प्रावधान
दिवाला एवं धन शोधन अक्षमता संहिता, 2016 की धारा 60
धारा 60 कॉर्पोरेट व्यक्तियों के लिये न्यायनिर्णयन प्राधिकरण से संबंधित है।
इसमें यह प्रावधानित किया गया है कि
(1) कॉरपोरेट ऋणीयों एवं उनके व्यक्तिगत प्रत्याभूतिदाता सहित कॉरपोरेट व्यक्तियों के लिये दिवाला समाधान एवं परिसमापन के संबंध में न्यायनिर्णायक प्राधिकरण राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण होगा, जिसका उस स्थान पर क्षेत्रीय अधिकारिता होगी जहाँ कॉरपोरेट व्यक्ति का पंजीकृत कार्यालय स्थित है।
(2) उपधारा (1) पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना और इस संहिता में किसी प्रतिकूल तथ्य के होते हुए भी, जहाँ किसी कॉरपोरेट ऋणी की कॉरपोरेट दिवालियेपन समाधान प्रक्रिया या परिसमापन कार्यवाही राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण के समक्ष लंबित है, ऐसे कॉरपोरेट ऋणी के, यथास्थिति, कॉरपोरेट प्रत्याभूतिदाता या व्यक्तिगत प्रत्याभूतिदाता के दिवालियेपन समाधान या परिसमापन या दिवालियापन से संबंधित आवेदन ऐसे राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण के समक्ष दायर किया जाएगा।
(3) किसी न्यायालय या अधिकरण में लंबित कॉर्पोरेट ऋणी के कॉर्पोरेट प्रत्याभूतिदाता या व्यक्तिगत प्रत्याभूतिदाता की दिवाला समाधान प्रक्रिया या परिसमापन या दिवालियापन कार्यवाही, जैसा भी मामला हो, ऐसे कॉर्पोरेट ऋणी की दिवाला समाधान प्रक्रिया या परिसमापन कार्यवाही से निपटने वाले न्यायनिर्णायक प्राधिकरण को स्थानांतरित हो जाएगी।
(4) राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण में उप-धारा (2) के प्रयोजन के लिये इस संहिता के भाग III के तहत परिकल्पित ऋण वसूली अधिकरण की सभी शक्तियाँ निहित होंगी।
(5) तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी प्रतिकूल तथ्य के होते हुए भी, राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण को निम्नलिखित पर विचार करने या निपटान का अधिकार होगा-
क) कॉर्पोरेट ऋणी या कॉर्पोरेट व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध कोई आवेदन या कार्यवाही;
(ख) कॉर्पोरेट ऋणी या कॉर्पोरेट व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध किया गया कोई दावा, जिसमें भारत में स्थित उसकी किसी सहायक कंपनी द्वारा या उसके विरुद्ध दावे शामिल हैं; और
(ग) इस संहिता के अंतर्गत कॉर्पोरेट ऋणी या कॉर्पोरेट व्यक्ति की दिवाला समाधान या परिसमापन कार्यवाही से उत्पन्न या उसके संबंध में प्राथमिकताओं का कोई प्रश्न या विधि या तथ्यों का कोई प्रश्न।
(6) परिसीमा अधिनियम, 1963 (1963 का 36) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी तथ्य के होते हुए भी, किसी निगमित ऋणी द्वारा या उसके विरुद्ध किसी वाद या आवेदन के लिये विनिर्दिष्ट सीमा अवधि की संगणना करने में, जिसके लिये इस भाग के अधीन अधिस्थगन का आदेश दिया गया है, वह अवधि जिसके दौरान ऐसा अधिस्थगन लागू है, अपवर्जित कर दी जाएगी।